सूरध्वज ब्राह्मण वंशी राजा मित्रसेन बादशाह के प्रधान दीवान थे। वे महान् धर्मात्मा तथा उदार थे। अतुल सम्पत्ति होने पर भी दम्पती सन्तान बिना अत्यन्त दुःखी थे। दान, पुण्य, देवतादि का यजन और यंत्र-मंत्र आदि अनेक यत्न करने पर भी मन की आशा-पल्लवित न होते देख उनके अतीव उदासी छा गई। एक दिन राजा की खिन्नता देख उनके प्रिय मित्र और प्रवीण दीवान श्रीचतुर्भुजदास जी गौड़ ने राजा को सांत्वना देते हुए कहा कि आपकी भाँति मैं भी पुत्र हेतु अनेक साधन कराने के उपरान्त अति दुःखी और उदास हो गया। एक दिन अचानक श्री वृन्दावन चला गया। वहाँ संत शिरोमणि श्री स्वामी हरिदास जी महाराज का दर्शनकर हृदय को अतीव हर्ष हुआ और मन में विचार आया की यदि ये संत सुखस्वरूप हैं तो कृपा कर मुझे पुत्र प्रदान करें।
उन्होंने देखते ही मुझे निकट बुलाकर कहा – तू पुत्र बिना उदास है। तेरे भक्ति, ज्ञान, वैराग्य सम्पन्न दो पुत्र होंगे। वे अठारह वर्ष तेरे पास रहेंगे, फिर मेरे पास आकर कुंजविहारी लाल के विमल विलास को विलसेंगे।
तब मैंने उनसे कहा – करुणानिधान! एक पुत्र मेरे हो और एक मेरे मित्र के घर हो। वह पुत्र के बिना महादुःखी है।
तब उन्होंने मित्र भावना की सराहना की और सच्चे मित्र भाव का उपदेश देकर कहा – प्रथम तेरे यहाँ पुत्र होगा। पाँच वर्ष बाद तू अपने मित्र को यह वृत्तान्त सुनाना। वे अपनी पत्नी सहित यहाँ आवें और पुत्र को गोद खिलावें।
अब वह शुभ अवसर आ गया है। आप रसिक अनन्य नृपति श्री स्वामी हरिदास जी महाराज के दर्शन और वर पाकर अद्भुत लाभ लीजिये।
श्रीचतुर्भुजदास दास जी की बात सुन मित्रसेन के तन-मन-ग्राण आनंद से भर गये, मानो जाते हुए प्राण फिर से शरीर में लौट आये। वे अत्यन्त श्रद्धापूर्वक हर्षोत्कण्ठा से पत्नी सहित श्री स्वामी हरिदास जी महाराज के दर्शन के लिए निघुवन आये। प्रीति सहित प्रणाम और शत मुहरें भेंटकर श्री स्वामी जी महाराज के श्रीमुखचन्द्र के दर्शन कर परमानन्दित हुए। हाथ जोड़कर विनती करते हुए मित्रसेन बोले – चतुर्भुजदास की दया से आप श्री के दर्शन कर जन्म-जिवन सफल हुआ। आपने जो यहाँ आने की आज्ञा दी थी, सो मैं आपकी शरण में आ गया हूँ।
श्रीस्वामी जी महाराज ते कहा – अच्छा किया जो तुम आये। अब तुम दम्पती कुछ एक दिन मथुरा में वास करो, पुत्र प्राप्ति अवश्य होगी। ये मुहरें उठा लो और मन लगाकर विप्र तथा साधु-संतो की सेवा करो। जब पुत्र एक वर्ष का हो जाय, तब उसे लेकर यहाँ आना।
एक वर्ष बाद भक्ति, ज्ञान, वैराग्य और यूगल श्री नित्य-विहारी के प्रेम की मूर्ति रूप पुत्ररत्न प्रकट हुआ। मित्रसेन और चतुर्भुजदास जी सुनकर हर्षोत्फुल्ल हो उठे। आनन्दावेश में बहुत सा धन दान किया और संत सेवा की। एक वर्ष बीतने पर निधुवन आये और श्रीस्वामी जी महाराज को प्रणाम कर शिशु को श्रीचरणों से लगाया।
