सनातन का क्या अर्थ है

सनातन का अर्थ होता है ऐसा तत्व जिसका न तो आदि है और न ही अंत है।पुरातन, और शाश्वत आत्मा को ग्रंथों तथा शास्त्रों में सनातन कहा गया है।
स्मरण रहे कि हिंदू, मुस्लिम, सिख या ईसाई धर्म नहीं वरन् हमारी पृथक-पृथक मान्यताओं और धारणाओं पर आधारित सम्प्रदाय हैं। धर्म मान्यताओं या धारणाओं का विषय नहीं है वरन् अनुभव का विषय है।
गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने मात्र दो ही धर्मों (स्वधर्म और परधर्म) का वर्णन किया है।
हमारा वास्तविक स्वरूप “स्व” अर्थात् आत्मा है न कि जन्म मरणशील मल,मूत्र,रक्त,मांस, अस्थि, मज्जायुक्त शरीर। शरीर अनादि पंचतत्वों से निर्मित होता है और आजीवन इन्हीं पंचतत्वों पर आश्रित रहता है।इन पंचतत्वों में से किसी भी एक भी तत्व के अभाव में शरीर का जीवित रहना संभव नहीं है। अतः इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता है कि हम नश्वर शरीर नहीं वरन् अनादि पंचतत्वयुक्त शरीर हैं। जब अनादि पंचतत्वयुक्त स्वयं में पूर्ण हैं जिन्हें खंडित नहीं किया जा सकता है और न ही इन पंचतत्वों से निर्मित शरीर को हिंदू, मुस्लिम, सिख या ईसाई की संज्ञा दी जा सकती है। वस्तुत: इस संसार में हमारी अज्ञानता के कारण मल,मूत्र,रक्त, अस्थि मांस, मज्जा युक्त शरीर का नामकरण करके हमें सांप्रदायिक बनाया जाता है जो हमारे समाज की मूढ़ता के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है।
यद्यपि इस संसार में कोई भी प्राणी इस बात से इन्कार नहीं कर सकता कि उसे अपने स्वयं के जन्म होने का अनुभव है या वह अपने जन्म का दृष्टा और साक्षी है। वास्तविकता में होता तो यह है कि पूर्वाग्रहों, पौराणिक मान्यताओं और धारणाओं के आधार पर हमारे शरीरजन्म के दृष्टा और साक्षीजन हमें हमारे शरीर के जन्म को हमारा जन्म कहते हैं और यही अज्ञान हमारी सुदृढ़ मान्यता बन जाता है और अज्ञान निवृत्ति तक अनवरत बना रहता है, जबकि प्राचीनतम वेदशास्त्र और श्रोत्रियब्रह्मनिष्ठ तत्वदर्शी संतगुरु हमें स्वयं को नित्य, चेतन, अजन्मा, अविनाशी शुद्ध चैतन्य आत्मा होने का ज्ञान देकर बोध और अनुभूति के मार्ग प्रशस्त करते हैं।
शास्त्रानुसार जब आत्मा के अतिरिक्त और कुछ है ही नहीं तो कोई भी आत्मानुभूतियुक्त महापुरुष भला स्वयं किसी अन्य धर्म की स्थापना या उसके संचालन के विषय में अज्ञानतापूर्ण मार्गदर्शन कैसे कर सकता है? जब परम् शुद्ध चैतन्यतत्व आत्मा के अतिरिक्त और कुछ है ही नहीं स्वधर्म अर्थात् आत्मधर्म के अतिरिक्त और किसी सनातन धर्म की बात कैसे कही और सुनी जा सकती है।
जितने भी सनातन ग्रंथ और शास्त्र उपलब्ध है वे सभी तत्कालीन महापुरुषों द्वारा ज्ञान की पराकाष्ठा पर पहुंच कर तत्वज्ञान के विषय में अपने-अपने प्रकार से कहें गये हैं परन्तु हमारी सबसे बड़ी कमी यह है कि हम उन्हें अपने शरीर नाम रूप में मन, बुद्धि, इन्द्रियों और अहंकार का आश्रय लेकर उन्हें समझने का प्रयास करते हैं।
अतः अहम्-निवृत्त अर्थात् अहंकार-मुक्त हुए बिना हम किसी भी आर्षग्रन्थ या तत्वदर्शी सद्गुरु के तत्वज्ञान या मार्गदर्शन से आत्मसात करने में सक्षम नहीं हो सकते हैं। समस्त शास्त्रीय ज्ञान हमारे पूर्वाग्रहों, मान्यताओं, धारणाओं की अज्ञान से मुक्ति के लिए है परन्तु हमसे भूल रही होती है कि हम उसे आत्मभाव के स्थान पर शरीरभाव में मन, बुद्धि और इन्द्रियों द्वारा समझने का प्रयास करते हैं,यही पर महान चूक होती है।



