गुरु दक्षिणा सुखी पत्तियाँ

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एक बार एक शिष्य ने विनम्रतापूर्वक अपने गुरु जी से पूछा – ‘गुरु जी,कुछ लोग कहते हैं कि जीवन एक संघर्ष है, कुछ अन्य कहते हैं कि जीवन एक खेल है और कुछ जीवन को एक उत्सव की संज्ञा देते हैं । इनमें कौन सही है?’

गुरु जी ने तत्काल बड़े ही धैर्यपूर्वक उत्तर दिया – ‘पुत्र, जिन्हें गुरु नहीं मिला उनके लिए जीवन एक संघर्ष है; जिन्हें गुरु मिल गया उनका जीवन एक खेल है और जो लोग गुरु द्वारा बताये गए मार्ग पर चलने लगते हैं, मात्र वे ही जीवन को एक उत्सव का नाम देने का साहस जुटा पाते हैं ।’ यह उत्तर सुनने के बाद भी शिष्य पूरी तरह से संतुष्ट न था। गुरु जी को इसका आभास हो गया । वे कहने लगे – ‘लो, तुम्हें इसी सन्दर्भ में एक कहानी सुनाता हूँ। ध्यान से सुनोगे तो स्वयं ही अपने प्रश्न का उत्तर पा सकोगे ।’

उन्होंने जो कहानी सुनाई,वह इस प्रकार थी –

एक बार की बात है कि किसी गुरुकुल में तीन शिष्यों नें अपना अध्ययन सम्पूर्ण करने पर अपने गुरु जी से यह बताने के लिए विनती की कि उन्हें गुरु – दक्षिणा में, उनसे क्या चाहिए। गुरु जी पहले तो मंद-मंद मुस्कराये और फिर बड़े स्नेहपूर्वक कहने लगे – ‘मुझे तुमसे गुरुदक्षिणा में एक थैला भर के सूखी पत्तियां चाहिए,ला सकोगे?’ वे तीनों मन ही मन बहुत प्रसन्न हुए क्योंकि उन्हें लगा कि वे बड़ी आसानी से अपने गुरु जी की इच्छा पूरी कर सकेंगे । सूखी पत्तियाँ तो जंगल में सर्वत्र बिखरी ही रहती हैं। वे उत्साहपूर्वक एक ही स्वर में बोले – ‘जी गुरु जी, जैसी आपकी आज्ञा।’

अब वे तीनों शिष्य चलते-चलते एक नजदीक के जंगल में पहुँच चुके थे । लेकिन यह देखकर कि वहाँ पर तो सूखी पत्तियाँ केवल एक मुट्ठी भर ही थीं ,उनके आश्चर्य का ठिकाना न रहा । वे सोच में पड़ गये कि आखिर जंगल से कौन सूखी पत्तियां उठा कर ले गया होगा? इतने में ही उन्हें दूर से आता हुआ कोई किसान दिखाई दिया ।वे उसके पास पहुँच कर, उससे विनम्रतापूर्वक याचना करने लगे कि वह उन्हें केवल एक थैला भर सूखी पत्तियां दे दे । अब उस किसान ने उनसे क्षमायाचना करते हुए, उन्हें यह बताया कि वह उनकी मदद नहीं कर सकता क्योंकि उसने सूखी पत्तियों का ईंधन के रूप में पहले ही उपयोग कर लिया था ।

अब, वे तीनों, पास में ही बसे एक गाँव की ओर इस आशा से बढ़ने लगे थे कि हो सकता है वहाँ उस गाँव में उनकी कोई सहायता कर सके । वहाँ पहुँच कर उन्होंने जब एक व्यापारी को देखा तो बड़ी उम्मीद से उससे एक थैला भर सूखी पत्तियां देने के लिए प्रार्थना करने लगे लेकिन उन्हें फिर से एकबार निराशा ही हाथ आई क्योंकि उस व्यापारी ने तो, पहले ही, कुछ पैसे कमाने के लिए सूखी पत्तियों के दोने बनाकर बेच दिए थे लेकिन उस व्यापारी ने उदारता दिखाते हुए उन्हें एक बूढी माँ का पता बताया जो सूखी पत्तियां एकत्रित किया करती थी। पर भाग्य ने यहाँ पर भी उनका साथ नहीं दिया क्योंकि वह बूढी माँ तो उन पत्तियों को अलग-अलग करके कई प्रकार की ओषधियाँ बनाया करती थी।

अब निराश होकर वे तीनों खाली हाथ ही गुरुकुल लौट गये। गुरु जी ने उन्हें देखते ही स्नेहपूर्वक पूछा – ‘पुत्रो,ले आये गुरुदक्षिणा ?’ तीनों ने सर झुका लिया। गुरू जी द्वारा दोबारा पूछे जाने पर उनमें से एक शिष्य कहने लगा – ‘गुरुदेव,हम आपकी इच्छा पूरी नहीं कर पाये । हमने सोचा था कि सूखी पत्तियां तो जंगल में सर्वत्र बिखरी ही रहती होंगी लेकिन बड़े ही आश्चर्य की बात है कि लोग उनका भी कितनी तरह से उपयोग करते हैं ।’ गुरु जी फिर पहले ही की तरह मुस्कराते हुए प्रेमपूर्वक बोले – ‘निराश क्यों होते हो ? प्रसन्न हो जाओ और यही ज्ञान कि सूखी पत्तियां भी व्यर्थ नहीं हुआ करतीं बल्कि उनके भी अनेक उपयोग हुआ करते हैं; मुझे गुरुदक्षिणा के रूप में दे दो ।’ तीनों शिष्य गुरु जी को प्रणाम करके खुशी-खुशी अपने-अपने घर की ओर चले गये ।