श्रीस्वामी जी महाराज रूप-लावण्य युत शिशु को अपना सरस अंश जान हँसकर बोले – यह बालक अति बड़भागी है। यह तैंतीस वर्ष तुम्हारे पास रहेगा, फिर विरक्त और महाअनुरागी, त्यागी होकर हमारे निकट रहेगा। कोटि पुत्रों के समान इसे जानना। फिर श्रीस्वामी जी महाराज ने बालक को कण्ठी, तिलक, प्रसादी वस्त्रादिक दे शिर पर हाथ फेरते हुए आशीर्वाद दिया और बिहारिणिदास नाम रखा।
माता-पिता ने श्रीस्वामी जी महाराज के चरण प्रक्षालनकर बालक के सिर पर छिड़का और चरणामृत पिलाया। बालक ने किलकते हुए घुटुरुवन चलकर श्री स्वामी जी महाराज का करुवा पकड़ लिया। मित्रसेन ने निवारण कीया तो श्रीस्वामी जी महाराज मृदु मुस्काते हुए बोले – बिहारिणिदास अभी नहीं, फिर आकर इसे ग्रहण करना।
सात दिवस वृन्दावन वासवर मित्रसेन श्रीस्वामी जी महाराज से आज्ञा माँग मित्र सहित दिल्ली लौट आए। तेज-प्रभाव पुंज अनूप पुत्ररत्न को लाड़ लड़ाकर दम्पती आनन्दसिन्धु में नित्य मग्न रहने लगे।
आध्यात्मिक जीवन:
बिहारिणिदास जब बड़े हुए तब बराबर के सखाओं के संग खेल में श्री युगल-लीला का या रसिक महीपति श्रीस्वामी जी महाराज के चरित्र का अनुकरण करते थे। वे खेल-खेल में बालकों को श्रीस्वामी जी महाराज के स्वरूप का उपदेश देते थे। वे ध्यान सहित श्री हरिदास नाम जपते और सबसे ही ध्यान-जप करवाते थे। सचिव श्रीचतुर्भुजदास जी के पुत्र बिहारिणिदास से छह वर्ष बड़े थे। इनका जन्म भी श्रीस्वामी जी महाराज की कृपा से ही हुआ था और उन्होंने ही इनका नाम कृष्णदास रखा था। वे नित्यविहार के प्रेम-रंग में रात-दिन छके रहते थे। वे बिहारिणीदास से अति स्नेह करते थे, मानो एक प्राण-दो देह हों। दोनों परस्पर श्री युगल की और श्रीस्वामी जी महाराज की रसमयी मधुर चर्चा में अहर्निश छके रहते थे।
सकल सुख सम्पत्तिमय अनुकूल वैभव-विलास प्राप्त होते हुए भी श्री बिहारिणिदास जी को सब लवण समान खारी-असार, दुःखद लगते थे। उनके हृदय-कमल पर तो श्री हरिदास चरण बसे हुए थे। निरन्तर श्री हरिदास नाम की रटना और नित्य केलि रंग में पगना ही तन-मन-प्राणों का स्वभाव बना हुआ था। ऐसेही श्रीहरिदास चरण के और नित्यविहार के अनन्य अनुरागी श्रीकृष्णदास जी मिल गये।
एक दिन श्री कृष्णदास जी को उत्कट वैराग्य उत्पन्न हो आया। वे श्री बिहारिणिदास जी से बोले – यह शरीर इक्कीस वर्ष होने को आया है। अब तक तो श्रीगुरु-कृपा से अमल, अविकारी बने रहे, यदि अब कहीं कुसंग लग गया तो विषय रस में फँसकर सर्वस्व खो बैठेंगे। इसलिए मैं अभी श्री वृन्दावन श्री गुरु-श्रीस्वामी जी महाराज की शरण में जाऊँगा। वे कृपा वृष्टि कर मुझे परम विरक्त, भक्ति, विवेक सम्पन्न और नित्य नवेली केलि के अनुरागी बनावेंगे, फिर ऐसा दुर्लभ शुभ अवसर कब सुलभ होगा?
