दोनो ओर से गदाओं, बाणों और शूलों आदि का भीषण प्रहार हुआ। दैत्यों के तीक्ष्ण प्रहारों से व्याकुल देवता इधर-उधर भागने लगे तब देवताओं को इस प्रकार भयभीत हुआ देख गरुड़ पर चढ़े भगवान युद्ध में आगे बढ़े और उन्होंने अपना सारंग नामक धनुष उठाकर बड़े जोर का टंकार किया। त्रिलोकी शाब्दित हो गई। पलमात्र में भगवान ने हजारों दैत्यों के सिरों को काट गिराया फिर तो विष्णु और जलन्धर का महासंग्राम हुआ। बाणों से आकाश भर गया। लोक आश्चर्य करने लगे।
भगवान विष्णु ने बाणों के वेग से उस दैत्य की ध्वजा, छत्र और धनुष-बाण काट डाले। इससे व्यथित हो उसने अपनी गदा उठाकर गरुड़ के मस्तक पर दे मारी। साथ ही क्रोध से उस दैत्य ने विष्णु जी की छाती में भी एक तीक्ष्ण बाण मारा। इसके उत्तर में विष्णु जी ने उसकी गदा काट दी और अपने शारंग धनुष पर बाण चढ़ाकर उसको बींधना आरंभ किया। इस पर जलन्धर इन पर अपने पैने बाण बरसाने लगा। उसने विष्णु जी को कई पैने बाण मारकर वैष्णव धनुष को काट दिया। धनुष कट जाने पर भगवान ने गदा ग्रहण कर ली और शीघ्र ही जलन्धर को खींचकर मारी, परन्तु उस अग्निवत अमोघ गदा की मार से भी वह दैत्य कुछ भी चलायमान न हुआ। उसने एक अग्निमुख त्रिशूल उठाकर विष्णु पर छोड़ दिया।
विष्णु जी ने शिव के चरणों का स्मरण कर नन्दन नामक त्रिशूल से उसके त्रिशूल को छेद दिया। जलन्धर ने झपटकर विष्णु जी की छाती पर एक जोर का मुष्टिक मारा, उसके उत्तर में भगवान विष्णु ने भी उसकी छाती पर अपनी एक मुष्टि का प्रहार किया। फिर दोनों घुटने टेक बाहुओं और मुष्टिको से बाहु-युद्ध करने लगे। कितनी ही देर तक भगवान उसके साथ युद्ध करते रहे तब सर्वश्रेष्ठ मायावी भगवान उस दैत्यराज से मेघवाणी में बोले – रे रण दुर्मद दैत्यश्रेष्ठ! तू धन्य है जो इस महायुद्ध में इन बड़े-बड़े आयुधों से भी भयभीत न हुआ। तेरे इस युद्ध से मैं प्रसन्न हूँ, तू जो चाहे वर माँग।
मायावी विष्णु की ऎसी वाणी सुनकर जलन्धर ने कहा – हे भावुक! यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो यह वर दीजिए कि आप मेरी बहन तथा अपने सारे कुटुम्बियों सहित मेरे घर पर निवास करें।
नारद जी बोले – उसके ऐसे वचन सुनकर विष्णु जी को खेद तो हुआ किन्तु उसी क्षण देवेश ने तथास्तु कह दिया। अब विष्णु जी सब देवताओं के साथ जलन्धरपुर में जाकर निवास करने लगे। जलन्धर अपनी बहन लक्ष्मी और देवताओं सहित विष्णु को वहाँ पाकर बड़ा प्रसन्न हुआ फिर तो देवताओं के पास जो भी रत्नादि थे सबको ले जलन्धर पृथ्वी पर आया। निशुम्भ को पाताल में स्थापित कर दिया और देव, दानव, यक्ष, गन्धर्व, सिद्ध, सर्प, राक्षस, मनुष्य आदि सबको अपना वंशवर्ती बना त्रिभुवन पर शासन करने लगा। उसने धर्मानुसार सुपुत्रों के समान प्रजा का पालन किया। उसके धर्मराज्य में सभी सुखी थे।
