गोपियों का प्रेम द्वारका में जब भी गोपियों की बात चलती तो श्रीकृष्ण को रोमांच हो आता। आँसू बहने लगते, वाणी गद
गद हो जाती और वे कुछ बोल नहीं पाते। श्रीकृष्ण की ऐसी दशा देखकर सभी पटरानियों को बड़ा आश्चर्य होता कि हममें ऐसी क्या कमी है और गोपियों में ऐसा क्या गुण है जो श्रीकृष्ण की यह दशा हो जाती है ! क्या नहीं है यहाँ, जो वहाँ था ? भगवान ने इसका उत्तर देने के लिए एक नाटक किया। वे सर्वसमर्थ हैं, कुछ भी बन सकते हैं। वे रोग बन गए और उनका पेट दुखने लगा। सभी रानियों ने काफी दवा की पर श्रीकृष्ण के पेट का दर्द ठीक नहीं हुआ। वैद्यजी बुलाए गए। उन्होंने पूछा, महाराज, क्या पहले भी कभी पेट में दर्द हुआ है और कोई दवा आपने प्रयोग की हो तो बताएँ ? भगवान ने कहा–हाँ, दवा तो मैं जानता हूँ। यदि हमारा कोई प्रेमी अपने चरणों की धूल दे दे तो उस धूल के साथ हम दवा ले लें। रुक्मिणीजी और सत्यभामाजी ने सोचा–चरणों की धूल तो हमारे पास है ही और प्रेमी भी हम हैं ही, पर शास्त्र कहता है कि पति को चरणों की धूल देने पर पाप लगेगा और नरक में जाना पड़ेगा। अत: पाप और नरक के डर से उन्होंने चरणधूलि देने से मना कर दिया। उनको देखकर अन्य सोलह हजार रानियों व द्वारकावासियों ने भी चरणधूलि देने से मना कर दिया। उसी समय नारदजी वहाँ पधारे और बोले–महाराज पेट दुखता है, यह कैसी माया रची है आपने ? भगवान श्रीकृष्ण बोले–दुखता तो बहुत है, तुम कुछ उपाय कर दो, किसी प्रेमी की चरणधूलि ला दो। नारदजी ने सोचा–प्रेमी तो हम भी हैं और हमारे पास भी धूल है पर जब हमसे बड़ा प्रेम का दर्जा रखने वाली रुक्मिणीजी ने ही चरणधूलि नहीं दी तो हम कैसे दे दें ? भगवान श्रीकृष्ण ने कहा–नारद ! जरा व्रज में तो हो आओ। वीणा बजाते हरिगुणगान करते हुए नारदजी व्रज में गोप-गोपियों के बीच जा पहुँचे। सब गोपियों ने नारदजी को घेर कर पूछा–कहाँ से पधारे हैं, महाराज ? जब उनको मालूम हुआ कि द्वारका से आये हैं तो श्रीकृष्ण के समाचार जानने के लिए वे अधीर हो गईं और उन्होंने नारदजी से प्रश्नों की झड़ी लगा दी। गोपियों ने पूछा–हमारे प्राणनाथ प्रसन्न हैं न ? नारदजी ने उत्तर देने के बजाय मुँह बना लिया। गोपियों के प्राण निकलने लगे। वे बोली–महाराज, जल्दी बताइए मामला क्या है ? नारदजी बोले, श्यामसुन्दर का पेट दुखता है, दवा तो बहुत हुई पर कुछ लाभ न हुआ। गोपियों ने पूछा
कोई उपाय ? नारदजी ने कहा, उपाय तो स्वयं श्रीकृष्ण ने बतलाया है। किसी प्रेमी की चरणधूलि मिल जाए तो वह अच्छे हो जायेंगे। श्रीकृष्ण ने कहा था कि गोपियाँ हमारी बड़ी प्रेमिका हैं। गोपियाँ बोली
वे प्रेमी मानते हैं हमको ? तो ले जाइए चरणों की धूल। जितनी चाहिए उतनी ले जाइए। ऐसा कहकर सब गोपियों ने अपने चरण आगे बढ़ा दिए। जितनी मरजी हो बाँध लें महाराज ! नारदजी ने कहा
अरे ! पागल हो गयी हो क्या, क्या कर रही हो तुम ? जानती नहीं किसको धूल दे रही हो तुम, भगवान को
, नरक मिलेगा तुम्हें। गोपियाँ बोली
हम भगवान तो जानती नहीं, वे तो हमारे प्राणनाथ हैं और यदि उनके पेट का दर्द अच्छा होता है तो हमें अनन्तकाल तक नरक में रहना पड़े तो भी हम नरक में रहेंगी, कभी शिकायत नहीं करेंगी। आप धूल ले जाइए और जल्दी जाइए जिससे उनके पेट का दर्द अच्छा हो जाए। प्रेम की ऐसी उज्जवलता जिसमें न पुण्य का लोभ है न पाप की आशंका, न नरक की विभीषिका का डर है, न स्वर्ग का लालच, न सुख की कामना है, न दु:ख का दर्द। ऐसा प्रेम केवल गोपियों में ही दिखाई देता है। गोपियों को निज सुख की कामना रत्ती भर भी नहीं है। नारदजी चकित रह गये। मन-ही-मन सोचने लगे