गद्गद कण्ठ से श्रीबिहारिणिदास जी बोले – आप परम निष्काम, वैराग्य-शिरोमणि और धन्य-धन्य हैं। आप तत्काल श्री वृन्दावन जाइये। मैं भी जल्दी ही आऊँगा और श्रीगुरु-चरणारविन्दों में प्रणाम करूँगा। ऐसा कह सभा सहित प्रणाम किया। श्री कृष्णदास जी तत्क्षण चलकर श्री वृन्दावन आये और नित्यविहार सार आधार श्रीस्वामीजी महाराज के चरणकमलों में शरण पाकर परमानन्दित हुए।
श्री कृष्णदास जी की निर्मल प्रीति देख श्रीस्वामी जी महाराज ने उनका हाथ श्री वीठलविपुलदेव जी के हाथ में पकड़ाते हुए कहा – यह मेरा निज अंश है। इसको तुम अपनी शरण में ले लो।
श्री वीठलविपुलदेव जी ने आज्ञा मान श्री कृष्णदास जी को निज अनुगामी परम उज्ज्वल धर्मी बना, श्री हरिदास तत्त्व सुखसार उपदेशकर नित्यविहार सार रस में सराबोर कर दिया।
इधर श्री बिहारिणिदास जी रूप-लावण्य, शील-स्वभाव आदि गुणों से सबके प्रिय नयनांजनवत् होकर भी निरंजनवत् परम विरक्त और उपशम स्वभाव से युक्त थे। पन्द्रह वर्ष की आयु, रूप-लावण्य, तेज और यौवन की वृद्धि तथा महान् सुख वैभव, फिर भी काम, क्रोध, लोभ, मद एवं मोह रहित, प्रेम-भक्ति-भाव सहित श्री हरिदास नाम व युगल मंत्र जापमय जीवन। असत् चर्चा सुहाती ही नहीं थी। अति उदार, उपकार परायण, सत्य, शूर, धीर तथा नम्र स्वभाव से इनकी शोभा शत गुण वर्द्धित होती थी।
जब इनके पिता राजा मित्रसेन ने शरीर त्यागा, तब शाह ने इनको मुख्य दीवान का पद सौंप दिया। इनके दीवान श्रीचतुर्भुजदास जी से इनकी गुणावली सुन शाह बहुत सुख मानते और आदर करते।
श्री बिहारिणिदास अपने मन को वृंदावन जाकर बस जाने की सीख देने लगे। उन्होंने लिखा है:
“बसी वृंदावन उत्तम ठाऊँ, सत्संगति परमारथ पाऊं।
नित दंपति संपत्ति दिखाऊं, श्री बिहारिनिदासी भई गुन गाऊं॥”
वृन्दावन आगमन:
एक बार शाह की ओर से ये युद्ध में गये। वहाँ इनके साथियों ने प्रतिपक्षी से संधि के बहाने विश्वासघात कर उसे जहर दे दिया। इनको भारी कष्ट हुआ। अपना दाहिना हाथ, जिससे शत्रु सचिव को अभय दान दिया था, काटकर और सम्पूर्ण वैभव को लुटाकर श्रीवृन्दावन को चलने लगे, तब शत्रु सचिव कमलापति-पुत्र नानकराम और शुक्लाबरधर इनके सन्मुख आये और अत्यन्त कातर हो आत्मरक्षा और कल्याण की प्रार्थना करने लगे। तब आप बोले – मेरे वचन में विश्वास करो। तुम्हारे मृतक पिता का शरीर और मेरे हाथ को एक साथ रखना। पन्द्रह दिन में मेरा हाथ प्रकट हो जायेगा और तुम्हारे पिता जीवित हो जायेंगे। यह सब होनहार का – काल का कृत्य था, ऐसा समझ हृदय से दुःख और भ्रम का त्याग करो, ऐसा कह श्रीवृन्दावन को चल दिये। वृन्दावन पहुँच श्रीस्वामी जी महाराज को प्रणाम करते ही कटा हाथ पुनः निकल आया। श्रीस्वामी जी महाराज ने सिर पर करकमल धर आशीर्वाद दिया, मानो माथे पर चन्द्रिका धारणकर, नित्यसिद्ध सखीस्वरूप प्रदान करके सखियों मध्य लता-रन्ध्रों से नित्यविहार सुख के अवलोकन का अधिकारी बना दिया। उस समय आपके श्री मुख से यह कुण्डलिया स्फुरित हुई –
श्री स्वामी हरिदास कर अम्बुज परसत माथ।
मानौं रचि खचि चन्द्रिका राखी सखियनि साथ॥
राखी सखियनि साथ नाम घृत दासि बिहारिनि।
निरखति नित्य बिहार लता गृह रन्ध्र निहारिनि॥
अति नागर वर जानि निकट स्यामा अभिरामी।
दुतीय रूप इक धर्म धुरा बाहत श्री स्वामी॥
