।। श्रीहरि: ।।
यच्च किञ्चित् जगत् सर्वं दृश्यते श्रूयतेऽपि वा।
अंतर्बाहिश्च तत्सर्वं व्याप्य नारायणः स्थितः।।
(नारायण सूक्त)
यह संपूर्ण ब्रह्माण्ड जो कुछ भी है, देखा या सुना गया है- इस सब में, अंदर और बाहर से समान रूप से व्याप्त, सर्वोच्च शाश्वत दिव्य सत्ता नारायण है।
अग्निर्यथैको भुवनं प्रविष्टो
रूपंरूपं प्रतिरूपो बभूव।
एकस्तथा सर्वभूतान्तरात्मा
रूपंरूपं प्रतिरूपो बहिश्च।।
वायुर्यथैको भुवनं प्रविष्टो
रूपं रूपं प्रतिरूपो बभूव।
एकस्तथा सर्वभूतान्तरात्मा
रूपं रूपं प्रतिरूपो बहिश्च।।
सूर्यो यथासर्वलोकस्य चक्षु-
र्न लिप्यतेचाक्षुषैर्बाह्यदोषैः।
एकस्तथा सर्वभूतान्तरात्मा
न लिप्यते लोकदुःखेन बाह्यः।।
(कठोपनिषत- २ / ५)
जिस प्रकार समग्र ब्रह्माण्ड में व्याप्त एक ही अग्नि अन्य विविध आधारभूत वस्तु के रूपों को धारण किए हुए रहता है, ठीक उसी प्रकार सभी प्राणियों का अन्तरात्मा पब्रह्मरूप एक होने पर भी तरह-तरह के रूपों को धारण करके प्रविष्ट होता है। इतना ही नहीं, उनके बाहर भी भिन्न-भिन्न रूपों में वह रहता है। जिस प्रकार एकल ब्रह्माण्ड में एक ही वायु अपने अव्यक्त रूप से व्याप्त है, फिर भी भिन्न-भिन्न व्यक्त वस्तुओं के संयोग से उन-उन वस्तुओं के अनुरूप गति और शक्तिसम्पन्न दिखाई देता है, ठीक उसी प्रकार इन समस्त प्राणियों का अन्तर्यामी परमेश्वर तो एक ही है, तथापि उन प्राणियों के सम्बन्ध से भिन्न-भिन्न गति और शक्तिवाला दिखाई पड़ता है। इतना ही नहीं, वह प्राणियों (वस्तुओं) के बाहर भी अनन्त (असीम) विविध रूपों में भी रहता है। जैसे सूर्य समग्र लोक का नेत्र है, फिर भी नेत्र सम्बन्धी बाह्य दोषों से सूर्य लिप्त नहीं होता। उसी तरह सर्व प्राणियों का अन्तरात्मा तो एक ही है, फिर भी वह संसार के दुःखों से लिप्त नहीं होता, किन्तु उनसे वह बाहर ही रहता है।
अर्थात परमात्मा सबके भीतर रहकर भी संसार के दोषों से लिप्त नहीं, वह संसार की सभी चर अचर वस्तुओं में होने के अलावा भी जो शेष बचता है वह यही श्रीपति नारायण हैं। यही पुरुष सूक्त के स्पृत्वाSत्यतिष्ठद्द्शाङ्गुलम् का अर्थ है।
एको वशी सर्वभूतान्तरात्मा
एकं रूपं बहुधा यः करोति।
तमात्मस्थं येऽनुपश्यन्ति धीरास्-
तेषा सुख शाश्वतं नेतरेषाम्।।
सदैव सभी के अन्तरात्मा के रूप में स्थित, अद्वितीय, सभी प्राणियों को अपने वश में रखनेवाला वही सर्वशक्तिमान परमेश्वर अपने एक ही रूप को लीला से अनेक प्रकार का बना देता है, ऐसे परमात्मा को जो ज्ञानी पुरुष अपने भीतर अवस्थित देखते हैं, उन्हीं को शाश्वत आनन्द प्राप्त होता है, दूसरों को नहीं। ।। ॐ नमो नारायणाय ।।
, Shrihari:..
And whatever is seen or heard in the whole world. Narayana pervades all that inside and outside. (Narayana Sukta)
This entire universe, whatever is there, seen or heard – pervading all this, equally from within and without, is the supreme eternal divine being Narayana.
as fire entered the world alone Form became a replica. One and the Self within all beings Form, form, replica, and outside.
As the wind entered the world alone Form became the form of the pattern. One and the Self within all beings Form, form, replica and outside.
The sun as the eye of all the world- It is not tainted by invisible external faults. One and the Self within all beings The external is not tainted by the suffering of the world. (Kathopanisat-2/5)
Just as the same fire that pervades the entire universe takes the forms of various other basic things, in the same way the inner soul of all living beings, despite being one in the form of Brahma, comes in taking different forms. Not only this, he also lives outside them in different forms. Just as the same air pervades a single universe in its latent form, yet due to the combination of different manifest objects, it appears to be endowed with motion and power as per those objects, in the same way, the inner God of all these beings is only one. However, in relation to those creatures, it appears to have different speed and power. Not only this, He also exists outside the living beings (things) in infinite (infinite) diverse forms. Just as the Sun is the eye of the entire world, yet the Sun is not affected by external defects related to the eyes. In the same way, the inner soul of all living beings is the same, yet it does not get involved in the sorrows of the world, but remains outside them. That is, despite God living within everyone, he is not affected by the faults of the world, apart from being present in all the moving and immovable things of the world, what remains is this Shripati Narayan. This is the meaning of SpritvaStyatishthaddshangulam of Purusha Sukta.
The one submissive all-pervading Self He who does one form in many ways. Those who are patient and do not see Him in themselves- Their happiness is eternal and not that of others.
The same Almighty God, who is always present as the inner soul of everyone, unique, who controls all the living beings, transforms His single form into many types through play, the knowledgeable persons who see such a God present within themselves, consider Him as eternal. Enjoyment is achieved, others do not. , Om Namo Naraynay ..