गोपी का विरह कृष्ण मिलन

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एक गोपी को श्रीकृष्ण का बहुत विरह हो रहा था। सारी रात विरह में करवटे बदलते ही बीती। सुबह ब्रह्म मुहूर्त में जागी तो देखा जोरों की वर्षा हो रही है। बादल बिल्कुल काले होकर नभ पर बिखरे पड़े हैं। श्याम वर्ण घने बादल देखते ही गोपी की विरह वेदना बढ़ने लगी। वह मन ही मन बोली-“हे श्याम घन, तुम भी मेरे प्रियतम घनश्याम की तरह हो।हे घन जाओ और उस नटखट को मेरा सन्देश दे आओ कि एक गोपी तुम्हारी याद में पल पल तड़प रही है। मेरे इन आँसुओं को अपने जल में मिलाकर श्याम पर बरसा देना। मेरे आँसुओं की तपन से शायद उस छलिया को मेरी पीड़ा का अनुभव हो।”

थोड़ी देर के बाद बारिश रूकी तो मटकी उठाकर अपनी सास से जल भरने की अनुमति माँग कर घर से बाहर निकल गयी। मुख पर घूँघट, कमर और सर पर मटकी रख कर कृष्ण की याद में खोई चलती जा रही है पनघट की डगर। थोड़ी आगे गई थी कि बारिश फिर से शुरू हो गई। अब गोपी के वस्त्र भी भीगने लगे। गोपी का बाह्य तन बारिश की वजह से भीगने लगा और ठण्ड भी लगने लगी। गोपी का अंतर्मन विरह अग्नि से जल रहा था। वह गोपी बाहर की ठण्डक और अन्दर की जलन, दोनों का अनुभव कर रही है। उधर कान्हा को अपनी भक्त की पीड़ा का अनुमान हो गया था।वह भी विरह में
छटपटाने लगे। फिर तुरन्त ही काली कमली कांधे पर डाली और निकल पड़े वंशी बजाते हुए यमुना के तीर। एक वृक्ष के नीचे कान्हाजी उस गोपी की राह देखने लगे।सहसा देखा कि कुछ दूर वही गोपी घूँघट डाले चली आ रही है।
नटखट कान्हाजी ने रास्ता रोक लिया। और बोले- “भाभी… तनिक थोड़ा पानी पिला दो, बड़ी प्यास लगी है।”
गोपी घूँघट में थी, पहचान नही पाई कि जिसकी याद में तड़प रही है वही समक्ष आ गया है। गोपी तो विरह अग्नि में जल रही थी तो बिना देखे ही शुष्कता से बोली- “अरे ग्वाले नेत्र क्या कहीं गिरवी धर आये हो?देखता नहीं कि मटकी खाली है। पनघट जा रही हूँ अभी।”
नटखट कान्हाजी ने एक करनी करी। मन्द-मन्द मुस्कुराते कान्हा ने घूँघट पकड लिया और बोले- “अरी भाभी नेक अपना चाँद सा मुखड़ा तो दिखाती जा”
अब तो गोपी डर गई।एक तो वन का एकान्त और यह कोई लूटेरा लग रहा है। फिर गोपी ने घूँघट जोर से पकड लिया। लेकिन कान्हा जी भी कहाँ छोडने वाले थे। अब दोनों तरफ से घूँघट की खिंचातानी होने लगी। तभी नटखट कान्हाजी ने गोपी का घूँघट खिंच लिया और गोपी ने चौंककर एक हाथ से अपना मुख ढक लिया। एक क्षण के बाद गोपी ने हाथ हटाया और दोनों की आँखे मिली। गोपी हतप्रभ हो गई- “अरे ये तो मेरे श्याम हैं और ये मुझे भाभी कहकर बुला रहे हैं, कितने नटखट हैं।”
