जय श्री सीताराम जी की
आप सभी श्रीसीतारामजीके भक्तों को प्रणाम
श्री रामचरित मानस अयोध्या काण्ड
छन्द :
अवगाहि सोक समुद्र सोचहिं
नारि नर ब्याकुल महा।
दै दोष सकल सरोष बोलहिं
बाम बिधि कीन्हो कहा॥
सुर सिद्ध तापस जोगिजन मुनि
देखि दसा बिदेह की।
तुलसी न समरथु कोउ जो तरि
सकै सरित सनेह की॥
भावार्थ:-शोक समुद्र में डुबकी लगाते हुए सभी स्त्री-पुरुष महान व्याकुल होकर सोच (चिंता) कर रहे हैं। वे सब विधाता को दोष देते हुए क्रोधयुक्त होकर कह रहे हैं कि प्रतिकूल विधाता ने यह क्या किया? तुलसीदासजी कहते हैं कि देवता, सिद्ध, तपस्वी, योगी और मुनिगणों में कोई भी समर्थ नहीं है, जो उस समय विदेह (जनकराज) की दशा देखकर प्रेम की नदी को पार कर सके (प्रेम में मग्न हुए बिना रह सके)।
सोरठा :
किए अमित उपदेस
जहँ तहँ लोगन्ह मुनिबरन्ह।
धीरजु धरिअ नरेस
कहेउ बसिष्ठ बिदेह सन॥276
भावार्थ:-जहाँ-तहाँ श्रेष्ठ मुनियों ने लोगों को अपरिमित उपदेश दिए और वशिष्ठजी ने विदेह (जनकजी) से कहा- हे राजन्! आप धैर्य धारण कीजिए॥276॥
चौपाई :
जासु ग्यान रबि भव निसि नासा।
बचन किरन मुनि कमल बिकासा॥
तेहि कि मोह ममता निअराई।
यह सिय राम सनेह बड़ाई॥1॥
भावार्थ:-जिन राजा जनक का ज्ञान रूपी सूर्य भव (आवागमन) रूपी रात्रि का नाश कर देता है और जिनकी वचन रूपी किरणें मुनि रूपी कमलों को खिला देती हैं (आनंदित करती हैं), क्या मोह और ममता उनके निकट भी आ सकते हैं? यह तो श्री सीता-रामजी के प्रेम की महिमा है! (अर्थात राजा जनक की यह दशा श्री सीता-रामजी के अलौकिक प्रेम के कारण हुई, लौकिक मोह-ममता के कारण नहीं। जो लौकिक मोह-ममता को पार कर चुके हैं, उन पर भी श्री सीता-रामजी का प्रेम अपना प्रभाव दिखाए बिना नहीं रहता)॥1॥
बिषई साधक सिद्ध सयाने।
त्रिबिध जीव जग बेद बखाने॥
राम सनेह सरस मन जासू।
साधु सभाँ बड़ आदर तासू॥2॥
भावार्थ:-विषयी, साधक और ज्ञानवान सिद्ध पुरुष- जगत में तीन प्रकार के जीव वेदों ने बताए हैं। इन तीनों में जिसका चित्त श्री रामजी के स्नेह से सरस (सराबोर) रहता है, साधुओं की सभा में उसी का बड़ा आदर होता है॥2॥
सोह न राम पेम बिनु ग्यानू।
करनधार बिनु जिमि जलजानू॥
मुनि बहुबिधि बिदेहु समुझाए।
राम घाट सब लोग नहाए॥3॥
भावार्थ:-श्री रामजी के प्रेम के बिना ज्ञान शोभा नहीं देता, जैसे कर्णधार के बिना जहाज। वशिष्ठजी ने विदेहराज (जनकजी) को बहुत प्रकार से समझाया। तदनंतर सब लोगों ने श्री रामजी के घाट पर स्नान किया॥3॥
सकल सोक संकुल नर नारी।
सो बासरु बीतेउ बिनु बारी॥
पसु खग मृगन्ह न कीन्ह अहारू।
प्रिय परिजन कर कौन बिचारू॥4॥
भावार्थ:-स्त्री-पुरुष सब शोक से पूर्ण थे। वह दिन बिना ही जल के बीत गया (भोजन की बात तो दूर रही, किसी ने जल तक नहीं पिया)। पशु-पक्षी और हिरनों तक ने कुछ आहार नहीं किया। तब प्रियजनों एवं कुटुम्बियों का तो विचार ही क्या किया जाए?॥4॥
दोहा :
दोउ समाज निमिराजु
रघुराजु नहाने प्रात।
बैठे सब बट बिटप तर
मन मलीन कृस गात॥277॥
भावार्थ:- निमिराज जनकजी और रघुराज रामचन्द्रजी तथा दोनों ओर के समाज ने दूसरे दिन सबेरे स्नान किया और सब बड़ के वृक्ष के नीचे जा बैठे। सबके मन उदास और शरीर दुबले हैं॥277॥
चौपाई :
जे महिसुर दसरथ पुर बासी।
जे मिथिलापति नगर निवासी॥
हंस बंस गुर जनक पुरोधा।
जिन्ह जग मगु परमारथु सोधा॥1॥
भावार्थ:-जो दशरथजी की नगरी अयोध्या के रहने वाले और जो मिथिलापति जनकजी के नगर जनकपुर के रहने वाले ब्राह्मण थे तथा सूर्यवंश के गुरु वशिष्ठजी तथा जनकजी के पुरोहित शतानंदजी, जिन्होंने सांसारिक अभ्युदय का मार्ग तथा परमार्थ का मार्ग छान डाला था,॥1॥
लगे कहन उपदेस अनेका।
सहित धरम नय बिरति बिबेका॥
कौसिक कहि कहि कथा पुरानीं।
समुझाई सब सभा सुबानीं॥2॥
भावार्थ:-वे सब धर्म, नीति वैराग्य तथा विवेकयुक्त अनेकों उपदेश देने लगे। विश्वामित्रजी ने पुरानी कथाएँ (इतिहास) कह-कहकर सारी सभा को सुंदर वाणी से समझाया॥2॥
तब रघुनाथ कौसिकहि कहेऊ।
नाथ कालि जल बिनु सुब रहेऊ॥
मुनि कह उचित कहत रघुराई।
गयउ बीति दिन पहर अढ़ाई॥3॥
भावार्थ:-तब श्री रघुनाथजी ने विश्वामित्रजी से कहा कि हे नाथ! कल सब लोग बिना जल पिए ही रह गए थे। (अब कुछ आहार करना चाहिए)। विश्वामित्रजी ने कहा कि श्री रघुनाथजी उचित ही कह रहे हैं। ढाई पहर दिन (आज भी) बीत गया॥3॥
रिषि रुख लखि कह तेरहुतिराजू।
इहाँ उचित नहिं असन अनाजू॥
कहा भूप भल सबहि सोहाना।
पाइ रजायसु चले नहाना॥4॥
भावार्थ:-विश्वामित्रजी का रुख देखकर तिरहुत राज जनकजी ने कहा- यहाँ अन्न खाना उचित नहीं है। राजा का सुंदर कथन सबके मन को अच्छा लगा। सब आज्ञा पाकर नहाने चले॥4॥
जय श्री सीताराम जी की