सनातन का अर्थ होता है ऐसा तत्व जिसका न तो आदि है और न ही अंत है।पुरातन, और शाश्वत आत्मा को ग्रंथों तथा शास्त्रों में सनातन कहा गया है। स्मरण रहे कि हिंदू, मुस्लिम, सिख या ईसाई धर्म नहीं वरन् हमारी पृथक-पृथक मान्यताओं और धारणाओं पर आधारित सम्प्रदाय हैं। धर्म मान्यताओं या धारणाओं का विषय नहीं है वरन् अनुभव का विषय है। गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने मात्र दो ही धर्मों (स्वधर्म और परधर्म) का वर्णन किया है। हमारा वास्तविक स्वरूप “स्व” अर्थात् आत्मा है न कि जन्म मरणशील मल,मूत्र,रक्त,मांस, अस्थि, मज्जायुक्त शरीर। शरीर अनादि पंचतत्वों से निर्मित होता है और आजीवन इन्हीं पंचतत्वों पर आश्रित रहता है।इन पंचतत्वों में से किसी भी एक भी तत्व के अभाव में शरीर का जीवित रहना संभव नहीं है। अतः इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता है कि हम नश्वर शरीर नहीं वरन् अनादि पंचतत्वयुक्त शरीर हैं। जब अनादि पंचतत्वयुक्त स्वयं में पूर्ण हैं जिन्हें खंडित नहीं किया जा सकता है और न ही इन पंचतत्वों से निर्मित शरीर को हिंदू, मुस्लिम, सिख या ईसाई की संज्ञा दी जा सकती है। वस्तुत: इस संसार में हमारी अज्ञानता के कारण मल,मूत्र,रक्त, अस्थि मांस, मज्जा युक्त शरीर का नामकरण करके हमें सांप्रदायिक बनाया जाता है जो हमारे समाज की मूढ़ता के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। यद्यपि इस संसार में कोई भी प्राणी इस बात से इन्कार नहीं कर सकता कि उसे अपने स्वयं के जन्म होने का अनुभव है या वह अपने जन्म का दृष्टा और साक्षी है। वास्तविकता में होता तो यह है कि पूर्वाग्रहों, पौराणिक मान्यताओं और धारणाओं के आधार पर हमारे शरीरजन्म के दृष्टा और साक्षीजन हमें हमारे शरीर के जन्म को हमारा जन्म कहते हैं और यही अज्ञान हमारी सुदृढ़ मान्यता बन जाता है और अज्ञान निवृत्ति तक अनवरत बना रहता है, जबकि प्राचीनतम वेदशास्त्र और श्रोत्रियब्रह्मनिष्ठ तत्वदर्शी संतगुरु हमें स्वयं को नित्य, चेतन, अजन्मा, अविनाशी शुद्ध चैतन्य आत्मा होने का ज्ञान देकर बोध और अनुभूति के मार्ग प्रशस्त करते हैं। शास्त्रानुसार जब आत्मा के अतिरिक्त और कुछ है ही नहीं तो कोई भी आत्मानुभूतियुक्त महापुरुष भला स्वयं किसी अन्य धर्म की स्थापना या उसके संचालन के विषय में अज्ञानतापूर्ण मार्गदर्शन कैसे कर सकता है? जब परम् शुद्ध चैतन्यतत्व आत्मा के अतिरिक्त और कुछ है ही नहीं स्वधर्म अर्थात् आत्मधर्म के अतिरिक्त और किसी सनातन धर्म की बात कैसे कही और सुनी जा सकती है। जितने भी सनातन ग्रंथ और शास्त्र उपलब्ध है वे सभी तत्कालीन महापुरुषों द्वारा ज्ञान की पराकाष्ठा पर पहुंच कर तत्वज्ञान के विषय में अपने-अपने प्रकार से कहें गये हैं परन्तु हमारी सबसे बड़ी कमी यह है कि हम उन्हें अपने शरीर नाम रूप में मन, बुद्धि, इन्द्रियों और अहंकार का आश्रय लेकर उन्हें समझने का प्रयास करते हैं। अतः अहम्-निवृत्त अर्थात् अहंकार-मुक्त हुए बिना हम किसी भी आर्षग्रन्थ या तत्वदर्शी सद्गुरु के तत्वज्ञान या मार्गदर्शन से आत्मसात करने में सक्षम नहीं हो सकते हैं। समस्त शास्त्रीय ज्ञान हमारे पूर्वाग्रहों, मान्यताओं, धारणाओं की अज्ञान से मुक्ति के लिए है परन्तु हमसे भूल रही होती है कि हम उसे आत्मभाव के स्थान पर शरीरभाव में मन, बुद्धि और इन्द्रियों द्वारा समझने का प्रयास करते हैं,यही पर महान चूक होती है।

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