दोनों तरफ से आँखों से मूक प्रेम बरस रहा था और दोनों तरफ से हृदय से बात हो रही थी। एक अलौकिक प्रेममय वातावरण हो गया था।
सहसा गोपी बोली- “मैं भाभी नही, तुम्हारी गोपी हूँ, तुम्हारी सखी हूँ।”
कान्हाजी जोर से खिलखिलाकर हँस पड़े। कान्हाजी बोले- “अरी गोपी हम तो तुम्हें धिक करने को भाभी बोले हैं “
गोपी थोड़ा शरमा गई और बोली- “हटो राह से, जल भर लाने दो हमें”
कृष्ण ने हँसते-हँसते रास्ता दे दिया। गोपी अब तो असमंजस में पड़ गई। जल भरने जाऊ तो मिलन अधूरा रहेगा और न जाऊँ तो सास खीजेगी। इसी असमंजस मे एक क्षण के बाद देखा तो कान्हाजी को दूर जाते देखा और हृदय में अधूरे मिलन की विरहाग्नि शुरू हो गई।
सखियों यहाँ प्रभु सभी जीव को यह समझा रहे हैं- “अगर मेरा ही स्मरण करोगे तो मुझे तुरन्त ही समक्ष पाओगे। लेकिन संसार के डर से थोड़े भी विमुख हुए तो मुझे दूर जाता पाओगे। अगर जीव को गोपी जैसा विरह होता है तो मुझे वापिस सन्मुख होना ही पड़ता है। इसलिए जीव के हृदय में सतत् गोपी भाव ही रहना चाहिए जिससे प्रभु सदा हृदय में ही वास करें।”
अब गोपी विरहाग्नि में जलती हुई कान्हाजी का स्मरण करते हुए अनमने भाव से जल भरकर वापस चल दी। एक मटका सर पर, दूसरा कमर पर। कृष्ण के ख्यालों में खोई सी चल रही है। उसने घूँघट भी नहीं किया है और चारों ओर कान्हाजी को तलाशती हुई वापस आ रही है। कृष्ण जिनका नाम है वो ही विरह की वेदना और मिलन के सुख का दान देते हैं। रास्ते में पास के कदम्ब के पेड़ पर उस गोपी की घात लगाकर वह नटखट छलिया बैठे है। कान्हाजी ने गोपी के निकट आते ही कंकड़ मारकर सर पर रखी मटकी फोड़ दी, तो घबराहट में दूसरी मटकी भी हाथ से छूट गई। कदम्ब के पत्तों में छिपे श्याम की शरारती खिलखिलाहट समग्र भूमण्डल में गूँजने लगी। सारी प्रकृति खिल उठी। गोपी कृष्ण प्रेमरूपी जल से भीग गई। संसार को भूल गई और कृष्ण मय हो गई। सब ओर सावन दृष्टिगोचर होने लगा। गोपी ऊपर से रूठती, अन्दर से प्रसन्न, आह्लादित हुई और हो भी क्यों न? सबके मन को हरने वाला साँवरा आज उस पर कृपा कर गया। व्रज की गोपियों के भाग्य का क्या कहना। प्रभु का ऐश्वर्यशाली रूप उन्हें नही पता। उनका अबोध, निश्छल मन तो उन्हें व्रज का ग्वाल समझकर ही प्रेम करता है। हे प्रभु हम भी सैंकड़ों वर्षो से आपसे बिछड़े हैं। हमारे भीतर भी गोपी जैसा विरह हो ऐसी कृपा करो।
RADHE RADHE JAI SHREE KRISHNA JI
VERY GOOD MORNING JI



