*प्रेमी भक्त उद्धव*

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‘हे उद्धव! शंकर, ब्रम्हा, बलराम, लक्ष्मी और स्वंय अपना आत्मा भी मुझे उतना प्रिय नहीं है,जितने प्रियतम तुम हो!’

भगवान् श्रीकृष्णमें परमप्रेमका होना ही भक्ति है! यों तो भक्तिके अवान्तर भेद बहुत-से हैं परन्तु साधारणतः भक्तिके दो भेद हैं — एक साधनभक्ति और दूसरी साध्यभक्ति! साधानभक्तिके द्वारा अन्तः करण शुद्ध होता है, उसके सुद्ध होनेपर आत्मतत्त्वका, भगवत् -तत्त्वका बोध होता है और उसके बाद पराभक्ति अथवा साध्यभक्तिकी प्राप्ति होती है! पराभाक्तिसे रहित जो ज्ञान है, वह परम ज्ञान नहीं है, केवल साधानज्ञान है, परोक्षज्ञान है! पराभक्ति और परमज्ञान एक ही वस्तु हैं, इनमें तनिक भी भेद नहीं है! परमज्ञान अथवा परमभक्तिका प्राप्त होना ही जीवनकी सफलता है! जबतक यह प्राप्त नहीं होती तबतक जीव भटकता रहता है! यह किस प्रकार प्राप्त होते हैं, इस प्रश्नका उत्तर उद्धवका जीवन है! उनके जीवनमें क्रमशः साधनभक्ति, साधनज्ञान, पराभक्ति और परमज्ञानका उदय हुआ है! वे भगवान् के प्रेमी भक्त हैं, उनके तत्त्वके परमज्ञानी हैं, उनके पार्षद हैं और उनके स्वरुप ही हैं!

मथुराके यदुवंशियोंमें वासुदेवके सगे भाई देवभाग बहुत ही प्रसिद्ध थे! वे भगवान् के भक्त थे, देवता और ब्राम्हणोंके उपासक थे, संतोंपर उनकी अपार श्रद्धा थी और उनकी धर्मपत्नी भी उन्हींके अनुकूल आचरण करनेवाली सती साध्वी थीं! जिन दीनों भगवान् श्रीकृष्ण मथुरामें अवतीर्ण हुए,उन्हीं दीनों इन दम्पतिके गर्भसे उद्धवका जन्म हुआ! उद्धव भगवान् के नित्य पार्षद हैं! जब भगवान् मथुरामें आये तब वे कैसे न आते? वे आये जबतक रहे, भगवान् की सेवामें लगे रहे! उनके मनमें दूसरी कोई इच्छा ही नहीं थी, यंत्रकी भाँती भगवान् की इच्छाका पालन करते थे!

बचपनमें ही ये भगवान् के परमभक्त थे! खेलमें भी भगवान् के ही खेल खेलते! किसी पेड़के नीचे भगवान् की मिट्टीकी मूर्ति बना लेते! यमुनामें स्नान कर आते! लताओंसे सुन्दर-सुन्दर फूल तोड़ लाते! फलोंसे भगवान् को भोग लगाते और उनकी पूजामें इतने तल्लीन हो जाते कि शारीरकी सुधि नहीं रहती! कभी उनके नामोंका कीर्तन करते , कभी उनके गुणोंका गायन करते और कभी उनकी लीलाओंके चिंतनमें मस्त हो जाते! सारा दिन बीत जाता, उन्हें भोजनकी याद भी नहीं आती! माता बुलाने जातीं – ‘बेटा! देर हो रही है, चलो कलेवा कर लो! भोजन ठंडा हो रहा है, दिन बीत गया, क्या तुम मेरी बात ही नहीं सुनते! आओ लल्ला! में तुम्हें अपनी गोदमें उठाकर ले चलूँ, अपने हाथोंसे खिलाऊँ !’ परन्तु उद्धव सुनते ही नहीं, भगवान् की पूजामें तन्मय रहते! कभी सुनते भी तो तोतली जबानसे कह देते — ‘ माँ, अभी तो मेरी पूजा ही पूरी नहीं हुई है, मेरे भगवान् ने अभी खाया ही नहीं, में कैसे चलूँ? में कैसे खाऊँ? पांच बरसकी अवस्थामें उद्धवकी यह भक्तिनिष्ठा देखकर माता चकित रह जाती! पूजा पूरी हो जानेपर प्रेमसे गोदमें उठा ले जाती और खिलाती- पिलाती!