हम तो झूठे ही प्रेमी बन रहे थे अब तक। इसके बाद गोपियों की चरणधूलि से अपने मस्तक को अभिषिक्त किया और फिर गोपियों की चरणधूलि की पोटली बाँधकर सिर पर रख ली और वीणा बजाते हरिगुण गाते पहुँच गये द्वारका के महल में। नारदजी ने भगवान से कहा
ले आया, महाराज। भगवान ने पूछा
किसने दी ? नारदजी ने कहा
गोपियों ने दी। बहुत समझाया महाराज, पर वे ऐसी पगली हैं कि मानी ही नहीं। कहने लगीं
हमारे अघासुर को तो पहले ही श्यामसुन्दर मार गये, हमारे पास अघ पाप है कहाँ और यदि कोई पाप होगा भी तो अपने प्राणधन के लिए हम नरक में रहने को तैयार हैं। घोर यन्त्रणा सहने को तैयार हैं। पर हमारे श्रीकृष्ण प्रसन्न रहें, इसी में हमारी प्रसन्नता है। हमें आपके ज्ञान
ध्यान की बातें समझ में नहीं आतीं। हम तो प्रेम के उस मधुर आस्वाद को जानती हैं जिसकी एक चितवन से कोटि-कोटि नरकों की यन्त्रणाएँ आनन्द के सागर में बदल जाती हैं। आप ये चरणधूल ले जाइए और श्यामसुन्दर को जल्दी अच्छा कीजिए। भगवान हँसने लगे और अधीर होकर उस पोटली को कभी अपने वक्ष:स्थल पर, कभी आँखों पर, कभी सिर पर रखते हुए प्रेवावेश में निमग्न हो गए और गोपियों की चरणधूलि मस्तक पर लगा ली। सत्यभामाजी, रुक्मिणीजी और अन्य रानियाँ चकित रह गईं। चलते-चलते नारदजी ने पटरानियों से कहा कि हम सब प्रभु को सुख पहुँचाने की कोशिश तो करते हैं, किन्तु हमारा भाव गोपियों के सामने अति तुच्छ है। सचमुच गोपियों का प्रेम ही प्रेम कहलाने योग्य है। पेट तो अच्छा था ही, यह तो श्रीकृष्ण की लीला थी यह अवगत कराने के लिए कि गोपियों के नाम से उनकी आँखों में आँसू क्यों आते हैं।
प्रेम में शास्त्र
गोपियों का प्रेम द्वारका में जब भी गोपियों की बात चलती तो श्रीकृष्ण को रोमांच हो आता। आँसू बहने लगते, वाणी गदगद हो जाती और वे कुछ बोल नहीं पाते। श्रीकृष्ण की ऐसी दशा देखकर सभी पटरानियों को बड़ा आश्चर्य होता कि हममें ऐसी क्या कमी है और गोपियों में ऐसा क्या गुण है जो श्रीकृष्ण की यह दशा हो जाती है ! क्या नहीं है यहाँ, जो वहाँ था ? भगवान ने इसका उत्तर देने के लिए एक नाटक किया। वे सर्वसमर्थ हैं, कुछ भी बन सकते हैं। वे रोग बन गए और उनका पेट दुखने लगा। सभी रानियों ने काफी दवा की पर श्रीकृष्ण के पेट का दर्द ठीक नहीं हुआ। वैद्यजी बुलाए गए। उन्होंने पूछा, महाराज, क्या पहले भी कभी पेट में दर्द हुआ है और कोई दवा आपने प्रयोग की हो तो बताएँ ? भगवान ने कहा-हाँ, दवा तो मैं जानता हूँ। यदि हमारा कोई प्रेमी अपने चरणों की धूल दे दे तो उस धूल के साथ हम दवा ले लें। रुक्मिणीजी और सत्यभामाजी ने सोचा-चरणों की धूल तो हमारे पास है ही और प्रेमी भी हम हैं ही, पर शास्त्र कहता है कि पति को चरणों की धूल देने पर पाप लगेगा और नरक में जाना पड़ेगा। अत: पाप और नरक के डर से उन्होंने चरणधूलि देने से मना कर दिया। उनको देखकर अन्य सोलह हजार रानियों व द्वारकावासियों ने भी चरणधूलि देने से मना कर दिया। उसी समय नारदजी वहाँ पधारे और बोले-महाराज पेट दुखता है, यह कैसी माया रची है आपने ? भगवान श्रीकृष्ण बोले-दुखता तो बहुत है, तुम कुछ उपाय कर दो, किसी प्रेमी की चरणधूलि ला दो। नारदजी ने सोचा-प्रेमी तो हम भी हैं और हमारे पास भी धूल है पर जब हमसे बड़ा प्रेम का दर्जा रखने वाली रुक्मिणीजी ने ही चरणधूलि नहीं दी तो हम कैसे दे दें ? भगवान श्रीकृष्ण ने कहा-नारद ! जरा व्रज में तो हो आओ। वीणा