सबसे पहले लिखा है श्रीमद्भागवत।। श्रीप्रियाजी जब श्रीकृष्ण मिलन या कृष्ण वियोग मे परम उनमादिनी होती हैं उस उन्माद में उनके हृदय में उत्पन्न हुई जितनी अद्वितीय विलक्षण तरंगें हैं जैसे चंद्रमा की पूर्णिमा तक पहुँचने पर समुद्र में ज्वारभाटे आते हैं और अमावस्या की रात्रि के समय समुद्र खिंच जाता है। ये दोनों ही तरंगे समुद्र में प्रगट होती हैं ऐसे ही
श्रीप्रिया जी के सामने श्रीकृष्णचंद्र का प्राकट्य होना और अंतर भूत होना प्रिया जी के हृदय समुद्र में भी तरंगें पैदा करता है। प्रिया जी का हृदय कैसा है? तरंगों का समुद्र है। पुरी में तो एक ही समुद्र है पर प्रिया जी के हृदय में अनंत समुद्र हैं-
वैदग्ध्य सिन्धुरनुराग रसैक सिन्धु
र्वात्सल्यसिन्धु-रतिसान्द्र कृपैकसिन्धु:।
लावण्यसिन्धुरमृतच्छवि रूप सिन्धु:
श्रीराधिकास्फुरतु मे हृदिकेलि सिन्धु॥
(श्रीश्रीराधारससुधानिधि)
ऐसे अनंत सिंधु प्रिया जी में के हृदय में विद्यमान हैं। चंद्रमा को देखकर समुद्र तरंगे लेता है ऐसे ही कृष्णचंद्र को देखकर प्रिया जी के हृदय में अनंत तरंगें पैदा होते हैं। जब चंद्रमा पूर्णिमा को प्रकट होता है तो चंद्रमा भी उन्मादी हो जाता है ऐसे ही
जब श्रीश्यामसुंदर के नीलेन्दीवर नीलमणि अनंत रसाऽमृत सिंधुसार विग्रह पूर्णचंद्र की व्यावृत्ति सामने प्रकट होती है तो प्रिया जी के श्री अंग के प्रत्येक भावों में अनंत तरंगें पैदा हो जाती हैं ।
जब समुद्र में पूर्णिमा की रात्रि में अनंत तरंगे भीतर से निकल-निकल कर आती है तभी उन तरंगों के आवेश में अनंत भीतर के मुक्ताहर, अनंत सीपियां, अनंत भीतर के रत्न उस लहरों में लोटते हुए, लुढ़कते हुए, उछलते हुए उसके तट पर इकट्ठे हो जाते हैं। कोई निष्णात निपुण व्यक्ति उस समय घूमता हुआ उस तट पर से उन मुक्ताहरो को बढ़िया एकत्रित करके, उसको बढ़िया माला में पिरो करके एक हार के रूप में परिणित कर देता है ।
ऐसे ही नीलेन्दीवर श्यामसुन्दर के अनंत रूप सौंदर्य को देखकर प्रियाजी के अनंत भाव समुद्र में आए हुए ज्वार भाटो से जो दिव्य महाभावों के दिव्य मुक्ता हार प्रगट हो जाते हैं। श्रीकृष्ण द्वैपायन व्यास भी चतुराई की तरह उन दिव्य मुक्ताहरों को इकट्ठा करके अपने प्रेम की रज्जू में पिरो करके, ऐसे दिव्य श्रीमद्भागवत की माला तैयार कर देते हैं कि जो इसे धारण कर ले उसके स्वरूप को देखकर श्रीकृष्ण भी मुग्ध होकर उसको हृदय से लगा लेते हैं।
ये भी कर्णहार बन जाए, ये भी कर्णकुंडल बन जाए, कोई मुक्ताहर को गले की मोती बना लेता है और कोई मोती को कान का कुंडल बना लेता है। ऐसे ही जो श्रीमद् भागवत जी का वाचन करता है भागवत जी उसके कंठ के मुक्ताहर की माला बन जाते हैं और जो भागवत जी का श्रवण करता है वह मोतियों का कुंडल बन जाता है।
जब कोई मुक्ताहरों के बड़े सुंदर अलंकारों को पहन कर जब कोई युवती बैठी थी हो तो कोई सामान्य पुरुष उसकी सुंदरता को देखकर मुक्त हो जाता है, भागवतजी के इस आभूषणों से जब वैष्णव अलंकृत होता है तो परम पुरुष राधारमण भी उस पर मुग्ध हो जाते हैं।
यह श्रीमद्भागवत है।
वैदग्ध्य सिन्धुरनुराग रसैक सिन्धु
र्वात्सल्यसिन्धु-रतिसान्द्र कृपैकसिन्धु:।
इन सिंधुओं से जो अनंतानंत रस के बिंदु प्रगट होते हैं उसी सबको पीरो करके यह भागवतजी की परम दिव्य माला तैयार होती है। इसे स्वयं प्रियाजी ने तैयार किया है।
जैसे कोई पुरानी दिव्य माला हो तो उसे बहुत संजोकर रखा जाता है ऐसे ही इस भागवत जी की माला को स्वयं महाप्रभु जी ने धारण किया है,इस दिव्य माला को श्रीविश्वनाथ चक्रवर्ती पाद ने धारण किया है, इस दिव्य माला को षडगोस्वामी पाद, बलदेव विद्याभूषण आदि वैष्णव ने धारण किया है।
जैसे कोई रमणी, जैसे कोई उन्मादनी, जैसे कोई प्रमोदिनी, जैसे कोई विनोदिनी, जैसे कोई आकर्षणई दर्पण के सामने बैठकर स्वावेष्ट स्वालंकृत के द्वारा अपना श्रृंगार कर लेती है और जैसे वह समाज के बीच में बैठकर किसी को लुभा सके ऐसे ही
भागवतजी की उपस्थिति में बैठकर, अपने महाभाव अलंकारों से, अपनी उपासना की छवि को ऐसा दिव्य अलंकृत कर लें कि भरी सभा में काल, माया, मोह मुड़कर चले जाएं कि अरे! यह गौर पार्षद है। इसे देखने से कोई लाभ नहीं होगा।
यह भागवत जी की श्रृंगार पेटी से संभव हो सकता है।
यही श्रीमद्भागवत है।
।।परमाराध्य पूज्य श्रीमन् माध्व गौडेश्वर वैष्णवाचार्य श्री पुंडरीक गोस्वामी जी महाराज ।।
First of all it is written Shrimad Bhagwat. When Shri Priyaji is supremely ecstatic in Krishna’s union or Krishna separation, in that frenzy, there are as many wonderful waves that arise in his heart as the tides in the sea when the moon reaches the full moon and the sea is stretched on the new moon night. Both these waves appear in the sea, like this