उद्धव आठ बरसके हुए! यज्ञोपवीत-संसकार हुआ! विद्याध्ययन करनेके लिये गुरुकुलमें गए! साधारण गुरुकुलमें नहीं, देवताओंके गुरुकुलमें, देवताओंके पुरोहित आचार्य बृहस्पतिके पास! सम्पूर्ण विद्याओंका रहस्य प्राप्त करते इन्हें विलम्ब नहीं हुआ! सम्पूर्ण विद्याओंका रहस्य है — भगवान् से प्रेम! वह इन्हें प्राप्त था ही! अब उसको समझनेमें क्या विलम्ब होता! वास्तवमें जिनकी बुद्धि सुद्ध है;जपसे,तपसे,भजनसे जिन्होंने अपने मस्तिष्क को साफ़ कर लिया है, सभी बाते उनकी समझमें शीघ्र ही आ जाती हैं! यह देखा गया है की सन्ध्या न करनेवालोंकी अपेक्षा सन्ध्या करनेवाले विद्यार्थी अधिक समझदार होते हैं! भगवान् सविता उनकी बुद्धि सुद्ध कर देते हैं! उद्धवमें भगवान् की भक्ति थी, साधना थी, वे बृहस्पतिसे बुद्धिसम्बन्धी सम्पूर्ण ज्ञातव्योंका ज्ञान प्राप्त करके उनकी अनुमतिसे मथुरा लौट आये!

मथुरामें उनका बड़ा ही सम्मान था! सब लोग उनके ज्ञानके, उनकी नीतिके और उनकी मन्त्रणाके कायल थे! यदुवंशियोंमें जब कोई काम करनेमें मतभेद होता, कोई उलझन सामने आ जाती, उनसे कोई समस्या हल न होती तो वे उद्धवके पास जाते और उद्धव बड़ी ही योग्यताके साथ उलझनोंको सुलझा देते, सारी समस्याको हल कर देते! सब उनकी बुद्धिपर, उनके शास्त्रज्ञानपर लट्टू थे, उनका पूरा विश्वास करते थे! और वे भी सबकी सेवा करते हुए, सबका हित करते हुए कंसकी दुर्नीतियोंसे लोगोंको बचाते हुए भगवान् के भजनमें तल्लीन रहते थे!

भगवान् श्रीकृष्ण वृन्दावनसे मथुरामें आये, कंसका उद्धार हुआ और संस्कारसंपन्न होकर वे उज्जयिनीके गुरुकुलमें अध्ययन करने चले गये! जब वे वहाँसे लौटे और मथुरामें रहने लगे तब उद्धव प्रायः उनके साथ ही रहते थे! वे श्रीकृष्णके साथ ही सोते, श्रीकृष्णके साथ ही बैठते, उनके साथ ही टहलते, उनके साथ ही स्नान करते, मनोरंजन और भोजन भी साथ ही करते! उन्होंने अपना ह्रदय खोलकर श्रीकृष्णके सामने रख दिया था, वे श्रीकृष्णके एक अन्तरंग सखा थे! उन्हें भगवान् के दर्शनमें, संनिद्धिमें, आलापमें और आज्ञापालनमें इतना आनंद आता कि वे सारे जगतको भूले रहते! श्रीकृष्णके साथ उनका सम्बन्ध सखाका सम्बन्ध था, वे श्रीकृष्णके एकान्त -प्रेमी थे!

भगवान् किस उद्देश्यसे कौन-सी लीला करते हैं, इस बात को स्वयं भगवान् जानते हैं या उनके कृपापात्र संत जानते हैं! हम लोग तो उस लीलाका केवल बाह्यरूप देखते हैं और अपनी बुद्धिके अनुसार उसका अर्थ कर लेते हैं! भगवान् ने एक दिन ऐसी ही लीला रची! पता नहीं गोपियोंके प्रेमसे आकर्षित होकर रची, अपनी दयालुतासे रची, उद्धवके हितके लिए रची अथवा गोपियोंका प्रेम प्रकाशमें लाकर उससे जगतका कल्याण करनेके लिये रची! सभी बातें ठीक हैं, भगवान् की लीलामें भक्तोंकी अभिलाषा, भगवान् की दयालुता, किसी भक्तका हित और जगतका कल्याण रहता ही हैं! हाँ, तो भगवान् ने एक लीला रची!

