एक छोटे से गाँव मे श्रीधर नाम का एक व्यक्ति रहता था, स्वभाव से थोड़ा कमजोर और डरपोक किस्म का इंसान था। एक बार वो एक महात्माजी के दरबार मे गया और उन्हे अपनी कमजोरी बताई और उनसे प्रार्थना करने लगा कि- हे देव ! मुझे कोई ऐसा साथी मिल जायें जो सबसे शक्तिशाली हो और विश्वासपात्र भी जिस पर मैं आँखे बंद करके विश्वास कर सकू ! जिससे मैं मित्रता करके अपनी कमजोरी को दूर कर सकू ! हे देव! भले ही एक ही साथी मिले पर ऐसा मिले कि वो मेरा साथ कभी न छोड़े।
महात्मा जी ने कहा- पूर्व दिशा मे जाना और तब तक चलते रहना जब तक तुम्हारी तलाश पूरी न हो जाये। और हाँ तुम्हे ऐसा साथी अवश्य मिलेगा जो तुम्हारा साथ कभी नहीं छोडेंगा बशर्ते कि तुम उसका साथ न छोड़ो।
श्रीधर- बस एक बार वो मुझे मिल जायें तो फिर मैं उसका साथ कभी न छोडूंगा पर हे देव मेरी तलाश तो पुरी होगी ना?
महात्माजी- हे वत्स! यदि तुम सच्चे दिल से उसे पाना चाहते हो तो वो बहुत सुलभता से तुम्हे मिल जायेगा नहीं तो वो बहुत दुर्लभ है।
फिर उसने महात्माजी को प्रणाम किया आशीर्वाद लिया और अपनी राह पर चल पड़ा।
सबसे पहले उसे एक व्यक्ति मिला जो शक्तिशाली घोड़े को काबू मे कर रहा था। उसने देखा यही है वो जैसै ही उसके पास जाने लगा तो उस इंसान ने एक सैनिक को प्रणाम किया और घोड़ा देकर चला गया।
श्रीधर ने सोचा सैनिक ही है तो, वो मित्रता के लिये आगे बड़ा पर इतने मे सेनापति आ गया सैनिक ने प्रणाम किया और घोड़ा आगे किया। सेनापति घोड़ा लेकर चला गया। श्रीधर भी खूब दौड़ा और अन्ततः वो सेनापति तक पहुँचा। पर सेनापति ने राजाजी को प्रणाम किया और घोड़ा देकर चला गया तो श्रीधर ने राजा को मित्रता के लिये चुना और उसने मित्रता करनी चाही, पर राजा घोड़े पर बैठकर शिकार के लिये वन को निकले श्रीधर भी भागा और घनघोर जंगल मे श्रीधर पहुँचा पर राजा कही न दिखे।
प्यास से उसका गला सूख रहा था थोड़ी दूर गया तो एक नदी बह रही थी, वो पानी पीकर एक वृक्ष की छाँव मे बैठ गया। वहाँ एक राहगीर जमीन पे सोया था और उसके मुख से राम राम की जप ध्वनि सुनाई दे रही थी तथा एक काला नाग उस राहगीर के चारों तरफ चक्कर लगा रहा था। श्रीधर ने बहुत देर तक उस दृश्य को देखा, फिर वृक्ष की एक डाल टूटकर नीचे गिरी तो साँप वहाँ से चला गया। इतने मे उस राहगीर की नींद टूट गई और वो उठा तथा राम राम का सुमिरन करते हुये अपनी राह पे चला गया।
श्रीधर पुनः महात्माजी के आश्रम पहुँचा और सारा किस्सा कह सुनाया। उनसे पूंछा हे नाथ मुझे तो बस इतना बताओ कि वो काला नाग उस राहगीर के चारों ओर चक्कर काट रहा था पर वो उस राहगीर को डँस क्यों नहीं पा रहा था। लगता है देव की कोई अद्रश्य सत्ता उसकी रक्षा कर रही थी।
महात्माजी ने कहा उसका सबसे सच्चा साथी ही उसकी रक्षा कर रहा था, जो उसके साथ था, तो श्रीधर ने कहा वहाँ तो कोई भी नहीं था। संयोगवश हवा चली वृक्ष से एक डाली टूटकर नाग के पास गिरी और नाग चला गया।
