श्रीमदभागवतमहापुराण में भगवन्नाम महिमा ( पोस्ट 12 )

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गत पोस्ट से आगे………..
विष्णुदूतों द्वारा भागवतधर्म – निरूपण और
अजामिल का परमधामगमन


मैंने जो अभी अद्भुत दृश्य देखा, क्या वह स्वप्न है ? अथवा जाग्रत अवस्था का ही प्रत्यक्ष अनुभव है ? अभी-अभी जो हाथों में फंदा लेकर मुझे खींच रहे थे, वे कहाँ चले गये ? ||३०|| अभी-अभी वे मुझे अपने फंदों में फँसाकर पृथ्वी के नीचे ले जा रहे थे, परन्तु चार अत्यन्त सुन्दर सिध्दों ने आकर मुझे छुडा लिया ! वे अब कहाँ चले गये ||३१|| यद्यपि मैं इस जन्म का महापापी हूँ, फिर भी मैंने पूर्व जन्मों में अवश्य ही शुभ कर्म किये होंगे; तभी तो मुझे इन श्रेष्ठ देवताओं के दर्शन हुए | उनकी स्मृति से मेरा ह्रदय अब भी आनन्द से भर रहा है ||३२|| मैं कुल्टागामी और अत्यन्त अपवित्र हूँ | यदि पूर्वजन्म में मैंने पुण्य नहीं किये होते, तो मरने के समय मेरी जीभ भगवान् के मनमोहक नाम का उच्चारण कैसे कर पाती ? ||३३|| कहाँ तो मैं महाकपटी, पापी, निर्लज्ज और ब्रह्मतेज को नष्ट करने वाला तथा कहाँ भगवान् का वह परम मंगलमय ‘नारायण’ नाम ! (सचमुच मैं तो कृतार्थ हो गया) ||३४|| अब मैं अपने मन, इन्द्रिय और प्राणों को वश में करके ऐसा प्रत्यत्न करूँगा कि फिर अपने को घोर अंधकारमय नरक में न डालूँ ||३५|| अज्ञानवश मैंने अपने को शरीर समझकर उसके लिये बड़ी-बड़ी कामनाएं कीं और उनकी पूर्ति के लिये अनेकों कर्म किये उन्ही का फल है यह बन्धन ! अब मैं इसे काटकर समस्त प्राणियों का हित करूँगा, वासनाओं को शान्त कर दूँगा, सबसे मित्रता का व्यवहार करूँगा, दु:खियों पर दया करूँगा और पूरे संयम के साथ रहूँगा ||३६|| भगवान् की माया ने स्त्री का रूप धारण करके मुझ अधम को फाँस लिया और क्रीड़ामृग की भाँति मुझे बहुत नाच नचाया | अब मैं अपने-आपको उस माया से मुक्त करूँगा ||३७|| मैंने सत्य वस्तु परमात्मा को पहचान लिया है; अत: अब मैं शरीर आदि में “मैं” तथा “मेरे” का भाव छोड़कर भगवन्नाम के कीर्तन आदि से अपने मन को शुध्द करूँगा और उसे भगवान् में लगाऊँगा ||३८||
शेष आगामी पोस्ट में |
गीताप्रेस, गोरखपुर द्वारा प्रकाशित पुस्तक परम सेवा पुस्तक कोड



Continuing from previous post……….. Bhagavata Dharma – Representation and Ajamil’s Exaltation The wonderful sight I just saw, is it a dream? Or is it a direct experience of the waking state? Where have those who were dragging me with a noose in their hands just gone? ||30|| Just now they were taking me down to the earth by trapping me in their traps, but four most beautiful siddhas came and rescued me! Where have they gone now ||31|| Although I am a great sinner of this birth, yet I must have done good deeds in previous births; That’s when I had darshan of these elevated deities. My heart is still filled with joy from his memory ||32|| I am a coward and very impure. If I had not done merit in my previous birth, how could my tongue be able to pronounce the beautiful name of the Lord at the time of death? ||33|| Where am I the destroyer of great hypocrites, sinners, shameless and brahmtej and where is that supremely auspicious ‘Narayan’ name of the Lord! (I am really grateful) ||34|| Now I will try to control my mind, senses and life so that I do not throw myself again into the darkest hell ||35|| Out of ignorance, considering myself to be a body, I made great wishes for it, and for their fulfillment, I have done many deeds, the result of them is this bondage. Now I will cut it for the benefit of all beings, pacify the desires, behave in the most friendly manner, show mercy to the afflicted and live with complete restraint ||36|| The Maya of the Lord, taking the form of a woman, trapped me half-hearted and made me dance like a deer. Now I will free myself from that illusion ||37|| I have recognized the true thing, the Supreme Soul; Therefore, I will now purify my mind by chanting the name of the Lord, leaving behind the feeling of “I” and “me” in the body etc. and apply it to the Lord.||38|| rest in upcoming posts. Book Param Seva Book Code Published by GeetaPress, Gorakhpur

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