श्रीकृष्णने अपने परम प्रेमी सखा उद्धवको एकांतमें ले जाकर उनका हाथ अपने हाथमें लेकर बड़े ही प्रेमसे कहा! उस समय श्रीकृष्णके मुखमण्डलपर करुनाका संचार हो गया था! उनकी आँखें प्रेमसे भरी हुई थीं! उन्होंने उद्धवसे कहा -‘ प्यारे उद्धव! तुम्हें मेरा एक काम करना होगा! यह काम केवल तुम्हारे ही करनेयोग्य है! तुम व्रजमें जाओ! वहाँ मेरे सच्चे माता-पिता रहते हैं! मैं उनकी गोदमें खेलता था, वे दुलारके साथ मुझे अपने हाथों खिलाते थे, आँखोंकी पुतलीकी भाँती मुझे जोगवते ही उनका सारा समय बीतता था! यदि मेरे कलेवा करनेमें तनिक भी देर हो जाती थी तो वे छटपटा उठते थे! मैं हठ करके गौओंको चराने चला जाता था तो दिनभर उनकी आँखें वनकी ही और लगी रहती थीं! मेरे बिना उनका जीवन भार हो गया होगा! मक्खन-मिश्री देखकर उन्हें मेरी याद आती होगी, बाँसुरी देखकर वे बेसुध हो जाते होंगे, मेरी प्यारी गौएँ जब मुझे ढूँढती हुई -सी इधर -उधर भटकती होगीं, तब उनका कलेजा फटने लगता होगा! उन्हें केवल तुम्हीं सांत्वना दे सकते हो! मेरे ह्रदयकी बात जाननेवाले उद्धव! उन्हें प्रसन्न करनेकी क्षमता केवल तुममें ही है!

‘मेरी गोपियाँ हैं, उन्हें मेरे वियोगका कितना दुःख है, वे मेरे लिये बिना पानीकी मछलीकी भाँती किस प्रकार तडफड़ा रही होंगी, इसका अनुमान और वर्णन नहीं किया जा सकता! उद्धव! मैंने कई बार एकांतमें तुमसे उनकी चर्चा की है! उन्होंने अपना सर्वस्व मुझे समर्पित कर दिया है, उनका जीवन मेरी प्रसन्नताके लिये है! उन्होंने अपनी आत्मा, अपना ह्रदय मुझे दे दिया हैं! वे मुझे सोचा करती हैं, मन-ही-मन मेरी सेवाकी भावना करके अपना समय बिताया करती हैं! उन्होंने अपने प्राणोंको मेरे प्राणोंमें मिला दिया है और उन सब कामोंको छोड़दिया है जो मेरी प्रीतिके बाधक हैं! और तो क्या , उन्होंने मेरे लिये दुस्त्यज स्वजन और दुस्त्याज आर्यपथका त्याग कर दिया है! वे मुझे ही अपना प्रियतम समझती हैं, मेरे विरहमें उनकी आत्मा छटपटा रही होगी! वे विरहसे, उत्कंठासे विह्वल हो रही होंगी! उन्हें यमुना देखकर मेरे जल- विहारकी याद आती होगी, लता-कुंज और वन -वीथियोंको देखकर उन्हें मेरी रहस्य -क्रीडाका ध्यान आ जाता होगा! कहाँतक कहूँ! व्रजकी एक-एक वस्तु वहाँका एक-एक अणु, एक -एक परमाणु उन्हें मेरी याद दिलाकर बड़ी व्यथा देता होगा! उद्धव ! तुम निश्चय समझो, वे आँख उठाकर उनकी और देखतीतक नहीं, अबतक उन्होंने प्राणत्याग कर दिया होता यदि पुनः उन्हें मेरे व्रजमें जानेकी आशा नहीं होती! वे मेरी गोपियाँ हैं, उनकी आत्मा मेरी आत्मा है! वे बड़े कष्ट से जीवित रह रही हैं! जाओ, तुम उन्हें मेरा सन्देश सुनाओ और समझा -बुझाकर किसी प्रकार उनकी विरह- व्याधि कुछ कम करनेकी चेष्टा करो!