वह शिष्य जो गुरु जी की कहानी एकाग्रचित्त हो कर सुन रहा था,अचानक बड़े उत्साह से बोला – ‘गुरु जी, अब मुझे अच्छी तरह से ज्ञात हो गया है कि आप क्या कहना चाहते हैं । आप का संकेत, वस्तुतः इसी ओर है न कि जब सर्वत्र सुलभ सूखी पत्तियां भी निरर्थक या बेकार नहीं होती हैं तो फिर हम कैसे, किसी भी वस्तु या व्यक्ति को छोटा और महत्त्वहीन मान कर उसका तिरस्कार कर सकते हैं? चींटी से लेकर हाथी तक और सुई से लेकर तलवार तक-सभी का अपना-अपना महत्त्व होता है ।’ गुरु जी भी तुरंत ही बोले – ‘हाँ, पुत्र,मेरे कहने का भी यही तात्पर्य है कि हम जब भी किसी से मिलें तो उसे यथायोग्य मान देने का भरसक प्रयास करें ताकि आपस में स्नेह, सद्भावना, सहानुभूति एवं सहिष्णुता का विस्तार होता रहे और हमारा जीवन संघर्ष के बजाय उत्सव बन सके । दूसरे, यदि जीवन को एक खेल ही माना जाए तो बेहतर यही होगा कि हम निर्विक्षेप, स्वस्थ एवं शांत प्रतियोगिता में ही भाग लें और अपने निष्पादन तथा निर्माण को ऊंचाई के शिखर पर ले जाने का अथक प्रयास करें ।’ अब शिष्य पूरी तरह से संतुष्ट था ।



Once a disciple humbly asked his Guru ji – ‘Guruji, some people say that life is a struggle, some others say that life is a game and some call life a celebration. Who among them is right?’

Guruji immediately replied very patiently – ‘Son, for those who have not found a Guru, life is a struggle; Those who have found a Guru, their life is a game and those who follow the path shown by the Guru, only they can muster the courage to name life a festival.’ Even after hearing this answer, the disciple is completely satisfied. Wasn’t Guru ji realized this. They started saying – ‘Take, let me tell you a story in this context. If you listen carefully, you will be able to find the answer to your own question.

The story he told was as follows –

Once upon a time, three disciples in a Gurukul, after completing their studies, begged their Guru Ji to tell them what they wanted from them in Guru-Dakshina. Guruji at first smiled softly and then started saying very affectionately – ‘I want a bag full of dry leaves for Gurudakshina from you, can you? You can fulfill your wish. Dry leaves are scattered everywhere in the forest. He enthusiastically said in one voice – ‘Ji Guru ji, as you ordered.’

Now those three disciples had reached a nearby forest while walking. But seeing that there were only a handful of dry leaves, he was astonished. They wondered, who must have picked up the dry leaves from the forest? Just then, they saw a farmer coming from afar. They reached him, humbly begging him to give him only a bag full of dry leaves. Now the farmer apologized to him, telling him that he could not help him as he had already used the dry leaves as fuel.

Now, all three of them started moving towards a nearby village with the hope that someone in that village might be able to help them there. On reaching there, when he saw a merchant, he started praying with great expectation to give him a bag full of dry leaves, but once again he was disappointed because that merchant had already bought dry leaves to earn some money. They were made and sold, but the merchant, showing generosity, told them the address of an old mother who used to collect dry leaves. But fate did not favor her here as well because that old mother used to separate those leaves and make many types of medicines.

Now disappointed, all three of them returned to the Gurukul empty handed. On seeing them, Guruji asked affectionately – ‘Sons, have you brought Gurudakshina?’ All three bowed their heads. On being asked again by Guru ji, one of the disciples started saying – ‘Gurudev, we could not fulfill your wish. We thought that dry leaves must be scattered everywhere in the forest, but it is astonishing how many people use them too. ? Be happy and the knowledge that even dry leaves are not in vain, but they also have many uses; Give it to me as Gurudakshina. The three disciples happily went towards their respective homes after paying obeisance to the Guru ji.

The disciple who was listening to Guruji’s story with concentration, suddenly said with great enthusiasm – ‘Guruji, now I am well aware of what you want to say. Your point is, in fact, in this direction, not that when even dry leaves available everywhere are not useless or useless, then how can we despise any thing or person as small and unimportant? From ant to elephant and from needle to sword – all have their own importance. Try our best to give due respect so that affection, goodwill, sympathy and tolerance continue to expand among ourselves and our life can become a celebration instead of struggle. Secondly, if life is to be considered as a game, then it is better that we participate in a calm, healthy and calm competition and try tirelessly to take our performance and construction to the pinnacle of height.’ Now the disciple is completely satisfied. was .

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