क्या आपने कभी सोचा है कि लोग जन्म-जन्मांतर तक जप करते रहते हैं, फिर भी ईश्वर उनके समक्ष प्रकट क्यों नहीं होते? क्या ईश्वर दूर हैं, या फिर हमारी पुकार में ही कोई कमी है? शास्त्रों में इस रहस्य का उत्तर बड़े ही अद्भुत ढंग से दिया गया है।
भगवान श्रीकृष्ण गीता में कहते हैं—
अर्थात जो मेरी निश्चल भक्ति करते हैं, मैं स्वयं उनके योग-क्षेम का वहन करता हूँ। लेकिन समस्या यही है—क्या हमारा जप अनन्य है? क्या हम ईश्वर को उसी तड़प, उसी समर्पण, उसी प्रेम से पुकार रहे हैं जैसे कोई डूबता हुआ व्यक्ति तट की ओर हाथ बढ़ाता है?
तुलसीदास जी ने कहा है—
मन मन्दिर की ज्योति जगाओ, श्रीराम पधारेंगे।
ईश्वर बाहरी मंदिरों में नहीं, हृदय-गुहा के गहरे सन्नाटे में वास करते हैं। हमारा जप तभी फलदायी होगा, जब वह केवल वाणी से नहीं, बल्कि मन, आत्मा और हर श्वास में प्रवाहित हो।
जप केवल शब्दों का दोहराव नहीं है, यह आत्मा की पुकार है। शास्त्रों में कहा गया है—
नामातिरेको न हि मंत्र एष
अर्थात नाम-जप से बढ़कर कोई मंत्र नहीं, परंतु नाम का प्रभाव तभी होता है जब वह केवल जिह्वा से नहीं, हृदय से उठता है।
यही भक्ति का रहस्य है। जब तक ‘मैं’ बना रहता है, ईश्वर का आभास नहीं होता। जप करते समय भी यदि अहंकार बना रहे—कि मैं कर रहा हूँ, मैं साधक हूँ—तो ईश्वर से दूरी बनी रहती है।
मीरा ने जहर को अमृत बना लिया, सूरदास ने बिना आँखों के प्रभु को देख लिया, नामदेव को मंदिर की दीवार से ठाकुर जी ने पुकार लिया—क्या उनके पास कोई विशेष मंत्र था? नहीं! उनके पास था निष्कलंक प्रेम, अनन्य समर्पण और वह तड़प जो पर्वत को भी पिघला दे।
नारद भक्ति सूत्र कहता है—
सा त्वस्मिन परमप्रेमरूपा।
अर्थात भक्ति वही है जो प्रेम की पराकाष्ठा तक पहुँच जाए।
कल्पना कीजिए—एक बच्चा अपनी माँ को पुकारता है, वह किसी मंत्र या शास्त्र का सहारा नहीं लेता, बस एक शब्द—माँ! और माँ दौड़कर आ जाती है। फिर जो प्रेम से ईश्वर को पुकारे, वह क्यों नहीं आएँगे?
श्रीमद्भागवत में कहा गया है—
हृद्वाग्वपुर्भिर्विदधन् नमस्यं जीवेत यो मुक्तिपदे स दायभाक्।।
जो मन, वाणी और शरीर से ईश्वर का भजन करता है, वह मोक्ष का अधिकारी बनता है। लेकिन आज जप करते समय मन कहाँ होता है? क्या वह वास्तव में प्रभु का स्मरण कर रहा होता है, या संसार के विचारों में उलझा होता है?उठते बैठते सोते चलते भगवान के नाम की पुकार लगाते है। तब नाम जप भीतर चलने लगता भक्त भीतर झांक कर देखता है जप चल रहा है भक्त कुछ भी कार्य कर रहा हो मिनट मिनट में देखता है जप चल रहा है मंत्र जप चलना और सुनना भीतर चलते हुए जप में कान ढुब जाते कान भीतर के जप के अलावा कुछ सुनना नहीं चाहते हैं तब भक्त से धीरे-धीरे भीतर से जगत निकल जाता है जगत निकल गया तब मैं भी निकल जाता है मै भी निकल गया तब प्रभु की प्रभुसत्ता भक्त को दिखने लगती है। प्रभु भगवान की दिव्यता पर पर्दा पडा हुआ था वह हट गया सब कुछ ईश्वर है भक को दिखने लगा। सबकुछ ईश्वरमय है दिखने पर भी भक्त नाम जप को नहीं छोड़ता है। भक्त के हृदय की एक ही पुकार होती हैं हे नाथ जब तक सांस चले तेरे चिन्तन मनन स्मरण में लगा रहूं यह आत्मा तुम्हारे चरणों की चेरी बनी रहे जय श्री राम अनीता गर्ग
जप के गहरे रहस्य को समझने के लिए यह जानना होगा कि ईश्वर को शब्दों में नहीं, संवेदनाओं में पाया जाता है। शब्द तो एक सीढ़ी हैं, लेकिन लक्ष्य तो शून्य में विलीन हो जाना है। जब शब्द पीछे छूट जाते हैं, जब जप केवल होंठों से नहीं, बल्कि रोम-रोम से गूँजने लगता है, जब साँस-साँस प्रभु का नाम पुकारने लगती है—तभी ईश्वर का साक्षात्कार होता है।
तो फिर ईश्वर क्यों नहीं आते?
हमारे भीतर अभी भी संशय, भय, लोभ, अहंकार और अधूरी समर्पण भावना है। हम जप तो करते हैं, मगर पूरी तरह नहीं डूबते। यह वैसा ही है जैसे कोई नदी में स्नान तो करे, परंतु जल में गहराई तक न जाए।
ईश्वर को देखने के लिए बाहर नहीं, भीतर देखना होगा। जब हृदय के भीतर शुद्ध प्रेम प्रकट होगा, जब भक्ति केवल कर्मकांड नहीं, बल्कि जीवन का उत्सव बन जाएगी—तब जप केवल शब्द नहीं रहेगा, वह सजीव हो उठेगा। तब प्रभु स्वयं अपनी बाँसुरी की मोहक तान से हमारे द्वार पर आ खड़े होंगे।
जप का रहस्य केवल यह नहीं कि हम कितनी बार नाम जपते हैं, बल्कि यह है कि हम कितनी गहराई से ईश्वर को पुकारते हैं। प्रेम, तड़प और समर्पण के बिना जप अधूरा है। जब जप में ‘मैं’ विलीन हो जाता है और केवल प्रभु बचते हैं, तभी दर्शन होते हैं।
जिस दिन यह सत्य हमारे भीतर जाग्रत हो जाएगा, उसी दिन प्रभु प्रकट हो जाएँगे। तब न शब्दों की आवश्यकता होगी, न ही किसी विशेष साधना की—तब केवल परम मौन होगा, और उसमें प्रभु का दिव्य स्वरूप झलकेगा।