‘मेरे वे सखा, मेरे संगी, जिनके साथ मैं खेलता था, जिनसे मेरा ऊँच-नीचका तनिक भी व्यवहार नहीं था, जो घुल-मिलकर मुझसे एक हो गये थे, आज भी गौओंको लेकर जंगलमें चराने आते होंगे! और दिनभर टकटकी लगाकर मथुराकी और देखते रहते होंगे! उद्धव! वे मेरे जीवन-सखा हैं! सहचर हैं! मेरी लीलाके सहकारी हैं! उनके साथ मैं जंगलमें खता था! वे अपने घरसे अच्छी-अच्छी चीजें ला-लाकर पहले मुझे खिलाया करते थे! गौएँ दूर चली जाती तो वे मुझे नहीं जाने देते, स्वयं ही जाकर हाँक लाते थे! उनपर तनिक सी भी आपत्ति आती तो वे मुझे पुकारने लगते, सच्चे ह्रदय से पुकारते! ब्रह्मा उन्हें हर ले गये! मैंने वर्षभरतक उनका रूप धारण किया! ब्रह्मा छक गये! इन्द्र ने उनका अनिष्ट करना चाहा, मैंने सात दिनोंतक अपनी ऊँगलीपर गौवर्धन उठा रखा! उनके साथ मैं उछलता था, कूदता था, खेलता था, उनकी स्मृति मुझे रह -रहकर आया करती है! तुम जाओ! उन्हें केवल तुम्हीं समझा सकते हो!

‘मेरी गौएँ हैं! मैं जब उनके पीछे -पीछे चलता था तो वे सर घुमा-घुमाकर मुझे देख लिया करती थीं! जब मैं बाँसुरीमें उनका नाम लेकर पुकारता तब वे चाहे कहीं भी होतीं, मेरे पास दौड़ चली आतीं! जब मैं उनकी ललरियोंको सहलाने लगता, तब वे अपना सिर उठाकर प्रेमसे मुझे देखा करतीं और उनके थनोंसे दूध गिरने लगता था! जब मैं बाँसुरी बजाता, तब मुझे घेरकर खड़ी हो जातीं और उनके मुँहमें जो घास होती, उसे उगलना और निगलना भी भूल जातीं! उस दिन जब मैं कालिय- कुण्डमें कूद गया था, तब वे सब मेरे पीछे उसमें घुसने जा रही थीं! वे बड़े बलसे रोकी जा सकीं और जबतक मैं निकला नहीं, तबतक किनारे खड़ी होकर रोती तथा रँभाती रहीं! वे अब मुझे न देखकर कितनी पीड़ित, कितनी व्यथित होंगी? उद्धव! वे तुम्हें देखकर कुछ सान्त्वना प्राप्त करेंगी! मेरी ही -जैसी आकृति और मेरे ही -जैसे वस्त्रोंको देखकर वे तुमसे प्रेम करेंगी और जब तुम उन्हें सहलाओगे तब वे प्रसन्नता -लाभ करेंगी!’

‘उद्धव! व्रजका एक-एक स्थान, वहाँका एक-एक वृक्ष, एक -एक लता मुझे स्मरण आ रही है, मैं उन्हें भूल नहीं रहा हूँ! वहाँके सारस, हंस, मयूर, कोकिल सभी मुझे याद आ रहे हैं! वहाँकी वे हरिण और हरिणीयाँ, जो मेरे पास आकर मेरा शरीर खुजलाती थीं, मेरे ह्रदयमें वैसी ही चेष्टा करती हुई दीख रही हैं! वहाँके भौरोंकी गुंजार अब भी मेरे कानोंको भर रही है! वहाँके पक्षियोंका कलरव अब भी मेरे मनको मोहित कर रहा है! उद्धव! तुम जाओ, अब तनिक भी विलम्ब मत करो!’

सम्भव है, गोपियोंके प्रेमका वर्णन सुनकर उद्धवके मनमें यह अभिलाषा रही हो की मैं व्रजमें जाकर उनका प्रेम देखूँ! अथवा शायद वे ज्ञानमें ही डूबते रहे हों, भगवान् ने प्रेमरसके आस्वादनके लिये उन्हें व्रजमें भेजा हो; कुछ भी हो, भगवान् ने उन्हें व्रजमें भेजा और उन्होंने अविलम्ब आज्ञाका पालन किया! उद्धव भगवान् का सन्देश लेकर रथपर सवार हुए और संध्या होते-होते वे व्रजकी सीमामें पहुँच गए! वहाँकी हरी-हरी वनपंक्तियाँ सुर्यकी लाल-लाल किरणोंसे अनुरंजित हो रही थीं, मानों व्रजभुमिने उद्धवके स्वागतके लिये सहस्त्र -सहस्त्र लाल पताकाएँ फहरा दी हों! उद्धवका रथ वृन्दावनकी और बढ़ रहा था!

