बेटी ने वचन निभाया


रामशरण जी और दयाशंकर बचपन के दोस्त थे। कृष्ण सुदामा जैसी दोस्ती थी उनकी।रामशरण जी बहुत बड़े जमींदार,कई कारखाने,जमीन के मालिक और दयाशंकर साधारण से डाकिया।दोनों में अगाध स्नेह था।रामशरण जी की पत्नी सुधा बचपन से ही अपनी बेटी का ब्याह,दयाशंकर जी के बेटे से करना चाहतीं थीं।दोनों की पत्नियां भी सहेली थीं।बीमारी के चलते दयाशंकर जी की पत्नी प्रभा की असमय मृत्यु हो गई।पत्नी के इलाज के लिए दयाशंकर जी को अपना घर,छोटी सी जो जमीन थी,सब बेचनी पड़ी।घर की माली हालत बहुत खराब होती जा रही थी।अपने बेटे को पढ़ा -लिखा कर गांव के स्कूल में टीचर बना दिया था।इधर रामशरण जी के दोनों बेटों ने पिता की संपत्ति पर कई अवैध धंधे खड़े कर पैसा कमाने में लग गए। रामशरण जी अब धनाढ्य हो चुके थे।पत्नी सुधा जब बिटिया मालिनी की शादी की बात छेड़ती, दयाशंकर जी के बेटे के साथ, आगबबूला हो उठते वे।
शनिवार को सुधा को बुलाकर कहा उन्होंने “देखो जी,पड़ोस के जमींदार आ रहें हैं कल अपने बेटे के साथ मालिनी को देखने।तुम उसे अच्छे से तैयार कर देना।”सुधा जी भौंचक्की रह गई।फ़ौरन पूछा पति से”ये कैसी बात कर रहें हैं आप?मालिनी की शादी तो हमने बचपन में ही आपके दोस्त के बेटे से तय कर दी थी।अब कोई और क्यों आ रहा उसे देखने?”
“देखो सुधा तब की बात और थी।उसका ख़ुद का घर था,जमीन थी।बेटा टीचर‌ ही तो है,कितना कमाता होगा।हमारी बेटी राजकुमारी की तरह पली है।वहां एक दिन भी नहीं टिक पाएगी।”
मालिनी सुन चुकी थी सब।सबसे पहले वह जयंत(दयाशंकर )से बात करना चाहती थी।उससे मिलकर बात करके उसने जीवन में पहली बार अपने पिता से सवाल किया”बाबूजी,मेरी और जयंत की शादी का वचन आप दोनों ने जयंत के परिवार को दिया था।मैंने भी जयंत को ही अपना पति माना है।मैं किसी और से शादी नहीं कर सकती।मुझे माफ़ कीजियेगा “
रामशरण जी को यह उम्मीद नहीं थी अपनी बेटी से। साफ़ -साफ शब्दों में कह दिया कि अगर उनकी मर्जी के खिलाफ जयंत से शादी करेगी, तो उसे उनकी संपत्ति से कुछ भी नहीं मिलेगा।मालिनी ने भी कह दिया “मुझे कुछ नहीं चाहिए बाबूजी।”
अगले दिन जयंत के साथ मालिनी ने अपनी मां की उपस्थिति में शादी कर ली।पिता से आशीर्वाद लेने पहुंची तो पिता दूसरी तरफ मुंह करके खड़े हो गए और बोले”आज से मेरी बेटी मर गई।मेरे केवल दो बैठें हैं।इतने बड़े जमींदार की बेटी होकर एक साधारण से लड़के से शादी करने से पहले डूब मरना था तुझे।”
मालिनी मां और जयंत के पिता का आशीर्वाद लेकर ने घर में आ गई।उसने जयंत को आगे और पढ़ने के लिए प्रोत्साहित किया। देखते-देखते जयंत आयकर अधिकारी बन गया।मालिनी स्कूल में पढ़ाने लगी। बच्चों के लिए ट्रेनिंग स्कूल खोल‌लिया सिलाई कढ़ाई का।दो साल बीत गए।जयंत शहर में रहता‌था। छुट्टियों में आता था‌ गांव।मालिनी उसके पिता का बहुत ख्याल रखती थी।इस बार आकर जयंत बहुत परेशान लगा मालिनी को।मालिनी ने पूछा तो बताया उसने”बाबूजी के घर आयकर‌विभाग का छापा पड़ने वाला है।मैं ही निरीक्षक रहूंगा।जीवन भर कभी उनके सामने अपना सर नहीं उठा सकता।रेड कैसे मार पाऊंगा मैं?”
मालिनी ने हिम्मत दी उसे।आज रामशरण जी के घर रेड पड़ रही थी। उन्होंने सोचा लेन-देन कर मामले को निपटा लेंगे।पर ये बात जयंत को पसंद नहीं आई। रामशरण जी के दोनों बेटों की अवैध कमाई ज़ब्त हुई।कारखानों में दवाइयों के नाम पर जहरीली शराब बनाई जा रही थी। रामशरण जी की सारी संपत्ति सील हो गई।
दोनों बेटे जेल जा रहे थे।घर नीलाम करना पड़ा।तब सुधा जी बोल ही दीं आखिर”मैं ना कहती थी। अनुचित तरीके से कमाई करने से वह भोग में नहीं लगती।घर रह नहीं गया। आस-पास वाले भी घृणित नज़रों से देखने लगे रामशरण जी को।तब मालिनी वहां पहुंच कर अपने माता पिता को अपने घर ले आई,ससुर के कहने पर। रामशरण जी नहीं मान रहे थे तो दयाशंकर जी ने उन्हें दोस्ती की कसम दी।हारकर रामशरण जी सुधा के साथ गए मालिनी की ससुराल।घर छोटा था पर सुंदर तरीके से सजाया हुआ था।वैभव की वस्तुओं की जगह,पुस्तकें,फूलों के गमले, सदस्यों की तस्वीरों से बेहतरीन सजावट की गई थी कमरों की।दयाशंकर जी ने कहा “दोस्त तेरी बेटी तो लक्ष्मी है,आते ही मेरी झोंपड़ी को महल बना दिया।मेरे बेटे को इतना बड़ा अधिकारी बना दिया।”
रामशरण जी को वास्तविकता का बोध हो चुका था।जिस बेटी को एक फूटी कौड़ी नहीं दी उन्होंने,उसने अपनी साधना से पिता को लांछन से बचाया।जयंत कितना ईमानदार बेटा है,और एक मेरे दो नालायक कपूत।मालिनी ने मेरे वचन की लाज रखने जयंत से शादी की।हर खुश हैं,मुझे और क्या चाहिए?वे उठे और दयाशंकर और मालिनी के समक्ष हांथ जोड़कर बोले”मुझे माफ़ कर दो बेटा,मैंने तुम्हें कहा था उस दिन डूब मरने को।डूब तो मुझे मरना चाहिए।अपनी संतानों को सही शिक्षा न दे पाया। अपने मित्र को दिया वचन भुला दिया।दया तो सुदामा बन गया पर मैं कृष्ण कहां बन पाया?मुझे डूब मरना चाहिए।”
“नहीं बाबूजी,दुनिया में इंसान की पहचान संपत्ति से नहीं होती।जयंत की मां ने मेरी मां से मुझे अपनी बहू बनाने का वचन लिया था,आपके सामने।मैं कैसे तोड़ देती उस वचन को।आप पर और मां पर कलंक नहीं लगने दे सकती थी मैं।मुझे भी आप माफ़ कर दीजिए।”

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