प्रेम का स्वभाव विचित्र है, इसमें तो देना ही देना है।


संत हरिदास जी के जीवन की एक घटना है। एक बार की बात है कुछ दुष्टों ने हरिदास जी को बीच रास्ते पकड़ लिया और लगे उन्हें मारने। वे हरिदास जी को मारते जाते और बोलते जाते- “अब लेगा हरि नाम? अब ले हरि नाम। खबरदार जो आज के बाद हरि नाम लिया तो। बड़ा हरि भक्त बनता है। ले हरि नाम। अब हरि नाम लेकर दिखा।”
संत हरिदास जी ने विचार किया- “ये मुझे मारते हैं तो इनके मुख से हरि नाम निकलता है। मेरे भगवान का नाम निकलता है।” वे बोले- “भैया! और मारो! हरि हरि हरि हरि। और मारो! हरि हरि हरि हरि।”
देखें, अपने प्रेम के पात्र के सुख के लिए यदि हमें दुख सहना पड़े तो उस दुख में ही हमें सुख है। उसके सुख के लिए तो दुख सहने में भी आनन्द है।
प्रेम में सहनशीलता स्वाभाविक ही आ जाती है। माँ कितनी ही बीमार क्यों न हो, पुत्र के परदेस से आने पर, वह उठ खड़ी हो, प्रसन्नता पूर्वक भोजन बनाती ही है।
दिन भर के श्रम के बाद थकान से चूर माँ, अपने गोद के बालक के बिस्तर गीला कर देने पर, उसे सूखी चादर पर सुला कर, स्वयं गीले में लेटती ही है।
अब जिसका जिससे प्रेम है, वह उसके सुख के लिए, अपने कौन से भोग का त्याग मुस्कुराते हुए नहीं करता?
विचार करें! प्रेम का केन्द्र भिन्न होने पर भी विषयी और भगवद्प्रेमी दोनों ही भोग का त्याग करते हैं। विषयी अपने कुल की परम्परा, मान मर्यादा, पिता की सम्पत्ति, दिन का चैन, रात की नींद, भूख प्यास का ध्यान, सब कुछ छोड़ कर विषय पूर्ति में लगा रहता है। तो भगवद्प्रेमी स्वयमेव भोग त्याग कर, अभावग्रस्त जीवन जीने में ही अपना सौभाग्य मानता है।
पर त्याग एक समान होने पर भी दोनों को फल एक समान नहीं मिलता। विषयी को जो कुछ बचा खुचा भोग प्राप्त होता है, उसका त्याग मृत्यु उससे बलात् करवा लेती है। जबकी भगवद्प्रेमी मोक्ष पा जाता है।
फिर न मालूम क्यों मनुष्य भगवद्प्रेम की बात से ही डरता है, कि कहीं सब कुछ चला न जाए। भगवद्प्रेम के मार्ग को धधकती आग समझकर, इसकी तपन का विचार करने मात्र से ही सब भाग खड़े होते हैं। परन्तु सत्य यह है कि जो इस प्रेमाग्नि में कूद पड़ते हैं, वे तो परमानन्द पाते हैं।
मेरे भाई बहन! भगवद्प्रेम के अभाव में, इस परिवर्तनशील असत् दृश्य जगत से चिपक कर सुख चाहने वाला तो, बर्फ से ढके पर्वत पर नग्न रहता हुआ गर्मी चाहता है। भगवान से विमुख होकर सुख चाहना ही मनुष्य की सब से बड़ी भूल है।
जैसे विषयी दिन रात विषय का ही चिंतन करता है, विषय की ही बात करता और सुनता है, वैसे ही भगवद्प्रेमी भी भगवान का ही नाम जपे, भगवान का ही गुणगान करे और सुने। दूसरे की निंदा तो करे ही न, दूसरे की चर्चा ही न करे, निष्प्रयोजन बोलना ही छोड़ दे, बस काम भर बोले।
पचास लाख में दिया या एक रुपए में, या मुफ्त ही दे दिया, कैसे भी क्यों न दिया हो, पर एक बार रजिस्ट्री करा दी तो उस जगह की सफाई का जिम्मा किसका है? जिसने लिया है, उसका है। तो जैसे भी दो, अपना हृदय भगवान के नाम लिख दो। फिर वे जानें उनका काम जाने, हम तो निश्चिंत हो गए।
RADHE RADHE JAI SHREE KRISHNA JI
VERY GOOD MORNING JI