व्रजभूमि प्रेमकी भूमि है! लीलाकी भूमि है! वहाँके एक-एक रजकण पूर्ण रसमय हैं, वहाँके एक-एक अणुसे अनन्त-अनन्त आनन्दकी धारा प्रवाहित होती है! वहाँकी लताएँ साधारण नहीं है! मृदुलताकी लताएँ हैं! वहाँके वृक्षोंकी पंक्ति रसिकोंकी जमात है! वहाँकी नदियाँ प्रेमके अमृतसे भरी रहती हैं! वहाँके वायु-मंडलमें श्रीकृष्णके विग्रहकी दिव्य सुरभि प्रवाहित हुआ करती है! वहाँकी गौएँ साक्षात उपनिषदें हैं! वहाँका गौरस ब्रह्मरस है! वहाँके ग्वाल, गोपियाँ सब श्रीकृष्णके अंग हैं! श्रीकृष्ण ही व्रजके रूपमें प्रकट हैं! श्रीकृष्ण व्रजमय हैं,श्रीकृष्णमय व्रज है! वहाँ प्रेम,आनन्द, शांतिके अतिरिक्त और कुछ नहीं है!

सन्ध्याका समय था, गौएँ वृन्दावनकी और लौट रही थीं! उनके पीछे-पीछे ग्वालबाल श्रीकृष्णकी लीलाओंका गायन करते हुए जा रहे थे! किसीकी दृष्टि दुरसे उड़ती हुई धुलपर पड़ी, मानो व्रजकी रजरासी पहले स्नान कराकेकिसीको व्रजमें आनेका अधिकार बना रही हो! जब रथ दिखने लगा तब किसीने कहा –‘ देखो वह रथ आ रहा है!’ किसीने कहा –‘श्रीकृष्ण ही होंगे!’ किसीने कहा — ‘हाँ,हाँ, देखो पीताम्बर, माला और कुण्डल दिखने लगे हैं! शरीर भी श्यामवर्णका ही है! वही रथ, वही घोड़े परन्तु श्रीकृष्ण अकेले क्यों हैं? क्या दाऊ भैया वहीं रह गये? कन्हैयासे आये बिना नहीं रहा गया होगा, इसीसे वे अकेले चले आये होंगे!’ सब-के-सब ग्वालबाल उद्धवके रथकी और दौड़ पड़े! उस समय उनके मनमें कितना उल्लास रहा होगा!

ग्वालबालोंने पास जाकर पहचाना! ‘ ये तो श्रीकृष्ण नहीं हैं! हमारे ऐसे भाग्य कहाँ की वे आवें! परन्तु उसी रथपर वैसे ही वस्त्राभूषणोंसे सुसज्जित यह कौन है?’ वे इस प्रकार सोच ही रहे थे की उद्धव रथ खड़ा करके नीचे उतर पड़े, मन-ही-मन उन्हें प्रणाम करके ह्रदयसे लगा लिया! उन्होंने कहा — ‘मैं श्री कृष्ण का सेवक उनके रहस्यसंदेशोंको लेकर यहाँ आया हुआ हूँ! उन्होंने बड़े प्रेमसे तुमलोगोंका स्मरण करके मुझे यहाँ भेजा है! घबरानेकी कोई बात नहीं है, एक-न-एक दिन श्रीकृष्ण तुम्हें मिलेंगे ही! भला तुमलोगोंको छोड़कर वे कैसे रह सकते हैं?’

