गत पोस्ट से आगे………
विष्णुदूतों द्वारा भागवतधर्म – निरूपण और
अजामिल का परमधामगमन
यमदूतो ! जैसे जान या अनजान में ईंधन अग्नि का स्पर्श हो जाय तो वह भस्म हो ही जाता है, वैसे ही जान-बूझकर या अनजान में भगवान् के नामों का संकीर्तन करने से मनुष्य के सारे पाप भस्म ही जाते हैं ||१८|| जैसे कोई परम शक्तिशाली अमृत को उसका गुण न जानकर अनजान में पी ले तो भी वह अवश्य ही पीनेवाले को अमर बना देता है, वैसे ही अनजान में उच्चारण करने पर भी भगवान् अपना फल देकर ही रहता है ||१९||
श्रीशुकदेवजी कहते हैं – राजन ! इस प्रकार भगवान् के पार्षदों ने भागवत धर्म का पूरा-पूरा निर्णय सुना दिया और अजामिल को यमदूतों के पाश से छुडाकर मृत्यु के मुख से बचा लिया ||२०|| प्रिय परीक्षित ! पार्षदों की यह बात सुनकर यमदूत यमराज के पास गये और उन्हें यह सारा वृतान्त ज्यों-का-त्यों सुना दिया ||२१||
अजामिल यमदूतों के फंदे से छूटकर निर्भय और स्वस्थ हो गया | उसने भगवान् के पार्षदों के दर्शनजनित आनन्द में मग्न होकर उन्हें सिर झुकाकर प्रणाम किया ||२२|| निष्पाप परीक्षित ! भगवान के पार्षदों ने देखा कि अजामिल कुछ कहना चाहता है, तब वह सहसा उसके सामने ही वहीँ अंतर्ध्यान हो गये ||२३|| इस अवसर पर अजामिल ने भगवान् के पार्षदों से विशुध्द भागवत-धर्म और यमदूतों के वेदोक्त सगुण (प्रवृतिविषयक) धर्म का श्रवण किया था ||२४|| सर्वपापहारी भगवान् की महिमा सुनने से अजामिल के ह्रदय में शीघ्र ही भक्ति का उदय हो गया | अब उसे अपने पापों को याद करके बड़ा पश्चाताप होने लगा ||२५|| (अजामिल मन-ही-मन सोचने लगा -) अरे, मैं कैसा इन्द्रियों का दास हूँ ! मैंने एक दासी के गर्भ से पुत्र उत्पन्न करके अपना ब्राह्मणत्व नष्ट कर दिया | यह बड़े दु:ख की बात है ||२६|| धिक्कार है ! मुझे बार-बार धिक्कार है ! मैं संतों के द्वारा निन्दित हूँ, पापात्मा हूँ ! मैंने अपने कुल में कलंक का टीका लगा दिया ! हाय-हाय, मैंने अपनी सती एवं अबोध पत्नी का परित्याग कर दिया और शराब पिने वाली कुलटा का संसर्ग किया ||२७|| मैं कितना नीच हूँ ! मेरे माँ-बाप बूढ़े और तपस्वी थे | वे सर्वथा असहाय थे, उनकी सेवा-शुश्रूषा करने वाला और कोई नहीं था | मैंने उनका भी परित्याग कर दिया | ओह ! मैं कितना कृतघ्न हूँ ||२८|| मैं अब अवश्य ही अत्यन्त भयावने नरक में गिरूँगा, जिसमे धर्मघाती पापात्मा कामी पुरुष अनेकों प्रकार की यमयातना भोगते हैं ||२९
शेष आगामी पोस्ट में |
गीताप्रेस, गोरखपुर द्वारा प्रकाशित पुस्तक परम सेवा पुस्तक कोड १९४४ से |
Continuing from previous post……… Bhagavata Dharma – Representation and Ajamil’s Exaltation eunuchs! Just as, knowingly or unknowingly, when the fuel comes in contact with the fire, it is consumed, similarly, consciously or unconsciously, by chanting the names of the Lord, all the sins of a man are burnt to ashes ||18|| Just as someone who drinks the most powerful nectar unconsciously, not knowing its merits, it surely makes the drinker immortal, similarly the Lord lives by giving his fruit even after uttering it unconsciously.||19|| Sri Shukdevji says – Rajan! In this way the councilors of the Lord gave the complete verdict of the Bhagavata Dharma and saved Ajamil from the mouth of death by freeing him from the clutches of the eunuchs ||20|| Dear Parikshit! Hearing this from the councilors, the eunuchs went to Yamraj and narrated the whole story to him. Ajamil became fearless and healthy after being released from the noose of the eunuchs. He bowed his head and bowed his head to the darshan generated by the darshan of the councilors of the Lord. Impeccable tested! God’s councilors saw that Ajamil wanted to say something, then they suddenly got meditated there in front of him.||23|| On this occasion Ajamila had heard from the councilors of the Lord the pure Bhagavata-dharma and the Vedokta Saguna (instinctive) dharma of the eunuchs ||24|| Hearing the glories of the omnipotent Lord, devotion soon arose in Ajamil’s heart. Now remembering his sins, he started feeling great repentance ||25|| (Ajamil thought to himself -) Oh, what a slave of the senses I am! I destroyed my Brahminhood by producing a son from the womb of a maidservant. It is a matter of great sadness ||26|| well damn ! I am sorry again and again! I am condemned by the saints, I am a sinner! I have put stigma vaccine in my clan! Hi-Hi, I have abandoned my sati and innocent wife and got in contact with the drunken Kulta ||27|| How low am I! My parents were old and ascetic. He was completely helpless, there was no one else to serve him. I abandoned them too. Oh ! How ungrateful I am ||28|| I must now fall into the most dreadful hell, in which devout sinners, sinners, suffer many kinds of torture ||29 rest in upcoming posts. From the book Param Seva Book Code 1944 published by GeetaPress, Gorakhpur.