श्रीस्वामी जी महाराज का अनुपम कृपाप्रसाद प्राप्त कर श्रीस्वामी बिहारिणीदेव जी रसिक-अनन्य धर्म और नित्यबिहार रस-रीति की उपासना में बहुत ही आगे बढ़ गये। उनकी रहनी-कहनी अत्यन्त उच्च कोटि की और सुदृढ़ थी। उनकी रहनी में रसिक-अनन्य धर्म का उच्च आदर्श, परम हंसता का उच्च प्रकाश था तथा उनकी कहनी में श्रीस्वामी जी महाराज की सूत्ररूपा वाणी का ही विशद विकास है, उसी की विस्तृत व्याख्या है; जो अति गम्भीर, सरस और सहृदय रसिकजनों के मन को मोहनेवाली और आह्लादकारिणी है।
वृन्दावन की रज की कृपा से उनका मन श्री राधारानी के चरणों में ऐसा रमा की उन्होंने सारे संसार को पीठ दिखा दी। उनका हृदय श्री स्वामिनी जी की सेवा में एवं अंग अंग की शोभा निरखने में मानो रम सा गया। उन्होंने स्वयं पद में लिखा है:
“ मेरे विषै विसन वर वाम, तन गोरी मन भोरी नवल किशोरी राधा नाम॥
निस बासर जागत सोवत चितवत अंग अंग अभिराम।
अंजन मंजन करात परम रूचि चोप चौगुनी काम॥
ताकि हिलगी तजै मैं अपने कर्म धर्म धन धाम।
दई पीठि सब जगतें लगतें पायो बन विश्राम॥“
अर्थात जैसे ही उन्होंने जगत को पीठ दिखा कर वृन्दावन वास कर तन से गोरी और मन से अत्यंत भोरी नवल किशोरीजी श्री राधारानी की शरण ली है एवं राधा नाम धारण किया है, वैसे ही उनके मन ने परम विश्राम पाया है।
अब वे मान अभिमान सब त्याग कर केवल ब्रजवासियों के टूक खाकर जीवन निर्वाहित करने लगे।
“रुचे मोहि ब्रजवासिन के टूक”
उन्होंने कई पदों में ब्रजधाम और ब्रजवासियों में अपने अनन्य निष्ठा व्यक्त की है। एक पद में तो उन्होंने अपने आपको ब्रजवासियों का पालतू पिल्ला तक कहने में संकोच नहीं किया है –
“हौं ब्रजवासिन कौ पाल्यो पीला “
अब वे सदा नित्य बिहार के चिंतन में डूबे रहते, श्यामा श्याम की लीला माधुरी के आस्वादन और उनके गुणगान में मस्त रहते, आहार विहार भोजन स्नानादि सब भूले रहते। उनके जीवन से संबंधित एक बहुत प्रसिद्ध घटना है। एक बार, यमुना में स्नान करने गए, उसके मुंह में दांतुन था। वो तीन दिनों तक सड़क पर खड़े रहे, एक ही पद का गान करते और आनंद में समाहित रहे:
“विहरत लाल विहारिणी दोऊ श्री जमुना के तीरें तीरें”
युगल सरकार (राधा और कृष्णा) लीला प्रदर्शन कर रहे हैं और यमुना के किनारे विहरण कर रहे हैं।
उन्होंने स्वयं लिखा है कि कोई भांग के नशे में चूर रहता है कोई अफीम के नशे में, बिहारिन दास जी श्यामा श्याम की रस माधुरी के नशे में मस्त रहते।
“कोऊ मदमाते भांग के, कोउ अमल अफीम,
श्री बिहारीदास रसमाधुरी, मत्त मुदित तोफीम”
कुछ दिन बाद स्वामी श्री हरिदास जी नित्य निकुंज में प्रवेश कर गए, उनके 7 दिन बाद श्री विट्ठल विपुल देव जी भी नित्य निकुंज में प्रवेश कर गए। उसके पश्चात तब विहारिन देव जी संप्रदाय के आचार्य हुए। उसके पश्चात उनके ऊपर ज़िम्मेदारी थी भक्ति और वैराग्य पूर्ण जीवन के चरण आदर्श की स्थापना के दायित्व को अंगीकार कर साधकों को पथ प्रदर्शन करना। श्री विहारिन देव जी ने इस दायित्व को पूरी तरह निभाया। श्री बिहारिन देव जी दीर्घ काल तक संप्रदाय के आचार्य रहे।
ग्रन्थ रचना:
उनकी वाणी के दो भाग हैं – एक सिद्धान्त पक्ष, दूसरा रस पक्ष। रस पक्ष की वाणी तो उनके अनुभव का उच्छलन है। श्री ललिता जी के अंग-संग सखी रूप में रहकर उन्होंने जैसे अनुभव किया, वह उनके आपूर्ण हृदय से उमड़कर रस की वाणी के रूप में बाहर प्रकट हो गया, जिसका पान करके जिज्ञासु, भावुक, रसिक वृन्द अति उत्तम रसिक-अनन्य-परम हंस पदवी को प्राप्त कर लेते हैं। उन्होंने स्वयं कहा है –
प्याय अधर सुधा महा मधु मत्त मिलि कौतुक कियौ।
