चौरासी वैष्णव की वार्ता:


‘एक समय सेठ पुरुषोत्तम दास झारखंड में मंदार मधुसूदन ठाकुर जी के मंदिर में थे। यह मंदिर मंदार पर्वत के ऊपर है। उस पर्वत का भी महत्व है कि उस पर्वत पर से गिर जाने पर चोट नहीं लगती है। गिरते समय अपने समस्त पापों का स्मरण कर ले और गिरने से देह छूट जाए तो देह छूटते समय कोई कामना हो वह दूसरे जन्म में पूर्ण हो। ऐसे पुनीत स्थल पर एक बार श्रीआचार्यजी महाप्रभु पधारे।उनके साथ सेठ पुरुषोत्तम दास और श्री आचार्य जी महाप्रभु का सेवक एक ब्राह्मण भी था। ये दोनों मंदार मधुसूदन जी के दर्शनार्थ पर्वत के ऊपर चढ गये। वहां उन्होंने मंदार मधुसूदन जी के दर्शन किए। रात्रि हो जाने पर वे दोनों वहीं पर सो गए। देर रात में वहां एक ब्राह्मण आया जो सिद्ध था।उस ने सेठ पुरुषोत्तम दास के साथी ब्राह्मण से पूछा- तुम कौन हो?
वह ब्राह्मण बोला -हम तो श्री आचार्य जी महाप्रभु के सेवक वैष्णव हैं।
उस सिद्ध ने कहा-मेरे पास एक मणी है यदि तुम लेना चाहो तो वह मणि तुम्हें दे सकता हूं। वैष्णव ने पूछा-यह मणि किस काम आती है?सिद्ध ने कहा-यह मणि इच्छित पदार्थ देती है ।
वैष्णव ब्राह्मण ने वह मणि सेठ पुरुषोत्तमदास को देने को कहा।सेठ पुरुषोत्तमदास ने मना करके कहा-मैं श्रीठाकुरजी और श्रीआचार्यजी महाप्रभू का आश्रय छोडकर मणि का आश्रय करुं?तूने क्यों नहीं लिया?ब्राह्मण ने कहा-मुझे तो सेर चून कहीं से भी मिल जायेगा।सेठ पुरुषोत्तमदास ने कहा-जगदीश तुझे सेर चून देगा तो मुझे नहीं देगा?जगदीश के यहां किसी बात की न्यूनता नहीं है।इस तरह दोनों ने मणि नहीं ली।”


