ये जगत, प्रेम को वासना ही समझ बैठा है।पर प्रेम उपासना है । प्रेम साधना है।प्रेम चेतना की उच्चतम अवस्था है।प्रेम तप है ।प्रेम जप है। प्रेम व्रत है।प्रेम एक शुद्ध और पवित्र भाव है ।
प्रेम शरीर के वासना की पूर्ति नहीं है।प्रेम तो आत्मा की तड़प है ।जब तक उसे परमात्मा नहीं मिलता, तब तक वह तड़प बनी ही रहेगी ।और प्रेम परमात्मा में ही जाकर रुकता है ।क्योंकि प्रेम का लक्ष्य ही वही है। नहीं तो भटकते रहना पड़ता है ।भटकन तो अब भी जारी है ।
प्रेम का स्वरूप – प्रेम में स्वार्थ नहीं होना चाहिये !निःस्वार्थ प्रेम सबसे बड़ी साधना है। जप तप व्रत जो भी करते हैं तो करिए। पर प्रेम साधना का सिद्धान्त एक बात कहती है । स्वयं का सुख की चाहना न रखें,अगर स्वयं का सुख चाहते हैं,तो फिर वो प्रेम साधना नहीं है। वो तुम्हारे स्वसुख की साधना है ।इस स्वसुख की साधना से विनाशी पदार्थ ही मिलेगें। वो अविनाशी तत्व श्री कृष्ण दूर हो जायेंगें ।
प्रेम साधना एक दिव्य साधना है । इसमें स्वार्थ के लिये कोई स्थान नहीं है ।निःस्वार्थ ही इसका साधन है।निः स्वार्थ की बहुत महिमा है ।और स्वार्थ तो राक्षसी स्वभाव है।इसलिये जो भी करें ।उसे सेवा मानकर ही करें। निः स्वार्थ होकर करें, यही है प्रेम का रूप ऐसा निःस्वार्थ प्रेम भाव श्रीराधा रानी में ही दिखाई देता है….! जिन्होनें अपनें सुख को कभी महत्व नहीं दिया ।सदैव महत्व देती रही अपने प्रियतम के सुख को। ये भाव ! कृष्ण को जो अच्छा लगे।अपनें आपको तो मिटा ही देते हैं ।
यही भाव कुछ हम भी महसूस करते है कभी भी जय श्री कृषण नही बोलते । हमें भी अपने कृष्ण को सुख देने में आनंद आता हैं ।इसलिए जय श्रीराधे बोलते हैं राधा ना परम् सुखदाई-जाने कैसा रंग चढ़ा तेरे प्यार का सांवरे, लाख कोशिशों पर भी छूटता नहीं। || जय जय श्रीरा
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