श्रीदामाने कहा — ‘क्या श्रीकृष्ण इतने निर्मोही हो गये? परन्तु ऐसी सम्भावना नहीं है! उनका ह्रदय बड़ा कोमल है! वे जब गौओंको चराकर लौटते थे, रातमें हमलोग अपने घर चले जाते थे और वे अपनी माँके पास जाकर सोते थे तब रातमें भी वे हमारे लिये छटपटाया करते थे! स्वप्नमें भी हमारा नाम लेकर पुकारा करते थे! प्रातः काल होते ही हमलोगोंके पास आनेके लिये उतावले हो उठते थे! यदि माँ यशोदा सावधान न रहतीं तो वे बिना कुछ खाये-पिये हमलोगोंके पास दौड़ आते थे! दिनभर हमारे साथ खेलते थे, खाते थे,हमें तनिक भी कष्ट नहीं होने देते थे! वे ही हमारे श्रीकृष्ण, वही हमारा कन्हैया मथुरामें जाकर इतना निष्ठुर हो गया! यह कैसे सोचें,कैसे समझें, कैसे विश्वास करें?’

‘उद्धव! तुम कहते हो की एक-न -एक दिन वे हमें अवश्य मिलेंगे! परन्तु तुम जानते नहीं की उनके बिना एक क्षण युगके समान, एक घड़ी मन्वन्तरके समान,एक पहर कल्पके समान और एक दिन द्वीपरार्धके समान व्यतीत होता है! हम एक क्षण भी उन्हें नहीं भूल सकते! जब वे हमारे साथ खेलते थे, तब दिन-का-दिन पलक मारते बीत जाता था! आज उनके बिना हमारा जीवन भार हो गया है! सारा संसार शून्य -सरीखा मालुम होता है! वे ही वन हैं, वे ही वृक्ष-लताएँ है, जिनके निचे कोमल कोंपलोंकी शय्यापर श्रीकृष्ण लेट जाते थे, हम बड़े-बड़े पत्तोंसे हवा करके उनके श्रमबिंदु सुखाते थे! उनके चरण-कमलोंको अपनी गोदमें लेकर अपने ह्रदयसे सटाते थे! उनके हाथ अपने हाथमें लेकर दिव्य सुखका अनुभव करते थे! वही यमुना है जिसमें हमलोग घण्टों जलक्रीडा करते थे! वही व्रजभूमि है जिसमें हमलोग लोटते थे! परन्तु वही सब रहनेसे क्या हुआ, श्रीकृष्णके बिना सब काटने दौड़ता हैं, उनकी और आँखें उठाकर देखातक नहीं जाता! उद्धव! हुम सत्य कहते हैं, हमारी पीड़ा तब और भी बढ़ जाती है जब ये गौएँ रँभाती हुई अपना सिर उठाकर मथुराकी और देखती हैं! ये बछड़े जब किसीको दुरसे आते देखते हैं तो अपनी माँका दूद पीना छोड़कर मानो श्रीकृष्ण ही आ रहे हों, इस भावसे उधर देखने लगते हैं! यदि हमें उनके आनेकी आशा न होती तो अबतक हमारे प्राण न रहते!’

इन ग्वालबालोंका प्रेम देखकर उद्धव तो मुग्ध हो रहे थे! वे पुनः रथपर सवार नहीं हुए! ग्वालबालोंके साथ ही बातचीत करते हुए व्रजकी दशा* देखते हुए नंदबाबाके दरवाजेके पास आ पहुँचे! ग्वालबाल दुसरे दिन मिलनेकी बात कहकर अपनी गौओंको ले-लेकर अपने-अपने घर चले गये! उद्धवने जाकर नंदबाबाको प्रणाम किया! नंदबाबाने उठकर उन्हें हृदयसे लगा लिया और बड़ी प्रसन्नतासे, बड़े प्रेमसे उन्हें साक्षात श्री कृष्ण समझकर उनका सत्कार किया! जब वे नित्य-कृत्य और भोजन-भजनसे निवृत्त हुए तथा प्रसन्न होकर आसनपर बैठे तब नंदबाबाने बड़े प्रेमसे उनके पास बैठकर मथुराका कुशल-समाचार पूछा! नंदबाबाने कहा – ‘उद्धव! मेरे प्रिय बंधू वासुदेव कुशलसे हैं न? उनके पुत्र, मित्र, भाई, बंधू सब प्रसन्न हैं न? बहुत दुःखके बाद उन्हें सुखके दिन देखनेको मिले हैं, यह भगवान् की बड़ी कृपा है! पापी कंस पापके परिणामस्वरूप अपने साथियोंके साथ मारा गया! वह धार्मिक यदुवाशियोंसे बड़ा ही द्वेष रखता था! अब तो सब लोग स्वतंत्रासे धर्माचरण कर पाते हैं न?’