महात्माजी ने कहा नहीं वत्स उसका जो सबसे अहम साथी था वही उसकी रक्षा कर रहा था। जो दिखाई तो नही दे रहा था पर हर पल उसे बचा रहा था। उस साथी का नाम है ‘धर्म’ ! हे वत्स धर्म से समर्थ और सच्चा साथी जगत मे और कोई नहीं है। केवल एक धर्म ही है जो सोने के बाद भी तुम्हारी रक्षा करता है और मरने के बाद भी तुम्हारा साथ देता है।
हे वत्स पाप का कोई रखवाला नहीं हो सकता और धर्म कभी असहाय नहीं है। महाभारत के युद्ध मे भगवान श्रीकृष्ण ने पांडवों का साथ सिर्फ इसलिये दिया था क्योंकि धर्म उनके पक्ष मे था।
हे वत्स! तुम भी केवल धर्म को ही अपना सच्चा साथी मानना एवं इसे मजबूत बनाना क्योंकि यदि धर्म तुम्हारे पक्ष मे है तो स्वयं नारायण और सद्गुरु तुम्हारे साथ है। नही तो एक दिन तुम्हारे साथ कोई न होगा और कोई तुम्हारा साथ न देगा। यदि धर्म मजबूत है तो वो तुम्हे बचा लेगा इसलिये धर्म को मजबूत बनाओ।
हे वत्स! एक बात हमेशा याद रखना कि इस संसार मे समय बदलने पर अच्छे से अच्छे साथ छोड़कर चले जाते है। केवल एक धर्म ही है जो घनघोर बीहड़ और गहरे अन्धकार मे भी आपका साथ नही छोड़ेगा। कदाचित आपकी परछाई भी आपका साथ छोड़ दे परन्तु धर्म आपका साथ कभी नही छोड़ेगा बशर्ते कि आप उसका साथ न छोड़ो। इसलिये धर्म को मजबूत बनाइए वही तो आपका सच्चा साथी है।
सनातन धर्म में चार पुरुषार्थ स्वीकार किए गये हैं जिनमें धर्म प्रमुख है। तीन अन्य पुरुषार्थ ये हैं- अर्थ, काम और मोक्ष। गौतम ऋषि कहते हैं-
‘यतो अभ्युदयनिश्रेयस सिद्धिः स धर्म।’
जिस काम के करने से अभ्युदय और निश्रेयस की सिद्धि हो वह धर्म है।
मनु ने मानव धर्म के दस लक्षण बताये हैं-
धृतिः क्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रहः।
धीर्विद्या सत्यमक्रोधो, दशकं धर्मलक्षणम्।।
धृति (धैर्य), क्षमा (दूसरों के द्वारा किये गये अपराध को माफ कर देना, क्षमाशील होना), दम (अपनी वासनाओं पर नियन्त्रण करना), अस्तेय (चोरी न करना), शौच (अन्तरंग और बाह्य शुचिता), इन्द्रिय निग्रहः (इन्द्रियों को वश मे रखना), धी (बुद्धिमत्ता का प्रयोग), विद्या (अधिक से अधिक ज्ञान की पिपासा), सत्य (मन वचन कर्म से सत्य का पालन) और अक्रोध (क्रोध न करना); ये दस मानव धर्म के लक्षण हैं।
धर्म एव हतो हन्ति धर्मो रक्षति रक्षितः।
तस्माद्धर्मो न हन्तव्यो मा नो धर्मो हतोऽवधीत्।।
मरा हुआ धर्म मारने वाले का नाश, और रक्षित धर्म रक्षक की रक्षा करता है। इसलिए धर्म का हनन कभी न करना, इस डर से कि मारा हुआ धर्म कभी हमको न मार डाले।
(महाभारत-वनपर्व- ३१३ / १२८)
जो अपने अनुकूल न हो वैसा व्यवहार दूसरे के साथ नहीं करना चाहिये- यह धर्म की कसौटी है।
श्रूयतां धर्म सर्वस्वं श्रुत्वा चैव अनुवर्त्यताम्।
आत्मनः प्रतिकूलानि, परेषां न समाचरेत्।।
धर्म का सर्वस्व क्या है, यह सुनो और सुनकर उस पर चलो ! अपने को जो अच्छा न लगे, वैसा आचरण दूसरे के साथ नही करना चाहिये।
पुराणों में अधर्म के परिवार के बारे में वर्णित है कि अधर्म की पत्नी हिंसा है जिससे अनृत नामक पुत्र और निकृति नाम की कन्या का जन्म हुआ। भय और नर्क अधर्म के नाती हैं।
।। हे प्रभु ! सब की रक्षा करो ।।