A Gopi was feeling very sad for Shri Krishna. The whole night was spent tossing and turning in separation. When I woke up in the morning during Brahma Muhurta, I saw that it was raining heavily. The clouds are completely black and scattered across the sky. As soon as she saw the dark dark clouds, Gopi’s pain of separation started increasing. She said in her mind – “O Shyam Ghan, you are also like my beloved Ghanshyam. O Ghan, go and give my message to that mischievous person that a Gopi is yearning for your memory every moment. Mix these tears of mine with your water and rain them on Shyam. Maybe that fool might feel my pain due to the heat of my tears.”

थोड़ी देर के बाद बारिश रूकी तो मटकी उठाकर अपनी सास से जल भरने की अनुमति माँग कर घर से बाहर निकल गयी। मुख पर घूँघट, कमर और सर पर मटकी रख कर कृष्ण की याद में खोई चलती जा रही है पनघट की डगर। थोड़ी आगे गई थी कि बारिश फिर से शुरू हो गई। अब गोपी के वस्त्र भी भीगने लगे। गोपी का बाह्य तन बारिश की वजह से भीगने लगा और ठण्ड भी लगने लगी। गोपी का अंतर्मन विरह अग्नि से जल रहा था। वह गोपी बाहर की ठण्डक और अन्दर की जलन, दोनों का अनुभव कर रही है। उधर कान्हा को अपनी भक्त की पीड़ा का अनुमान हो गया था।वह भी विरह में छटपटाने लगे। फिर तुरन्त ही काली कमली कांधे पर डाली और निकल पड़े वंशी बजाते हुए यमुना के तीर। एक वृक्ष के नीचे कान्हाजी उस गोपी की राह देखने लगे।सहसा देखा कि कुछ दूर वही गोपी घूँघट डाले चली आ रही है। नटखट कान्हाजी ने रास्ता रोक लिया। और बोले- “भाभी… तनिक थोड़ा पानी पिला दो, बड़ी प्यास लगी है।” गोपी घूँघट में थी, पहचान नही पाई कि जिसकी याद में तड़प रही है वही समक्ष आ गया है। गोपी तो विरह अग्नि में जल रही थी तो बिना देखे ही शुष्कता से बोली- “अरे ग्वाले नेत्र क्या कहीं गिरवी धर आये हो?देखता नहीं कि मटकी खाली है। पनघट जा रही हूँ अभी।” नटखट कान्हाजी ने एक करनी करी। मन्द-मन्द मुस्कुराते कान्हा ने घूँघट पकड लिया और बोले- “अरी भाभी नेक अपना चाँद सा मुखड़ा तो दिखाती जा” अब तो गोपी डर गई।एक तो वन का एकान्त और यह कोई लूटेरा लग रहा है। फिर गोपी ने घूँघट जोर से पकड लिया। लेकिन कान्हा जी भी कहाँ छोडने वाले थे। अब दोनों तरफ से घूँघट की खिंचातानी होने लगी। तभी नटखट कान्हाजी ने गोपी का घूँघट खिंच लिया और गोपी ने चौंककर एक हाथ से अपना मुख ढक लिया। एक क्षण के बाद गोपी ने हाथ हटाया और दोनों की आँखे मिली। गोपी हतप्रभ हो गई- “अरे ये तो मेरे श्याम हैं और ये मुझे भाभी कहकर बुला रहे हैं, कितने नटखट हैं।” दोनों तरफ से आँखों से मूक प्रेम बरस रहा था और दोनों तरफ से हृदय से बात हो रही थी। एक अलौकिक प्रेममय वातावरण हो गया था। सहसा गोपी बोली- “मैं भाभी नही, तुम्हारी गोपी हूँ, तुम्हारी सखी हूँ।” कान्हाजी जोर से खिलखिलाकर हँस पड़े। कान्हाजी बोले- “अरी गोपी हम तो तुम्हें धिक करने को भाभी बोले हैं “ गोपी थोड़ा शरमा गई और बोली- “हटो राह से, जल भर लाने दो हमें” कृष्ण ने हँसते-हँसते रास्ता दे दिया। गोपी अब तो असमंजस में पड़ गई। जल भरने जाऊ तो मिलन अधूरा रहेगा और न जाऊँ तो सास खीजेगी। इसी असमंजस मे एक क्षण के बाद देखा तो कान्हाजी को दूर जाते देखा और हृदय में अधूरे मिलन की विरहाग्नि शुरू हो गई। सखियों यहाँ प्रभु सभी जीव को यह समझा रहे हैं- “अगर मेरा ही स्मरण करोगे तो मुझे तुरन्त ही समक्ष पाओगे। लेकिन संसार के डर से थोड़े भी विमुख हुए तो मुझे दूर जाता पाओगे। अगर जीव को गोपी जैसा विरह होता है तो मुझे वापिस सन्मुख होना ही पड़ता है। इसलिए जीव के हृदय में सतत् गोपी भाव ही रहना चाहिए जिससे प्रभु सदा हृदय में ही वास करें।” अब गोपी विरहाग्नि में जलती हुई कान्हाजी का स्मरण करते हुए अनमने भाव से जल भरकर वापस चल दी। एक मटका सर पर, दूसरा कमर पर। कृष्ण के ख्यालों में खोई सी चल रही है। उसने घूँघट भी नहीं किया है और चारों ओर कान्हाजी को तलाशती हुई वापस आ रही है। कृष्ण जिनका नाम है वो ही विरह की वेदना और मिलन के सुख का दान देते हैं। रास्ते में पास के कदम्ब के पेड़ पर उस गोपी की घात लगाकर वह नटखट छलिया बैठे है। कान्हाजी ने गोपी के निकट आते ही कंकड़ मारकर सर पर रखी मटकी फोड़ दी, तो घबराहट में दूसरी मटकी भी हाथ से छूट गई। कदम्ब के पत्तों में छिपे श्याम की शरारती खिलखिलाहट समग्र भूमण्डल में गूँजने लगी। सारी प्रकृति खिल उठी। गोपी कृष्ण प्रेमरूपी जल से भीग गई। संसार को भूल गई और कृष्ण मय हो गई। सब ओर सावन दृष्टिगोचर होने लगा। गोपी ऊपर से रूठती, अन्दर से प्रसन्न, आह्लादित हुई और हो भी क्यों न? सबके मन को हरने वाला साँवरा आज उस पर कृपा कर गया। व्रज की गोपियों के भाग्य का क्या कहना। प्रभु का ऐश्वर्यशाली रूप उन्हें नही पता। उनका अबोध, निश्छल मन तो उन्हें व्रज का ग्वाल समझकर ही प्रेम करता है। हे प्रभु हम भी सैंकड़ों वर्षो से आपसे बिछड़े हैं। हमारे भीतर भी गोपी जैसा विरह हो ऐसी कृपा करो। RADHE RADHE JAI SHREE KRISHNA JI VERY GOOD MORNING JI

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