नन्दने आगे कहा — ‘उद्धव! क्या श्रीकृष्ण कभी अपनी माँका स्मरण करते हैं? क्या वे अपने साथ खेलनेवाले ग्वालबालोंको भूल गये? क्या वे अपनी प्यारी गौओंको कभी स्मरण नही करते? उनके ही आने की आशासे जीवित रहनेवाले व्रजवासियोंको क्या वे भूल सकेंगे? वृन्दावन, यमुना, गोवर्धन आज भी उनकी प्रतीक्षा कर रहे हैं! गोवर्धन सिर उठाकर उनका मार्ग देख रहा है! वृन्दावन और यमुना उनके विरहमें सूखते जा रहे हैं! उद्धव! क्या सचमुच वे आयेंगे? क्या उनका सुन्दर मुखड़ा, उनकी तोतेकी ठोर-सी नाक, उनकी मुस्कान और उनकी चितवनका आनंद मेरी इन आँखोंको प्राप्त हो सकेगा? कुंजनमें भौंरपुंज गुंजरत स्याम स्याम, बोलत बिहंग त्यों कुरंग स्याम नाम है! धेनु तृन मुख धरि स्यामई पुकारती हैं, जमुना-तरंग सोर स्याम सब जाम है!!

बैठतमें बागतमें सोवतमें जागतमें,
स्याम-रट लागत न रागत बिराम है!
कृष्णचन्द्र बिरह मवासी व्रजबासी सबै,
‘रघुराज’ हेरी रहे स्याम स्याम स्याम है!!

श्रीकृष्ण केवल मेरे बालक ही नहीं हैं, वे हमारे और सम्पूर्ण व्रजके जीवनदाता हैं! उन्होंने दावाग्निसे, बवण्डरसे, वर्षासे, वृषासुरसे और अघासुरसे हमारी रक्षा की है, हमें मृत्युके मुँहसे बचाया है! हम इनके इस दृष्टिसे भी आभारी हैं! परन्तु क्या उन्होंने इसी दिनके लिये हमें बचाया था? क्या यही दुःख देनेके लिये उन्होंने हमें सुखी किया था? उद्धव! क्या कहूँ? मैं उनकी शक्ति का स्मरण करता हूँ, उनके खेल का स्मरण करता हूँ, उनका मुखड़ा, उनकी टेढ़ी-टेढ़ी भौहें, उनके वे काली घुँघराली अलकें मेरे सामनेसे नाच जाती हैं, वे मेरे सामने हँसते हुए -से दीखते हैं! मेरी गोदमें बैठकर मुझे ‘पिताजी’ ‘पिताजी’ पुकारते हुए जान पड़ते हैं! वे मेरे पीछेसे आकर मेरी आँखें बंद कर लेते थे, मेरी गोदमें बैठकर मेरी दाढ़ी खींचने लगते थे, ये सब बातें मुझे, आज भी याद आती हैं, आज भी मैं उसी रसमें डूबा जाता हूँ! परन्तु हा देव, कहाँ है वे? मैं लाल-लाल ओठोंवाले कमलनयन श्यामसुन्दरको बलराम और बालकोंके साथ यहीं इसी चबूतरेपर खेलते हुए कब देखूँगा? मेरे जीवन को धिक्कार हैं! मैं उनके बिना भी जीवित हूँ! सच कहता हु उद्धव! यदि उनके आने की आशा न होती, वे मेरे मरनेका समाचार सुनकर दुखी होंगे, यह बात मेरे मन में न होती तो अबतक मैं मर गया होता! सुनता हूँ, गर्गने बतलाया था; और कंस आदिको मारते समय मैंने भी अपनी आँखोंसे उनका बल-पौरुष देखा था कि वे भगवान् हैं! यह सत्य होगा और सत्य हैं! तथापि वे मेरे पुत्र हैं न! चाहे जो हो जाय मुझे तो उन दिनोंकि याद बनी ही रहेगी, जिन दिनों वे नन्हें-से बच्चे थे, मैं उन्हें अपनी गोदमें लेकर खेलता था, वे धूलभरे शारीरसे आकर मेरे कपड़े मैले कर देते थे! मेरे तो वे पुत्र हैं! मैं और कुछ नहीं जनता!

