जननी,जनक,बन्धु,सुत,दारा…..तन,धन,भवन, सुह्रद,परिवारा…..सबके ममता ताग बटोरी…मम पद मनहि बाँधि बर डोरि…..
क्रमशः से आगे……..
सन्त जन कहते है कि शरीर के पति के साथ शरीर के सम्बन्ध निभाये जाते है और प्राणों के पति के साथ आत्मा के सम्बन्ध निभाये जाते है इसी प्रकार शरीर के हर एक सम्बन्धी से केवल शरीर तक सीमित रहते हुए ही सम्बन्ध निभाने चाहिए उन सम्बन्धो को निभाने में मन को involve नही करना चाहिए साधक है तो सतत इस विषय मे सावधान रहने का प्रयास अवश्य करना चाहिए कि बड़े से बड़ा सम्बन्धी हो भले शरीर की माँ ही क्यों न हो उनके साथ भी केवल शरीर से लगाव रहे मन उनमे भी नही उलझाना है इसीलिए शायद सुमित्रा जी ने लक्ष्मण जी को कहा था वन के लिए जाते समय कि तात तुम्हारी मात वैदेही सीता या जानकी भी कह सकती थी सुमित्रा जी लेकिन वैदेही कहा…..अर्थात देह वाली माँ तुम्हारी माँ नही है लक्ष्मण तुम्हारी माँ बिना देह वाली है वैदेही…..जो आत्मा के रूप में तुम्हारे अंग संग ही है तुम्हारे प्राणों में बसी हुई है…..और वो माँ ही असली माँ है क्योंकि उसके कारण तुम स्वास भी ले पा रहे हो ठीक इसी प्रकार हर एक सम्बन्ध मन से आत्मा स्वरूप परमात्मा से जोड़े रखना है शरीर से सभी सम्बन्ध बाहर निभाते हुए अर्थात हम शरीर से पति और बच्चो की सेवा में है माता पिता की सेवा में है घर परिवार के कामो में है लेकिन मन हमारा हमारे प्रभु में लगा है ठीक ऐसे जैसे कोई पनिहारिन सर पर एक साथ बहुत से घड़े लेकर चलती है और साथ मे सखी सहेलियों से बोलती चालती इठलाती हँसी मजाक करती आ रही है……लेकिन ध्यान उसका सर पर रखे हुए घड़ो पर है सुरती उसकी वही जुड़ी है सुरती अर्थात मन का वेग मन पूरे वेग के साथ जहां लगा होता है उस कार्य की सफलता निश्चित होती है ये नियम है…..उस पनिहारिन का मन उन घड़ो पर लगा हुआ है कही गिर न जाये बस इसीलिए उसका एक भी घड़ा घर पोहचने तक गिरता नही सही सलामत घर पोहच कर ही वह पनिहारिन अपने हाथ से घड़े उतारती ** है……यही भगवान हमे समझा रहे है कि संसार मे खूब नाच कूद हिलो मिलो आओ जाओ लेकिन केवल और केवल शरीर से मन से मेरा ध्यान बनाये रखो *मम पद मनहि बाँधि बर डोरि* तो तुम सकुशल अंत मे अपने असली घर लौट आओगे……भगवान स्वयम अपने श्री मुख से इस बात की गारंटी दे रहे है और भला भगवान क्या करे विचार करने योग्य विषय है ये कि हम झट भगवान को बुरा भला कहते है भले हमारा मन कोई भी दुखाये संसार मे लेकिन इसमें भगवान ने किया क्या ?वो तो विचार कभी नही करते भगवान ने कहा न…..मन संसार मे लगाओगे तो मन दुखी होगा ही होगा क्योंकि यह संसार शाश्वत रूप से दुःखालय है इसमें से सुख की कामना करना ही दुख को बुलावा देना है बजाय इसके यदि मन मुझमे लगाओगे तो कभी दुखी हो नही सकते और किसी की हैसियत नही जो तुम्हे दुखी कर सके एक भौतिक पिता भी जिसके सर पर होता है उस पुत्र को ढांढस बंधा हुआ रहता है कि पिता है हमारे सर पर हमारे साथ….