श्री हरि:
गत पोस्ट से आगे………..
जो जीव अज्ञानवश काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर – इन छ: शत्रुओं पर विजय प्राप्त नहीं कर लेता, उसे इच्छा न रहते हुए भी विभिन्न वासनाओं के अनुसार अनेकों कर्म करने पड़ते हैं | वैसी स्थिति में वह रेशम के कीड़े के समान अपने को जाल में जकड़ लेता है और इस प्रकार अपने हाथों मोह का शिकार बन जाता है ||५२|| कोई शरीरधारी जीव बिना कर्म किये कभी एक क्षण भी नहीं रह सकता | प्रत्येक प्राणी के स्वाभाविक गुण बलपूर्वक विवश करके उससे कर्म कराते हैं ||५३|| जीव अपने पूर्व जन्मो के पाप-पुण्यमय संस्कारों के अनुसार स्थूल और सूक्ष्म शरीर प्राप्त करता है | उसकी स्वाभाविक एवं प्रबल वासनाएँ कभी उसे माता के-जैसा (स्त्रीरूप) बना देती है, तो कभी पिताके-जैसा (पुरुषरूप) ||५४|| प्रकृति का संसर्ग होने से ही पुरुष अपने को अपने वास्तविक स्वरूप के विपरीत लिंगशरीर मान बैठा है | यह विपर्यय भगवान् के भजन से शीघ्र ही दूर हो जाता है ||५५||
देवताओ ! आप जानते ही हैं कि यह अजामिल बड़ा शास्त्रज्ञ था | शील, सदाचार और सद्गुणों का तो यह खजाना ही था | ब्रह्मचारी, विनयी, जितेन्द्रिय, सत्यनिष्ठ, मन्त्रवेता और पवित्र भी था ||५६|| इसने गुरु, अग्नि, अतिथि और वृध्द पुरुषों की सेवा की थी | अहंकार तो इसमें था ही नहीं | यह समस्त प्राणियों का हित चाहता, उपकार करता, आवश्यकता के अनुसार ही बोलता और किसी के गुणों में दोष नहीं ढूँढता था ||५७|| एक दिन वह ब्राह्मण अपने पिता के आदेशानुसार वन में गया और वहाँ से फल-फूल, समिधा तथा कुश लेकर घर लौटा ||५८|| लौटते समय इसने देखा कि एक भ्रष्ट शूद्र, जो बहुत कामी और निर्लज्ज है, शराब पीकर किसी वेश्या के साथ विहार कर रहा है | वेश्या भी शराब पीकर मतवाली हो रही है | नशे के कारण उसकी आँखें नाच रही हैं, वह अर्ध्दनग्न अवस्था में हो रही है | वह शूद्र उस वेश्या के साथ कभी गाता, कभी हँसता और कभी तरह-तरह की चेष्टाएँ करके उसे प्रसन्न करता है ||५९-६०||
शेष आगामी पोस्ट में |
गीताप्रेस, गोरखपुर द्वारा प्रकाशित पुस्तक परम सेवा पुस्तक कोड १९४४ से |
Mr. Hari: Continuing from previous post……….. The living being who does not conquer these six enemies because of ignorance, lust, anger, greed, delusion, madness, matsar, he has to perform many actions according to different desires, despite having no desire. In such a situation, like a silk worm, he entraps himself in a net and thus becomes a victim of attachment at his own hands ||52|| No bodied living being can ever live even for a moment without performing any action. The natural qualities of every creature force and force it to act.||53|| The living being acquires gross and subtle bodies according to the sins and virtuous rites of his previous births. Her natural and strong desires sometimes make her mother-like (female), and sometimes father-like (male form) ||54|| Due to the interaction of nature, man has considered himself to be the sex body in contrast to his real nature. This anagram is soon removed from the hymn of the Lord ||55|| Gods! You already know that this Ajamila was a great scholar. This was the treasure of modesty, virtue and virtues. Brahmachari, Vinayi, Jitendriya, Truthful, Mantraveta and Pious too ||56|| It served Guru, Agni, Atithi and old men. There was no ego in it. He wanted the benefit of all beings, did favors, spoke only according to the need and did not find fault in anyone’s qualities ||57|| One day the brahmin went to the forest according to the orders of his father and from there returned home with fruits, flowers, samidha and kush ||58|| On his return he saw that a corrupt Shudra, who is very sly and shameless, was drinking and living with a prostitute. The prostitute is also getting drunk. Her eyes are dancing because of intoxication, she is getting half-naked. That shudra sometimes sings with that prostitute, sometimes laughs and sometimes pleases her by making all kinds of efforts ||59-60|| rest in upcoming posts. From the book Param Seva Book Code 1944 published by GeetaPress, Gorakhpur.