इतना कहते -कहते नन्द वात्सल्यस्नेहके समुद्रमें डूब गये! नेत्रोंसे आँसुओंकि धारा बह चली! उनकी बुद्धि श्रीकृष्णकी लीलामें प्रवेश कर गयी और वे कुछ बोल न सके, चुप हो गये! यशोदा वहीँ बैठकर नंदबाबाकी सभी बातें सुन रही थीं! उनकी आँखोंसे आँसू और स्तनोंसे दूध बहा जा रहा था! नंदबाबाको प्रेम्मुग्ध देखकर वे उनके पास चली आयीं और संकोच छोड़कर उद्धवसे पूछने लगीं — ‘उद्धव! तुम तो मेरे लल्लाके पास रहते हो, उसके सखा हो, वह सुखसे तो है न? सोकर उठा नहीं की दहीके लिये, मक्खनके लिये मेरे पास दौड़ आया! वहाँ उतने सबेरे उसे कौन खानेको देता होगा? क्या मेरा मोहन दोपहरको ही खाता है? वह दुबला तो नहीं हो गया है? क्या वहाँके पचड़ोंमें पड़कर मुझे भूल तो नहीं गया ?

द्धवजी! यह मेरा अपना भागवतधर्म है; इसको एक बार आरम्भ कर देनेके बाद फिर किसी प्रकारकी विघ्न -बाधासे इसमें रत्तीभर भी अंतर नहीं पड़ता; क्योंकि यह धर्म निष्काम है और स्वंय मैंने ही इसे निर्गुण होनेके कारण सर्वोत्तम निशचय किया है।।९।।

यो यो मयि परे धर्मः कल्प्यते निष्फलाय चेत् ।
तदायासो निरर्थः स्याद् भायादेरिव सत्तम ।।१०।।

एषा बुद्धिमतां बुद्धिर्मनिषा च मनीषिणाम् ।
यत् सत्यमनृतेनेह मर्त्येनाप्नोति मामृतम् ।।११।।

भागवतधर्ममें किसी प्रकार की त्रुटी पड़नी तो दूर रही – यदि इस धर्मका साधन भय-शोक आदिके अवसरपर होनेवाली भावना और रोने-पीटने, भागने-जैसा निरर्थक कर्म भी निष्कामभावसे मुझे समर्पित कर दे तो वे भी मेरी प्रसन्नताके कारण धर्म बन जाते हैं ।।
१०।।

१ – भगवान् एक ही हैं। वे ही निर्गुण -निराकार, सगुण-निराकार और सगुण -साकार हैं। लीलाभेदसे उन एकके ही अनेक नाम, रूप तथा उपासनाके भेद हैं। जगतके सारे मनुष्य उन एक ही भगवान् की विभिन्न प्रकारसे उपासना करते हैं, ऐसा समझे।
२ – मनुष्य -जीवनका एकमात्र साध्य या लक्ष्य मोक्ष, भगवत्प्राप्ति या भगवत्प्रेमकी प्राप्ति ही है, यह दृढ़ निश्चय करके प्रत्येक विचार तथा कार्य इसी लक्ष्यको ध्यानमें रखकर इसीकी सिद्धिके लिए करे।
३ – शरीर तथा नाम आत्मा नहीं है। अतः शरीर तथा नाममें ‘अहं’ भाव न रखकर यह निश्चय रखे की मैं विनाशी शरीर नहीं, नित्य आत्मा हूँ। उत्पत्ति, विनाश, परिवर्तन शरीर तथा नामके होते हैं — आत्माके कभी नहीं।
४ – भगवान् का साकार-सगुण स्वरुप सत्य नित्य सच्चिदानन्दमय है। उसके रूप, गुण, लीला सभी भगवत्स्वरूप हैं। वह मायाकी वस्तु नही है। न वह उत्पत्ति -विनाशशील कोई प्राकृतिक वस्तु है।
५ – किसी भी धर्म, सम्प्रदाय, मतसे द्वेष न करे; किसीकी निंदा न करे। आवश्यकतानुसार सबका आदर करे। अच्छी बात सभीसे ग्रहण करे; पर अपने धर्म तथा इष्टदेवपर अटल, अनन्य श्रद्धा रखकर उसीका सेवन करे।

विवेकियोंके विवेक और चतुरोंकी चतुराईकी पराकाष्ठा इसीमें है की वे इस विनाशी और असत्य शरीरके द्वारा मुझ अविनाशी एवं सत्य तत्त्वको प्राप्त कर लें।।११।।

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