तो भला जो कोई उस परमपिता से मन को जोड़े रखेगा उसे किसी भी प्रकार का भय कैसे हो सकता है लेकिन ये संसार माया जाल मनुष्य स्वयम ही बना लेता है अपने लिए जैसे मकड़ी जाला बनाती है और उसमें स्वयम ही फ़स जाती है माता पिता भाई बन्धु बहन इनके बाद पति पत्नी बच्चे और फिर आगे इन्ही सब के कारण भगवान कह रहे है तन धन भवन में भी उलझ जाता है जो संसार बना लिया उसके लिए फिर कामना करता है कि खूब धन हो खूब शरीर स्वस्थ रहे धन को कमाने के लिए फिर घर मकान घोड़ा गाड़ी सुख साधन सम्पति ये सब भी आ जाये फिर इन्हें बटोरने में शरीर तो खपाता ही है मन भी इसी में उलझा लेता है और अधिक अपने ही बनाये माया जाल में फंसने लगता है जबकि तन धन भवन आदि सबकी ममता भी मन से मेरे साथ जोड़ ले कि ये तन मेरा नही मैं शरीर नही मैं तो आत्मा हूं परमात्मा का अंश हूं ये धन मेरा नही मेरा धन तो भगवान का नाम है वही मेरे साथ जाएगा जितना एकत्रित करूँगा और ये भवन सुख सम्पत्ति आदि जो भी कुछ है ये तो नश्वर है मै साथ लेकर नही आया तो साथ लेकर कैसे जाऊंगा यदि ऐसा चिंतन करते हुए मनुष्य मन की डोर मेरे साथ जोड़े रखे तब उसे न उसका शरीर दुखी कर सकता है न ही भौतिक सुख साधनों के होने से प्रसन्न न होने से दुखी वह हो सकता है और न ही भौतिक धन एकत्रित करने के लिए वह अन्धाधुन्ध दौड़ सकता है तन धन भवन….. इनकी ममता तभी भगवान से जुड़ सकती है जब मनुष्य के जीवन मे संतोष आ जाये धीरज आ जाये ठहराव आ जाये अन्यथा तो बुरा हाल करके ये ममता तन , धन ,भवन की छोड़ती है…..कैसी कैसी विचित्र योनियों में जीव भटकता है इनमे ममता रखने से केवल सत्संगति सतत सत्संग ही इसके लिए सहाई है……सत्संग से ही मन को प्रभु चरणों मे लगाने का विवेक प्राप्त हो सकता है
Mother, father, brother, son, door….. body, wealth, house, friend, family….. everyone’s affection is tied…
क्रमशः से आगे…….. सन्त जन कहते है कि शरीर के पति के साथ शरीर के सम्बन्ध निभाये जाते है और प्राणों के पति के साथ आत्मा के सम्बन्ध निभाये जाते है इसी प्रकार शरीर के हर एक सम्बन्धी से केवल शरीर तक सीमित रहते हुए ही सम्बन्ध निभाने चाहिए उन सम्बन्धो को निभाने में मन को involve नही करना चाहिए साधक है तो सतत इस विषय मे सावधान रहने का प्रयास अवश्य करना चाहिए कि बड़े से बड़ा सम्बन्धी हो भले शरीर की माँ ही क्यों न हो उनके साथ भी केवल शरीर से लगाव रहे मन उनमे भी नही उलझाना है इसीलिए शायद सुमित्रा जी ने लक्ष्मण जी को कहा था वन के लिए जाते समय कि तात तुम्हारी मात वैदेही सीता या जानकी भी कह सकती थी सुमित्रा जी लेकिन वैदेही कहा…..अर्थात देह वाली माँ तुम्हारी माँ नही है लक्ष्मण तुम्हारी माँ बिना देह वाली है वैदेही…..जो आत्मा के रूप में तुम्हारे अंग संग ही है तुम्हारे प्राणों में बसी हुई है…..और वो माँ ही असली माँ है क्योंकि उसके कारण तुम स्वास भी ले पा रहे हो ठीक इसी प्रकार हर एक सम्बन्ध मन से आत्मा स्वरूप परमात्मा से जोड़े रखना है शरीर से सभी सम्बन्ध बाहर निभाते हुए अर्थात हम शरीर से पति और बच्चो की सेवा में है माता पिता की सेवा में है घर परिवार के कामो में है लेकिन मन हमारा हमारे प्रभु में लगा है ठीक ऐसे जैसे कोई पनिहारिन सर पर एक साथ बहुत से घड़े लेकर चलती है और साथ मे सखी सहेलियों से बोलती चालती इठलाती हँसी मजाक करती आ रही है……लेकिन ध्यान उसका सर पर रखे हुए घड़ो पर है सुरती उसकी वही जुड़ी है सुरती अर्थात मन का वेग मन पूरे वेग के साथ जहां लगा होता है उस कार्य की सफलता निश्चित होती है ये नियम है…..