हम दृढ आश्रय कहकर प्रशंसा कर देते हैं और स्वयं को अधूरा,अपूर्ण मानकर बैठ जाते हैं।कहनेवाले कहते हैं-वैष्णव तो हो गये चौरासी,दोसौबावन,हम क्या हैं?
तो क्या हम प्रभु के जन नहीं हैं,हम गोलोक से नहीं आये हैं?फिर समर्पण को इतना कठिन जैसा क्यों मान लेते हैं?क्या हमारे भीतर प्रेम नहीं है अपने प्रभु के लिये?
“प्रेम और समर्पण का एक ही अर्थ होता है।प्रेम के बिना कैसा समर्पण।और अगर समर्पण न हो तो कैसा प्रेम!
प्रेम के बिना तो समर्पण हो ही नहीं सकता।प्रेम के बिना जो समर्पण होता है,वह समर्पण नहीं है,जबरदस्ती है।”
क्या हम ब्रह्मसंबंध जबरदस्ती लेते हैं या प्रेम से लेते हैं?प्रेम से लेते हैं तो यह क्यों कहते हैं-दृढ आश्रय तो पुरुषोत्तमदासजी में सिद्ध था?
हमें इसकी फिक्र नहीं करनी चाहिये।हमें अपनी स्थिति को देखना चाहिये।
“समर्पण का अर्थ है स्वेच्छा से,अपनी मर्जी से।तुम पर कोई दबाव न था,कोई जोर न था,कोई कह नहीं रहा था,कोई तुम्हें किसी तरह से मजबूर नहीं कर रहा था।
तुम्हारा प्रेम था ,प्रेम में तुम झुके तो समर्पण।
प्रेम में ही समर्पण हो सकता है।”
प्रेम था नहीं,किसीके कहने से ब्रह्मस़ंंब़ंध ले लिया तो वह समर्पण नहीं है।ज्यादातर उदाहरण ऐसे ही हैं इसलिये बाद में सेवा नहीं होती,पुष्टिमार्गीय नियमों की अनदेखी होती है।
बस किसीने कहा ब्रह्मसंबंध ले लिया देखादेखी यह तो पता ही नहीं लगाया कि ब्रह्मसंबंध क्यों ले रहे हैं?क्या यह जरुरी है?नहीं लेंगे तो नहीं चलेगा?
प्रेम तो था ही नहीं।सिर्फ अंधानुकरण था।
हमें प्रेम था पुष्टिपुरुषोत्तम से,हम समर्पित हो गये।
बहुत बडा कार्य हो गया।
अब कोई फिक्र?
कैसी फिक्र,अब तो निश्चिंत हो जाना चाहिये।
हममें कोई कमी है तो हम नि:साधन जीव हैं।
उन पर ठाकुरजी की कृपा शीघ्र होती है।
मुझमें दृढ आश्रय की कमी क्यों है,ऐसा नहीं होना चाहिये-ऐसा कहने के पीछे अहंकार का आग्रह है।
पुष्टिमार्ग को समझे ही नहीं।
यह तो नि:साधन जनों का मार्ग है कि प्रभु मैं असमर्थ हूं,मुझमें साधनबल नहीं है।
तब महाप्रभुजी भी कहते हैं-चिंता मत करो।जिन्होंने आत्मनिवेदन किया है प्रभु उसकी लौकिक गति नहीं होने देते।’
निर्बल होने से लौकिक गति का भय होता है लेकिन जिसका बल स्वयं कृष्ण हैं उसकी लौकिक गति कैसे हो सकती है -प्रभु:सर्वसमर्थो हि….
जिस प्रमेयबल की बात कही जाती है वह क्या है?यही है कि तुम शरण में आ जाओ बाकी सब प्रभु पर छोड दो।
और कुछ न हो सके तो सतत श्रीकृष्ण:शरणं मम बोलते रहो उससे भी हो जायेगा।
अष्टाक्षर महामंत्र स्वरुपात्मक है।हमें पता नहीं तो क्या हुआ,हम बोलते रहें सतत वह अपना कार्य करेगा।धैर्य,विवेक,आश्रय सब सिद्ध हो जायेंगे उसकी अनुकंपा से।
क्रमश:।

“कही सेठ सों संत जगाई।लेहु महामणि तुम यह भाई।।
सुख संपत्ति यातें बहु पैहौ।सपनेहु तनिक दु:ख ना लैहौ।।
बोले पुरुषोत्तम मुनिराजा।यह मणि हमरे कौने काजा।।
सर्व समर्थ सेव्य सुंदर से।हम कहं मणि कंचन-मंदर से।।
जे सब मणियन सिरजनहारे।कर जोरत कुबेर जिन द्वारे।।
तिनके अछत और का लहिये।अहो सिद्ध मणि हमहिं न चहिये।।
परदारा माता समझि,परधन धूरि समान।रखहिं दृढाश्रय सेव्य में,वैष्णव तेइ महान।।
परम अलौकिक तेजमय,सेवा मणि जिन पास।कहहू भूप किमि वे करहिं,ऐसे मणि की आस।।”
-श्रीविट्ठलायन।
(यह ऐसा है जैसे कोई दिन के भरपूर उजाले में सूर्य की उपस्थिति में चला जा रहा हो और कोई कहे-यह लालटेन लेते जाओ।
तो वह क्यों इस भार को ढोये?सेठ पुरुषोत्तमदासजी को तो सानुभव प्राप्त है,स्वयं महाप्रभुजी साथ साथ चल रहे ऐसे में मणि का लोभ हो यह असंभव है।जिसे सानुभव नहीं है,जिसे कुछ पता नहीं प्रभु,महाप्रभु की अनुग्रहपूर्ण सामर्थ्य का उसे लोभ हो जाय या जरुरत महसूस हो मणि आदि की तो और बात है।)

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