दोनो ओर से गदाओं, बाणों और शूलों आदि का भीषण प्रहार हुआ। दैत्यों के तीक्ष्ण प्रहारों से व्याकुल देवता इधर-उधर भागने लगे तब देवताओं को इस प्रकार भयभीत हुआ देख गरुड़ पर चढ़े भगवान युद्ध में आगे बढ़े और उन्होंने अपना सारंग नामक धनुष उठाकर बड़े जोर का टंकार किया। त्रिलोकी शाब्दित हो गई। पलमात्र में भगवान ने हजारों दैत्यों के सिरों को काट गिराया फिर तो विष्णु और जलन्धर का महासंग्राम हुआ। बाणों से आकाश भर गया। लोक आश्चर्य करने लगे। भगवान विष्णु ने बाणों के वेग से उस दैत्य की ध्वजा, छत्र और धनुष-बाण काट डाले। इससे व्यथित हो उसने अपनी गदा उठाकर गरुड़ के मस्तक पर दे मारी। साथ ही क्रोध से उस दैत्य ने विष्णु जी की छाती में भी एक तीक्ष्ण बाण मारा। इसके उत्तर में विष्णु जी ने उसकी गदा काट दी और अपने शारंग धनुष पर बाण चढ़ाकर उसको बींधना आरंभ किया। इस पर जलन्धर इन पर अपने पैने बाण बरसाने लगा। उसने विष्णु जी को कई पैने बाण मारकर वैष्णव धनुष को काट दिया। धनुष कट जाने पर भगवान ने गदा ग्रहण कर ली और शीघ्र ही जलन्धर को खींचकर मारी, परन्तु उस अग्निवत अमोघ गदा की मार से भी वह दैत्य कुछ भी चलायमान न हुआ। उसने एक अग्निमुख त्रिशूल उठाकर विष्णु पर छोड़ दिया। विष्णु जी ने शिव के चरणों का स्मरण कर नन्दन नामक त्रिशूल से उसके त्रिशूल को छेद दिया। जलन्धर ने झपटकर विष्णु जी की छाती पर एक जोर का मुष्टिक मारा, उसके उत्तर में भगवान विष्णु ने भी उसकी छाती पर अपनी एक मुष्टि का प्रहार किया। फिर दोनों घुटने टेक बाहुओं और मुष्टिको से बाहु-युद्ध करने लगे। कितनी ही देर तक भगवान उसके साथ युद्ध करते रहे तब सर्वश्रेष्ठ मायावी भगवान उस दैत्यराज से मेघवाणी में बोले – रे रण दुर्मद दैत्यश्रेष्ठ! तू धन्य है जो इस महायुद्ध में इन बड़े-बड़े आयुधों से भी भयभीत न हुआ। तेरे इस युद्ध से मैं प्रसन्न हूँ, तू जो चाहे वर माँग। मायावी विष्णु की ऎसी वाणी सुनकर जलन्धर ने कहा – हे भावुक! यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो यह वर दीजिए कि आप मेरी बहन तथा अपने सारे कुटुम्बियों सहित मेरे घर पर निवास करें। नारद जी बोले – उसके ऐसे वचन सुनकर विष्णु जी को खेद तो हुआ किन्तु उसी क्षण देवेश ने तथास्तु कह दिया। अब विष्णु जी सब देवताओं के साथ जलन्धरपुर में जाकर निवास करने लगे। जलन्धर अपनी बहन लक्ष्मी और देवताओं सहित विष्णु को वहाँ पाकर बड़ा प्रसन्न हुआ फिर तो देवताओं के पास जो भी रत्नादि थे सबको ले जलन्धर पृथ्वी पर आया। निशुम्भ को पाताल में स्थापित कर दिया और देव, दानव, यक्ष, गन्धर्व, सिद्ध, सर्प, राक्षस, मनुष्य आदि सबको अपना वंशवर्ती बना त्रिभुवन पर शासन करने लगा। उसने धर्मानुसार सुपुत्रों के समान प्रजा का पालन किया। उसके धर्मराज्य में सभी सुखी थे।