उस पनिहारिन का मन उन घड़ो पर लगा हुआ है कही गिर न जाये बस इसीलिए उसका एक भी घड़ा घर पोहचने तक गिरता नही सही सलामत घर पोहच कर ही वह पनिहारिन अपने हाथ से घड़े उतारती ** है……यही भगवान हमे समझा रहे है कि संसार मे खूब नाच कूद हिलो मिलो आओ जाओ लेकिन केवल और केवल शरीर से मन से मेरा ध्यान बनाये रखो *मम पद मनहि बाँधि बर डोरि* तो तुम सकुशल अंत मे अपने असली घर लौट आओगे……भगवान स्वयम अपने श्री मुख से इस बात की गारंटी दे रहे है और भला भगवान क्या करे विचार करने योग्य विषय है ये कि हम झट भगवान को बुरा भला कहते है भले हमारा मन कोई भी दुखाये संसार मे लेकिन इसमें भगवान ने किया क्या ?वो तो विचार कभी नही करते भगवान ने कहा न…..मन संसार मे लगाओगे तो मन दुखी होगा ही होगा क्योंकि यह संसार शाश्वत रूप से दुःखालय है इसमें से सुख की कामना करना ही दुख को बुलावा देना है बजाय इसके यदि मन मुझमे लगाओगे तो कभी दुखी हो नही सकते और किसी की हैसियत नही जो तुम्हे दुखी कर सके एक भौतिक पिता भी जिसके सर पर होता है उस पुत्र को ढांढस बंधा हुआ रहता है कि पिता है हमारे सर पर हमारे साथ….तो भला जो कोई उस परमपिता से मन को जोड़े रखेगा उसे किसी भी प्रकार का भय कैसे हो सकता है लेकिन ये संसार माया जाल मनुष्य स्वयम ही बना लेता है अपने लिए जैसे मकड़ी जाला बनाती है और उसमें स्वयम ही फ़स जाती है माता पिता भाई बन्धु बहन इनके बाद पति पत्नी बच्चे और फिर आगे इन्ही सब के कारण भगवान कह रहे है तन धन भवन में भी उलझ जाता है जो संसार बना लिया उसके लिए फिर कामना करता है कि खूब धन हो खूब शरीर स्वस्थ रहे धन को कमाने के लिए फिर घर मकान घोड़ा गाड़ी सुख साधन सम्पति ये सब भी आ जाये फिर इन्हें बटोरने में शरीर तो खपाता ही है मन भी इसी में उलझा लेता है और अधिक अपने ही बनाये माया जाल में फंसने लगता है जबकि तन धन भवन आदि सबकी ममता भी मन से मेरे साथ जोड़ ले कि ये तन मेरा नही मैं शरीर नही मैं तो आत्मा हूं परमात्मा का अंश हूं ये धन मेरा नही मेरा धन तो भगवान का नाम है वही मेरे साथ जाएगा जितना एकत्रित करूँगा और ये भवन सुख सम्पत्ति आदि जो भी कुछ है ये तो नश्वर है मै साथ लेकर नही आया तो साथ लेकर कैसे जाऊंगा यदि ऐसा चिंतन करते हुए मनुष्य मन की डोर मेरे साथ जोड़े रखे तब उसे न उसका शरीर दुखी कर सकता है न ही भौतिक सुख साधनों के होने से प्रसन्न न होने से दुखी वह हो सकता है और न ही भौतिक धन एकत्रित करने के लिए वह अन्धाधुन्ध दौड़ सकता है तन धन भवन….. इनकी ममता तभी भगवान से जुड़ सकती है जब मनुष्य के जीवन मे संतोष आ जाये धीरज आ जाये ठहराव आ जाये अन्यथा तो बुरा हाल करके ये ममता तन , धन ,भवन की छोड़ती है…..कैसी कैसी विचित्र योनियों में जीव भटकता है इनमे ममता रखने से केवल सत्संगति सतत सत्संग ही इसके लिए सहाई है……सत्संग से ही मन को प्रभु चरणों मे लगाने का विवेक प्राप्त हो सकता है
One Response
You have an impressive aptitude to communicate complex ideas in a straightforward manner.