किये कौ सुख अल्प सखि सुनि कह्यौ भरि उमँग्यौ हियौ॥
उनके रस पदों को समझना साधारण साधक की बुद्धि एवं दृष्टि से बहुत भिन्न है। यह उस सर्वोच्च रस में निमग्न थे जहाँ उपास्य और उपासक इतना घुल मिल जाते हैं कि उपास्य उपासकों को अपने समतुल्य या अपने से बड़ा मान उसके अधीन रहने लगता है और उपासक उपास्य से कुछ भी लेने की इच्छा ना रख हमेशा उसे देते ही रहते हैं। निरतर उपास्य के सुख का ध्यान होने के कारण, उनके सुख के लिए उन्हें आशीर्वाद देना चाहते हैं यही उन्होंने अपने पदों में भी लिखा है:
“देत आसीस विहारिनि दासी करहुं नवल नित रलियां “
किशोरीजी के चरणों में प्रगाढ़ प्रेम होने के कारण वे बिहारी जी से सदा बेपरवाह रहते और उन्होंने एक पद में इसका वर्णन भी किया है:
“किये रहै ऐंड बिहारी हूँ सौं हम बेपरवाह विहारिनि के “
स्वामी श्री बिहारिन देव जी ने 1670 के लगभग नित्य निकुंज में प्रवेश किया। उनकी समाधि निधिवन में है। उनकी शिष्य परंपरा में स्वामी श्री नागरीदास जी और श्री सरस दास जी प्रधान थे।
सूरध्वज ब्राह्मण वंशी राजा मित्रसेन बादशाह के प्रधान दीवान थे। वे महान् धर्मात्मा तथा उदार थे। अतुल सम्पत्ति होने पर भी दम्पती सन्तान बिना अत्यन्त दुःखी थे। दान, पुण्य, देवतादि का यजन और यंत्र-मंत्र आदि अनेक यत्न करने पर भी मन की आशा-पल्लवित न होते देख उनके अतीव उदासी छा गई। एक दिन राजा की खिन्नता देख उनके प्रिय मित्र और प्रवीण दीवान श्रीचतुर्भुजदास जी गौड़ ने राजा को सांत्वना देते हुए कहा कि आपकी भाँति मैं भी पुत्र हेतु अनेक साधन कराने के उपरान्त अति दुःखी और उदास हो गया। एक दिन अचानक श्री वृन्दावन चला गया। वहाँ संत शिरोमणि श्री स्वामी हरिदास जी महाराज का दर्शनकर हृदय को अतीव हर्ष हुआ और मन में विचार आया की यदि ये संत सुखस्वरूप हैं तो कृपा कर मुझे पुत्र प्रदान करें। उन्होंने देखते ही मुझे निकट बुलाकर कहा – तू पुत्र बिना उदास है। तेरे भक्ति, ज्ञान, वैराग्य सम्पन्न दो पुत्र होंगे। वे अठारह वर्ष तेरे पास रहेंगे, फिर मेरे पास आकर कुंजविहारी लाल के विमल विलास को विलसेंगे। तब मैंने उनसे कहा – करुणानिधान! एक पुत्र मेरे हो और एक मेरे मित्र के घर हो। वह पुत्र के बिना महादुःखी है। तब उन्होंने मित्र भावना की सराहना की और सच्चे मित्र भाव का उपदेश देकर कहा – प्रथम तेरे यहाँ पुत्र होगा। पाँच वर्ष बाद तू अपने मित्र को यह वृत्तान्त सुनाना। वे अपनी पत्नी सहित यहाँ आवें और पुत्र को गोद खिलावें। अब वह शुभ अवसर आ गया है। आप रसिक अनन्य नृपति श्री स्वामी हरिदास जी महाराज के दर्शन और वर पाकर अद्भुत लाभ लीजिये। श्रीचतुर्भुजदास दास जी की बात सुन मित्रसेन के तन-मन-ग्राण आनंद से भर गये, मानो जाते हुए प्राण फिर से शरीर में लौट आये। वे अत्यन्त श्रद्धापूर्वक हर्षोत्कण्ठा से पत्नी सहित श्री स्वामी हरिदास जी महाराज के दर्शन के लिए निघुवन आये। प्रीति सहित प्रणाम और शत मुहरें भेंटकर श्री स्वामी जी महाराज के श्रीमुखचन्द्र के दर्शन कर परमानन्दित हुए। हाथ जोड़कर विनती करते हुए मित्रसेन बोले – चतुर्भुजदास की दया से आप श्री के दर्शन कर जन्म-जिवन सफल हुआ। आपने जो यहाँ आने की आज्ञा दी थी, सो मैं आपकी शरण में आ गया हूँ। श्रीस्वामी जी महाराज ते कहा – अच्छा किया जो तुम आये। अब तुम दम्पती कुछ एक दिन मथुरा में वास करो, पुत्र प्राप्ति अवश्य होगी। ये मुहरें उठा लो