संत हरिदास जी के जीवन की एक घटना है। एक बार की बात है कुछ दुष्टों ने हरिदास जी को बीच रास्ते पकड़ लिया और लगे उन्हें मारने। वे हरिदास जी को मारते जाते और बोलते जाते- “अब लेगा हरि नाम? अब ले हरि नाम। खबरदार जो आज के बाद हरि नाम लिया तो। बड़ा हरि भक्त बनता है। ले हरि नाम। अब हरि नाम लेकर दिखा।” संत हरिदास जी ने विचार किया- “ये मुझे मारते हैं तो इनके मुख से हरि नाम निकलता है। मेरे भगवान का नाम निकलता है।” वे बोले- “भैया! और मारो! हरि हरि हरि हरि। और मारो! हरि हरि हरि हरि।” देखें, अपने प्रेम के पात्र के सुख के लिए यदि हमें दुख सहना पड़े तो उस दुख में ही हमें सुख है। उसके सुख के लिए तो दुख सहने में भी आनन्द है। प्रेम में सहनशीलता स्वाभाविक ही आ जाती है। माँ कितनी ही बीमार क्यों न हो, पुत्र के परदेस से आने पर, वह उठ खड़ी हो, प्रसन्नता पूर्वक भोजन बनाती ही है। दिन भर के श्रम के बाद थकान से चूर माँ, अपने गोद के बालक के बिस्तर गीला कर देने पर, उसे सूखी चादर पर सुला कर, स्वयं गीले में लेटती ही है। अब जिसका जिससे प्रेम है, वह उसके सुख के लिए, अपने कौन से भोग का त्याग मुस्कुराते हुए नहीं करता? विचार करें! प्रेम का केन्द्र भिन्न होने पर भी विषयी और भगवद्प्रेमी दोनों ही भोग का त्याग करते हैं। विषयी अपने कुल की परम्परा, मान मर्यादा, पिता की सम्पत्ति, दिन का चैन, रात की नींद, भूख प्यास का ध्यान, सब कुछ छोड़ कर विषय पूर्ति में लगा रहता है। तो भगवद्प्रेमी स्वयमेव भोग त्याग कर, अभावग्रस्त जीवन जीने में ही अपना सौभाग्य मानता है। पर त्याग एक समान होने पर भी दोनों को फल एक समान नहीं मिलता। विषयी को जो कुछ बचा खुचा भोग प्राप्त होता है, उसका त्याग मृत्यु उससे बलात् करवा लेती है। जबकी भगवद्प्रेमी मोक्ष पा जाता है। फिर न मालूम क्यों मनुष्य भगवद्प्रेम की बात से ही डरता है, कि कहीं सब कुछ चला न जाए। भगवद्प्रेम के मार्ग को धधकती आग समझकर, इसकी तपन का विचार करने मात्र से ही सब भाग खड़े होते हैं। परन्तु सत्य यह है कि जो इस प्रेमाग्नि में कूद पड़ते हैं, वे तो परमानन्द पाते हैं। मेरे भाई बहन! भगवद्प्रेम के अभाव में, इस परिवर्तनशील असत् दृश्य जगत से चिपक कर सुख चाहने वाला तो, बर्फ से ढके पर्वत पर नग्न रहता हुआ गर्मी चाहता है। भगवान से विमुख होकर सुख चाहना ही मनुष्य की सब से बड़ी भूल है। जैसे विषयी दिन रात विषय का ही चिंतन करता है, विषय की ही बात करता और सुनता है, वैसे ही भगवद्प्रेमी भी भगवान का ही नाम जपे, भगवान का ही गुणगान करे और सुने। दूसरे की निंदा तो करे ही न, दूसरे की चर्चा ही न करे, निष्प्रयोजन बोलना ही छोड़ दे, बस काम भर बोले। पचास लाख में दिया या एक रुपए में, या मुफ्त ही दे दिया, कैसे भी क्यों न दिया हो, पर एक बार रजिस्ट्री करा दी तो उस जगह की सफाई का जिम्मा किसका है? जिसने लिया है, उसका है। तो जैसे भी दो, अपना हृदय भगवान के नाम लिख दो। फिर वे जानें उनका काम जाने, हम तो निश्चिंत हो गए। RADHE RADHE JAI SHREE KRISHNA JI VERY GOOD MORNING JI

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