The appearance of Krishna Chandra in front of Sri Priya Ji and the difference creates waves in the heart ocean of Priya Ji. What is Priya’s heart like? There is a sea of waves. There is only one sea in Puri but there are infinite seas in the heart of Priya Ji- The sea of knowledge, the sea of passion and taste The ocean of compassion is the ocean of passion and the ocean of compassion. Lavanyasindhuramritachchavi rup sindhu: May the ocean of Sri Radhika, the play of my heart, flourish. (Sri Sri Radharasasudhanidhi)
Such Anant Sindhu is present in the heart of Priya ji. Seeing the moon, the ocean takes waves, similarly, seeing Krishnachandra, infinite waves arise in Priya’s heart. When the moon appears on the full moon, the moon also becomes frenzied.
When the Vyavritti of Shri Shyamsundar’s Nilendivar Neelmani Anant Rasamrit Sindhusar Deity full moon appears in front of him, infinite waves are created in each of the expressions of Shri Anga of Priya ji.
When in the sea on the night of the full moon, infinite waves come out from within, then in the impulse of those waves the infinite inner muktahar, the infinite shells, the infinite inner gems, rolling, rolling, jumping in the waves gathered on its shore. become. A well-versed person, roaming around at that time, collects those muktahars well from that shore, ties them in a fine garland and turns them into a necklace.
In the same way, seeing the infinite beauty of Nilendivar Shyamsundar, Priyaji’s infinite expressions are revealed by the tides coming in the ocean, which are manifested by the divine liberation of the divine great feelings. Like Shri Krishna Dvaipayana Vyas also cleverly collects those divine muktashars by threading them in the rope of his love, prepares such a garland of divine Shrimad Bhagwat that the one who wears it, seeing the form of it, Shri Krishna also gets enchanted and puts it on his heart. .
This also becomes the ear, this also becomes the ear drum, someone makes the muktahara a pearl of the neck and someone makes the pearl into the ear coil. In the same way, one who recites Shrimad Bhagwat ji becomes a garland of the mouth of Bhagwat ji and one who listens to Bhagwat ji becomes a coil of pearls.
When a young woman is sitting wearing the beautiful ornaments of Muktaharas, then an ordinary man becomes free after seeing her beauty, when a Vaishnava is adorned with these ornaments of Bhagwatji, then the Supreme Purusha Radharaman also becomes infatuated with her. .
This is Srimad Bhagavatam. The sea of knowledge, the sea of passion and taste The ocean of compassion is the ocean of passion and the ocean of compassion. This supreme divine garland of Bhagavad Gita is prepared by piroting all the points of infinite taste that appear from these seas. It is prepared by Priyaji herself.
As if there is an old divine rosary, it is kept very carefully, similarly Mahaprabhu ji himself has held this divine rosary, this divine rosary has been worn by Shri Vishwanath Chakravarti foot, this divine rosary is held by Shadgoswami foot, Baldev Vidyabhushan. Adi Vaishnava has adopted it.
Just like a delightful, like a hysterical, like a pramodini, like a humorist, like a charmer sits in front of a mirror and adorns himself with self-deception and as if he can woo someone sitting in the middle of society.
Sitting in the presence of Bhagwatji, with your magnanimous ornaments, decorate the image of your worship in such a way that in the gathering full of time, Maya, delusion turn away that Oh! This is a councillor. There is no point in watching it.
This can be possible with the makeup of Bhagwat ji.
This is Srimad Bhagavatam.
।।Paramaradhya Pujya Shriman Madhva Goudeshwar Vaishnavacharya Shri Pundarik Goswami Ji Maharaj ।।