और मन लगाकर विप्र तथा साधु-संतो की सेवा करो। जब पुत्र एक वर्ष का हो जाय, तब उसे लेकर यहाँ आना। एक वर्ष बाद भक्ति, ज्ञान, वैराग्य और यूगल श्री नित्य-विहारी के प्रेम की मूर्ति रूप पुत्ररत्न प्रकट हुआ। मित्रसेन और चतुर्भुजदास जी सुनकर हर्षोत्फुल्ल हो उठे। आनन्दावेश में बहुत सा धन दान किया और संत सेवा की। एक वर्ष बीतने पर निधुवन आये और श्रीस्वामी जी महाराज को प्रणाम कर शिशु को श्रीचरणों से लगाया। श्रीस्वामी जी महाराज रूप-लावण्य युत शिशु को अपना सरस अंश जान हँसकर बोले – यह बालक अति बड़भागी है। यह तैंतीस वर्ष तुम्हारे पास रहेगा, फिर विरक्त और महाअनुरागी, त्यागी होकर हमारे निकट रहेगा। कोटि पुत्रों के समान इसे जानना। फिर श्रीस्वामी जी महाराज ने बालक को कण्ठी, तिलक, प्रसादी वस्त्रादिक दे शिर पर हाथ फेरते हुए आशीर्वाद दिया और बिहारिणिदास नाम रखा। माता-पिता ने श्रीस्वामी जी महाराज के चरण प्रक्षालनकर बालक के सिर पर छिड़का और चरणामृत पिलाया। बालक ने किलकते हुए घुटुरुवन चलकर श्री स्वामी जी महाराज का करुवा पकड़ लिया। मित्रसेन ने निवारण कीया तो श्रीस्वामी जी महाराज मृदु मुस्काते हुए बोले – बिहारिणिदास अभी नहीं, फिर आकर इसे ग्रहण करना। सात दिवस वृन्दावन वासवर मित्रसेन श्रीस्वामी जी महाराज से आज्ञा माँग मित्र सहित दिल्ली लौट आए। तेज-प्रभाव पुंज अनूप पुत्ररत्न को लाड़ लड़ाकर दम्पती आनन्दसिन्धु में नित्य मग्न रहने लगे।
आध्यात्मिक जीवन: बिहारिणिदास जब बड़े हुए तब बराबर के सखाओं के संग खेल में श्री युगल-लीला का या रसिक महीपति श्रीस्वामी जी महाराज के चरित्र का अनुकरण करते थे। वे खेल-खेल में बालकों को श्रीस्वामी जी महाराज के स्वरूप का उपदेश देते थे। वे ध्यान सहित श्री हरिदास नाम जपते और सबसे ही ध्यान-जप करवाते थे। सचिव श्रीचतुर्भुजदास जी के पुत्र बिहारिणिदास से छह वर्ष बड़े थे। इनका जन्म भी श्रीस्वामी जी महाराज की कृपा से ही हुआ था और उन्होंने ही इनका नाम कृष्णदास रखा था। वे नित्यविहार के प्रेम-रंग में रात-दिन छके रहते थे। वे बिहारिणीदास से अति स्नेह करते थे, मानो एक प्राण-दो देह हों। दोनों परस्पर श्री युगल की और श्रीस्वामी जी महाराज की रसमयी मधुर चर्चा में अहर्निश छके रहते थे। सकल सुख सम्पत्तिमय अनुकूल वैभव-विलास प्राप्त होते हुए भी श्री बिहारिणिदास जी को सब लवण समान खारी-असार, दुःखद लगते थे। उनके हृदय-कमल पर तो श्री हरिदास चरण बसे हुए थे। निरन्तर श्री हरिदास नाम की रटना और नित्य केलि रंग में पगना ही तन-मन-प्राणों का स्वभाव बना हुआ था। ऐसेही श्रीहरिदास चरण के और नित्यविहार के अनन्य अनुरागी श्रीकृष्णदास जी मिल गये। एक दिन श्री कृष्णदास जी को उत्कट वैराग्य उत्पन्न हो आया। वे श्री बिहारिणिदास जी से बोले – यह शरीर इक्कीस वर्ष होने को आया है। अब तक तो श्रीगुरु-कृपा से अमल, अविकारी बने रहे, यदि अब कहीं कुसंग लग गया तो विषय रस में फँसकर सर्वस्व खो बैठेंगे। इसलिए मैं अभी श्री वृन्दावन श्री गुरु-श्रीस्वामी जी महाराज की शरण में जाऊँगा। वे कृपा वृष्टि कर मुझे परम विरक्त, भक्ति, विवेक सम्पन्न और नित्य नवेली केलि के अनुरागी बनावेंगे, फिर ऐसा दुर्लभ शुभ अवसर कब सुलभ होगा? गद्गद कण्ठ से श्रीबिहारिणिदास जी बोले – आप परम निष्काम, वैराग्य-शिरोमणि और धन्य-धन्य हैं। आप तत्काल श्री वृन्दावन जाइये। मैं भी जल्दी ही आऊँगा और श्रीगुरु-चरणारविन्दों