आज के विचार
(श्री रामराज्याभिषेक के दिन…)
भाग-40
अपने वश करि राखे रामू…
(गो. श्रीतुलसी दास)
आहा ! मेरे आराध्य की भूमि… मेरे लिये ये भूमि सर्वस्व है…
अयोध्या की भूमि…।
आ गये थे मेरे प्रभु श्रीराम अपनी आल्हादिनी और अनुज… साथ में सुग्रीव… अंगद… विभीषण… और मैं… अयोध्या में हम सब आ गये थे…।
“शीघ्र ही राज्याभिषेक की तैयारी हो ” गुरु वशिष्ठ जी ने ये आज्ञा दे दी थी ।
प्रजा के सहित रघुवंश का कोई भी सदस्य ये नही चाहता था… कि प्रभु श्रीराम के राजा बनने में बिलम्ब हो ।
पर सप्त सागर का जल इतनी जल्दी… कल ही कैसे आएगा ?
गुरु वशिष्ठ के सामने ये समस्या आ खड़ी हुयी थी… सप्त सागर के जल से अभिषेक होगा प्रभु का… तब वह रघुकुल के सिंहासन पर बैठेंगे । पर… इतनी जल्दी ?
मुझे ही स्मरण किया था गुरु वशिष्ठ जी ने ।
ये क्या बड़ी बात है !… मैंने हँसते हुए कहा ।
और दो ही घड़ी में… सप्त सागर के जल को ले आया था ।
पूरा रघुकुल का समाज चकित था… पर मैं संकोच से धरती में धँस ही गया था… ये सब प्रभु श्रीराम की ही कृपा से सम्भव हो पाया था ।
सब कुछ समय पर हुआ… सप्त सागर के जल से प्रभु का अभिषेक हुआ था… देवों ने दुन्दुभि बजाई थी… दिव्य सिंहासन पर प्रभु श्रीराम और माता मैथिली विराजमान हुए थे…।
प्रथम तिलक वशिष्ठ जी के द्वारा किया गया था ।
आहा ! मेरे आनन्द का ठिकाना नही…
मैं बारम्बार नाच रहा था… प्रभु को निहारता… फिर वानर स्वभाव वश नाचता… ।
अप्सरायें नाच रही थीं… गन्धर्व उतरे थे स्वर्ग से…
और सब अपनी-अपनी प्रस्तुति दे रहे थे…।
पर मैं अपनी ही धुन में था… नाचे जा रहा था ।
इशारे से प्रभु ने मुझे अपने पास बुलाया…
पहले तो मुझे लगा कि किसी और को बुलाया होगा… मैंने अपने पीछे भी देखा… देवराज इन्द्र खड़े थे… उन्होंने ही मुझे कहा… इतना बड़ा सौभाग्य मेरा नही हो सकता… आप को ही बुला रहे हैं श्री रघुनाथ जी ।
मैं तो तुरन्त चल दिया प्रभु के पास…
सब लोग देख रहे थे मुझे… समस्त देव… समस्त गन्धर्व… मनुष्यों में सभी सर्वश्रेष्ठ मनुष्य वहाँ थे… सब लोगों ने मुझे देखा ।
मैं गया और सीधे प्रभु के चरणों में ही बैठ गया था ।
मैं क्यों ऐसा अवसर चूकता…
पर प्रभु की करुणा का भी कोई पार नही…
उन्होंने अपने दोनों चरण मेरी गोद में रख दिए थे ।
आहा !… बस अब तो इधर-उधर देखने का कोई कारण ही नही था ।
मेरे नेत्रों से आनन्द के अश्रु बहने लगे थे… मैंने अपनी दृष्टि चरण में ही गढ़ा ली थी… मेरे इस सौभाग्य से ईर्ष्या करने वाले भी थे… पर मुझे क्या मतलब… मैं तो बस अपने स्वामी के चरणों का ही चापन करता रहा ।
मुझे पता नही था… माँ मैथिली ने अपने गले से एक हार उतारा और प्रभु के हाथों में दे दिया ।
मैथिली ! आपको अगर ये हार हनुमान को देना है तो स्वयं ही पहना दो… इन्हें अच्छा लगेगा । प्रभु ने माँ से कहा था ।
माँ ने भी आज्ञा का पालन करते हुए… वो हार मेरे गले में डाल दिया…।
पर मुझे कुछ खबर ही नही थी… मेरा पूरा अन्तःकरण तो प्रभु के चरणों में ही लगा हुआ था ।
मेरे गले में जब वह हार आया… तब मैंने हार की ओर देखा ।
उन हार के मोतियों को बड़े ध्यान से देखा… आखिर वानर ही हूँ ना… मोतियों को पलट-पलट कर देखने लगा ।
फिर एक मोती को अपने मुँह में डाल लिया… तोड़ दिया दाँतों से… फिर टूटे हुए मोती को देखने लगा… जब कुछ नही दिखा… तो धरती में फेंक दिया… फिर दूसरी मोती…
पवनपुत्र ! ये क्या कर रहे हो ? विभीषण ने मुझ से कहा ।
देव दुर्लभ हार… अमूल्य हार तुम्हें माँ ने दिया… और तुम तोड़ कर फेंक रहे हो !