बजाते हरिगुणगान करते हुए नारदजी व्रज में गोप-गोपियों के बीच जा पहुँचे। सब गोपियों ने नारदजी को घेर कर पूछा-कहाँ से पधारे हैं, महाराज ? जब उनको मालूम हुआ कि द्वारका से आये हैं तो श्रीकृष्ण के समाचार जानने के लिए वे अधीर हो गईं और उन्होंने नारदजी से प्रश्नों की झड़ी लगा दी। गोपियों ने पूछा-हमारे प्राणनाथ प्रसन्न हैं न ? नारदजी ने उत्तर देने के बजाय मुँह बना लिया। गोपियों के प्राण निकलने लगे। वे बोली-महाराज, जल्दी बताइए मामला क्या है ? नारदजी बोले, श्यामसुन्दर का पेट दुखता है, दवा तो बहुत हुई पर कुछ लाभ न हुआ। गोपियों ने पूछा कोई उपाय ? नारदजी ने कहा, उपाय तो स्वयं श्रीकृष्ण ने बतलाया है। किसी प्रेमी की चरणधूलि मिल जाए तो वह अच्छे हो जायेंगे। श्रीकृष्ण ने कहा था कि गोपियाँ हमारी बड़ी प्रेमिका हैं। गोपियाँ बोली वे प्रेमी मानते हैं हमको ? तो ले जाइए चरणों की धूल। जितनी चाहिए उतनी ले जाइए। ऐसा कहकर सब गोपियों ने अपने चरण आगे बढ़ा दिए। जितनी मरजी हो बाँध लें महाराज ! नारदजी ने कहा अरे ! पागल हो गयी हो क्या, क्या कर रही हो तुम ? जानती नहीं किसको धूल दे रही हो तुम, भगवान को, नरक मिलेगा तुम्हें। गोपियाँ बोली हम भगवान तो जानती नहीं, वे तो हमारे प्राणनाथ हैं और यदि उनके पेट का दर्द अच्छा होता है तो हमें अनन्तकाल तक नरक में रहना पड़े तो भी हम नरक में रहेंगी, कभी शिकायत नहीं करेंगी। आप धूल ले जाइए और जल्दी जाइए जिससे उनके पेट का दर्द अच्छा हो जाए। प्रेम की ऐसी उज्जवलता जिसमें न पुण्य का लोभ है न पाप की आशंका, न नरक की विभीषिका का डर है, न स्वर्ग का लालच, न सुख की कामना है, न दु:ख का दर्द। ऐसा प्रेम केवल गोपियों में ही दिखाई देता है। गोपियों को निज सुख की कामना रत्ती भर भी नहीं है। नारदजी चकित रह गये। मन-ही-मन सोचने लगे हम तो झूठे ही प्रेमी बन रहे थे अब तक। इसके बाद गोपियों की चरणधूलि से अपने मस्तक को अभिषिक्त किया और फिर गोपियों की चरणधूलि की पोटली बाँधकर सिर पर रख ली और वीणा बजाते हरिगुण गाते पहुँच गये द्वारका के महल में। नारदजी ने भगवान से कहा ले आया, महाराज। भगवान ने पूछा किसने दी ? नारदजी ने कहा गोपियों ने दी। बहुत समझाया महाराज, पर वे ऐसी पगली हैं कि मानी ही नहीं। कहने लगीं हमारे अघासुर को तो पहले ही श्यामसुन्दर मार गये, हमारे पास अघ पाप है कहाँ और यदि कोई पाप होगा भी तो अपने प्राणधन के लिए हम नरक में रहने को तैयार हैं। घोर यन्त्रणा सहने को तैयार हैं। पर हमारे श्रीकृष्ण प्रसन्न रहें, इसी में हमारी प्रसन्नता है। हमें आपके ज्ञान ध्यान की बातें समझ में नहीं आतीं। हम तो प्रेम के उस मधुर आस्वाद को जानती हैं जिसकी एक चितवन से कोटि-कोटि नरकों की यन्त्रणाएँ आनन्द के सागर में बदल जाती हैं। आप ये चरणधूल ले जाइए और श्यामसुन्दर को जल्दी अच्छा कीजिए। भगवान हँसने लगे और अधीर होकर उस पोटली को कभी अपने वक्ष:स्थल पर, कभी आँखों पर, कभी सिर पर रखते हुए प्रेवावेश में निमग्न हो गए और गोपियों की चरणधूलि मस्तक पर लगा ली। सत्यभामाजी, रुक्मिणीजी और अन्य रानियाँ चकित रह गईं। चलते-चलते नारदजी ने पटरानियों से कहा कि हम सब प्रभु को सुख पहुँचाने की कोशिश तो करते हैं, किन्तु हमारा भाव गोपियों के सामने अति तुच्छ है। सचमुच गोपियों का प्रेम ही प्रेम कहलाने योग्य है। पेट तो अच्छा था ही, यह तो श्रीकृष्ण की लीला थी यह अवगत कराने के लिए कि गोपियों के नाम से उनकी आँखों में आँसू क्यों आते हैं। प्रेम में शास्त्र