में प्रणाम करूँगा। ऐसा कह सभा सहित प्रणाम किया। श्री कृष्णदास जी तत्क्षण चलकर श्री वृन्दावन आये और नित्यविहार सार आधार श्रीस्वामीजी महाराज के चरणकमलों में शरण पाकर परमानन्दित हुए। श्री कृष्णदास जी की निर्मल प्रीति देख श्रीस्वामी जी महाराज ने उनका हाथ श्री वीठलविपुलदेव जी के हाथ में पकड़ाते हुए कहा – यह मेरा निज अंश है। इसको तुम अपनी शरण में ले लो। श्री वीठलविपुलदेव जी ने आज्ञा मान श्री कृष्णदास जी को निज अनुगामी परम उज्ज्वल धर्मी बना, श्री हरिदास तत्त्व सुखसार उपदेशकर नित्यविहार सार रस में सराबोर कर दिया। इधर श्री बिहारिणिदास जी रूप-लावण्य, शील-स्वभाव आदि गुणों से सबके प्रिय नयनांजनवत् होकर भी निरंजनवत् परम विरक्त और उपशम स्वभाव से युक्त थे। पन्द्रह वर्ष की आयु, रूप-लावण्य, तेज और यौवन की वृद्धि तथा महान् सुख वैभव, फिर भी काम, क्रोध, लोभ, मद एवं मोह रहित, प्रेम-भक्ति-भाव सहित श्री हरिदास नाम व युगल मंत्र जापमय जीवन। असत् चर्चा सुहाती ही नहीं थी। अति उदार, उपकार परायण, सत्य, शूर, धीर तथा नम्र स्वभाव से इनकी शोभा शत गुण वर्द्धित होती थी। जब इनके पिता राजा मित्रसेन ने शरीर त्यागा, तब शाह ने इनको मुख्य दीवान का पद सौंप दिया। इनके दीवान श्रीचतुर्भुजदास जी से इनकी गुणावली सुन शाह बहुत सुख मानते और आदर करते।
Shri Biharinidas started teaching his mind to go to Vrindavan and settle down. He has written: “Based in Vrindavan Uttam Thano, I will get the best of Satsangti Parmarath. Always show the couple’s property, Shri Biharinidasi Bhai Gung”
Arrival in Vrindavan: Once he went to war on behalf of Shah. There his companions betrayed the opponent on the pretext of a treaty and poisoned him. They suffered greatly. Cutting off his right hand, with which he had donated abhaya to the enemy secretary, and looting all the splendor, he started walking to Sri Vrindavan, then the enemy secretary Kamalapati-sons Nanakram and Shuklabaradhar came before him and started praying for self-defense and welfare. Then you said – believe in my word. Putting together the body of your deceased father and my hand. In fifteen days my hand will be revealed and your father will be alive. All this was the act of a promising person, understand that, renounce sorrow and confusion from the heart, saying that he went to Sri Vrindavan. After reaching Vrindavan, bowing down to Shri Swamiji Maharaj, the severed hand came out again. Shri Swamiji Maharaj blessed him with a lotus flower on his head, as if by wearing a moon on his forehead, by giving him the form of a Nityasiddha Sakhi, he made him entitled to observe the daily pleasures of happiness from the creepers between the sakhis. At that time, this Kundalia sparkled from your Shri mouth –
Sri Swami Haridas hands lotus serving head. Manaun Rachi Khachi Chandrika Rakhi Sakhiyani Saath. Rakhi Sakhiyani Saath Naam Ghrita Dasi Biharini. The creeper of Bihar is always looking at the hole in the house Ati Nagar Var Jani Nikat Syama Abhirami. The second form is a Dharma axis, Sri Swami.