विभीषण जी ! मेरे लिए तो दो ही वस्तु अमूल्य हैं… एक जिनमें प्रभु श्रीसीताराम की छवि हो… और दूसरी जिसमें प्रभु का नाम हो ।
ये दो ही तो चिन्मय हैं…।
हँसे थे विभीषण… अगर ये दो वस्तु नही हों किसी में तो ?
तो वह वस्तु मेरे लिए व्यर्थ है… त्याज्य है ! मैंने भरी सभा में कह दिया था ।
तो क्या इतने बड़े देह को लेकर आप चलते हो… इस देह में है प्रभु श्री सीता राम जी की छवि !
विभीषण ने कह तो दिया था व्यंग में… पर मैंने भी पूर्ण विश्वास से कहा… हाँ अगर इस देह में प्रभु श्री सीता राम की छवि नही है… तो ये भी बेकार है… भार है मेरे लिए ।
तो दिखाइए… है कि नही इसमें छवि प्रभु की ?
विभीषण के कहने पर… मैं खड़ा हो गया…
हाँ… ये अच्छी बात है कि मैं देख तो लूँ… कि इस देह में छवि है प्रभु की… अगर नही है तो क्यों ढ़ोंऊ इस देह को ?
तभी मैंने अपनी छाती चीर दी थी… भरी सभा में…
सब लोग देख रहे थे…
रक्त बहा… जब मैंने अपनी छाती चीरी…
आहा ! जो झाँकी बाहर सिंहासन पर थी… वही मेरी छाती में दिखाई दी…
पागल है अयोध्या की जनता…
मेरे नाम का जय जय कार करने लगी… मेरे स्वामी के सामने ही… मुझे बहुत संकोच हो रहा था… स्वामी के सामने एक सेवक की जय जयकार…!
मेरे सिर पर हाथ रख दिया था… दोनों ने…
सिया राम… के वरद हस्त … करुणापूर्ण वरद हस्त…
मैं धन्य हो गया था ।
पर हनुमान ! ये हार लगा लो… क्या पता तुम्हारे देह के स्पर्श से ही इसमें भी चैतन्यता आ जाये…
मैंने अपना शीश झुका दिया था… प्रभु ने वो हार फिर मेरे गले में डाल दिया… मैंने अपना शीश झुकाये रखा… प्रभु के कोमल हाथों का… और माँ मैथिली के स्नेह पूर्ण हाथों का स्पर्श मुझे जो मिल रहा था ।
भरत भैया ! मैं क्या हूँ ? एक वानर ! पर प्रभु ने मुझे स्वीकारा तो मैं आज महावीर बन गया… ये महिमा मेरी कहाँ… मेरे स्वामी श्रीराम की ही तो है ना ?
आप हनुमान हैं… अपने मान सम्मान… अहंकार… सबका आपने नाश किया है… अपने आपको मिटा दिया है… बस रह गए हैं प्रभु श्रीसीता राम !
भरत जी ने ये कहते हुए हनुमान जी को प्रणाम किया था ।
तभी तो आपने प्रभु श्रीराम को अपने वश में कर लिया ।
शेष चर्चा कल…
जय हनुमंत सन्त हितकारी…
thoughts of the day
(On the day of Shri Ram’s coronation…) Part-40
Keep Ramu under your control… (G. Sritulsi Das)
Ouch! The land of my worship… This land is everything for me…
The land of Ayodhya….
My Lord Shri Ram had come with his Alhadini and Anuj… along with Sugriva… Angad… Vibhishan… and I… we all had come to Ayodhya….
“Preparations for the coronation should be made soon” Guru Vashishtha had given this order.
No member of the Raghuvansh, including the subjects, wanted that there should be a delay in becoming the king of Lord Shri Ram.