After receiving the unique blessings of Shri Swamiji Maharaj, Shri Swami Biharinidev Ji went a long way in the worship of Rasik-Anyaya Dharma and Nitya Bihari Ras-Riti. His living conditions were of a very high order and strong. In his life, there was a high ideal of Rasik-Annya Dharma, a high light of ultimate laughter, and in his story there is a vivid development of the sutra form of Shri Swamiji Maharaj, it has a detailed explanation; Which is very serious, gracious and heart-warming, which attracts the hearts of the people and is ecstatic. By the grace of the Raja of Vrindavan, his mind was at the feet of Shri Radharani in such a way that he showed his back to the whole world. His heart was filled with joy in the service of Shri Swamini ji and in the beauty of the limbs. He himself wrote in the verse: “Mere Vishai Visan Var Vaam, Tan Gori Man Bhori Naval Kishori Radha Naam. Nis Basar Jagat Sovat Chitwat Anga Anga Abhiram. Anjan Manjan Karat Param Ruchi Chop quadruple work So that I will shake my karma dharma and wealth. Dai peethi sab jagatan lagtam payo ban vrishram” that means, as soon as he has resided in Vrindavan after showing his back to the world, he has taken shelter of Naval Kishoriji Shri Radharani and has taken the name of Radha. I have found ultimate rest. Now they renounced all pride and started living their life by eating only the words of the people of Braj.
“Ruche Mohi Brajwasin Ke Tuk” He has expressed his exclusive allegiance to Brajdham and Brajwasis in many posts. In one verse, he has not hesitated to even call himself a pet puppy of Brajwasis – “Haun Brajwasin Kau Palyo Yellow” Now he would always be immersed in the contemplation of Bihar, rejoicing in the taste and praise of Shyama Shyam’s Leela Madhuri. , Aahar Vihar, food, bath etc. Everyone would have forgotten. There is a very famous incident related to his life. Once, he went to bathe in Yamuna, he had toothache in his mouth. He stood on the road for three days, singing the same verse and Be absorbed in joy: “Viharat Lal Viharini Dou Shri Jamuna’s arrows arrows” Couple Sarkar (Radha and Krishna) are performing Leela and taking a walk on the banks of Yamuna. They themselves have written that some are drunk with cannabis, some are intoxicated with opium, Biharin Das Ji Shyama Shyam Ki Ras Madhuri Ke Nasha I used to have fun.” Shri Biharidas Rasmadhuri, Matt Mudit Tofim” After a few days Swami Shri Haridas ji entered Nitya Nikunj, 7 days after him Shri Vitthal Vipul Dev Ji also entered Nitya Nikunj. After that then Viharin Dev Ji became the teacher of the sect. After that, it was his responsibility to guide the seekers by adopting the responsibility of establishing the ideal stage of a life full of devotion and dispassion. Shri Viharin Dev Ji fulfilled this responsibility completely. Shri Biharin Dev ji remained the teacher of the sect for a long time. His speech has two parts – one principle side, the other rasa side. The speech of the Ras Paksha is a spillover of their experience. The way he felt while living in the form of a friend with Shri Lalita ji, it emerged out of his perfect heart in the form of the voice of rasa, after drinking which the curious, emotional, rasik vrinda is the most exquisite rasik-unique-param swan. get the title. He himself has said –
Drinking lips nectar great honey drunk together curious. Why did you have little happiness, my friend?
Understanding their rasa padas is very different from the intellect and vision of an ordinary seeker. He was immersed in that supreme rasa where the worshiper and the worshiper mix so much that the worshipers feel equal or greater than themselves, and the worshipers always keep giving it to him, without wanting to take anything from the worshiper. Being the meditator of the pleasures of constant worship, wishing to bless them for their happiness, this is what he has also written in his verses: “Det aasis viharini dasi karhun naval nit raliyan” Due to the intense love at the feet of Kishoriji, he always remained indifferent to Bihari ji and he has also described it in a verse: “I am a Bihari and I am a carefree Viharini ke” Swami Shri Biharin Dev Ji entered Nitya Nikunj around 1670. His samadhi is in Nidhivan. Swami Shri Nagridas ji and Shri Saras Das ji were the chiefs in his disciple tradition.