But how will the water of the seven oceans come so soon… just tomorrow?
Guru Vashishtha faced this problem… God will be anointed with the water of the seven oceans… then he will sit on the throne of Raghukul. But… so soon?
I was remembered only by Guru Vashishtha ji.
What a big deal!… I said laughing.
And within two hours… had brought the water of the seven oceans.
The whole community of Raghukul was astonished… But I had sunk into the earth with hesitation… All this was possible only by the grace of Lord Shri Ram.
Everything happened on time… The Lord was anointed with the waters of the seven oceans… The gods played the dundubhi… Lord Shri Ram and Mother Maithili were seated on the divine throne….
The first tilak was done by Vashishtha ji.
Today ! My happiness knows no bounds…
I was dancing again and again… looking at the Lord… then danced under the control of the monkey nature….
Apsaras were dancing… Gandharvas came down from heaven…
And everyone was giving their own presentation….
But I was in my own tune… I was going to dance.
With a gesture, the Lord called me to himself…
At first I thought that someone else must have been called… I looked behind me too… Devraj Indra was standing… He only told me… I cannot have such a great fortune… Shri Raghunath ji is calling you.
I immediately went to the Lord…
Everyone was looking at me…all the devas…all the gandharvas…all the best of men were there…all the people saw me.
I went and sat directly at the feet of the Lord.
Why would I miss such an opportunity…
But there is no limit to the mercy of the Lord.
He had placed both his feet on my lap.
Ouch!… Now there was no reason to look here and there.
Tears of joy started flowing from my eyes… I fixed my vision on the feet… There were people who were jealous of my good fortune… but what do I mean… I just kept worshiping the feet of my Lord.
I didn’t know… Mother Maithili took off a necklace from her neck and gave it in the hands of the Lord.
Maithili ! If you want to give this necklace to Hanuman, wear it yourself… He will like it. The Lord told the mother.
Mother also obeyed… put that necklace around my neck….
But I was not aware of anything… My whole heart was engaged in the feet of the Lord.
When that necklace came around my neck… then I looked at the necklace.
Looked at the pearls of that necklace very carefully… After all I am a monkey… Started looking at the pearls from side to side.
Then he put a pearl in his mouth… broke it with his teeth… then started looking at the broken pearl… when nothing was visible… he threw it on the ground… then another pearl…
Son of wind! What is this you are doing ? Vibhishan told me.
God rare necklace… mother gave you priceless necklace… and you are breaking and throwing it away!
Vibhishan ji! For me only two things are priceless… one which has the image of Lord Shri Sitaram… and the other which has the name of the Lord.
Only these two are Chinmaya.
Vibhishan had laughed… If these two things are not there in someone then?
So that thing is useless for me… it is discarded! I had said this in a full gathering.
So do you walk with such a big body… Lord Shri Sita Ram ji’s image is in this body!
Vibhishan had said it in sarcasm… but I also said with full confidence… yes, if there is no image of Lord Shri Sita Ram in this body… then it is also useless… it is a burden for me.
So show… is there an image of God in it or not?
At the behest of Vibhishan… I stood up…
Yes… It is a good thing that I should see… that there is an image of GOD in this body… If it is not there then why should I carry this body?
That’s why I had ripped my chest… in a crowded gathering…
Everyone was watching…
Blood flowed… when I tore my chest…
Ouch! The tableau which was outside on the throne… the same appeared in my chest…
The people of Ayodhya are mad…
The car started chanting my name… in front of my lord… I was very hesitant… hailing a servant in front of the lord…!
They put their hands on my head… both of them…
Siya Ram… ke varad hast… karunapurna varad hast.
I was blessed.
But Hanuman! Wear this necklace… Who knows, just by the touch of your body consciousness will come in it too…
I had bowed my head… the Lord then put that necklace around my neck… I kept my head bowed… the soft hands of the Lord… and the touch of Mother Maithili’s loving hands which I was getting.
Brother Bharat! What am I ? A monkey! But when the Lord accepted me, I became a Mahavir today… where is this glory of mine… it is only of my Lord Shriram, isn’t it?
You are Hanuman… You have destroyed your respect… Ego… You have destroyed everyone… You have destroyed yourself… Only Lord Sree Sita Ram is left!
Saying this, Bharat ji bowed down to Hanuman ji.
That’s why you took Lord Shri Ram under your control.
Rest of the discussion tomorrow…
Hail Hanumant Saint Benefactor…