चित्रध्वजसे चित्रकला

monk mudra hand

प्राचीन कालमें चन्द्रप्रभ नामके एक राजर्षि थे। भगवान् श्रीकृष्णकी कृपासे उन्हें चित्रध्वज नामक सुन्दर पुत्र प्राप्त था। वह लड़कपनसे ही भगवान्का भक्त था। वह जब बारह वर्षका हुआ, तब राजाने किसी ब्राह्मणके द्वारा उसे अष्टादशाक्षर- ( ॐ क्लीं कृष्णाय गोविन्दाय गोपीजनवल्लभाय स्वाहा ) मन्त्र दिलवा दिया। बालकने मन्त्रपूत अमृतमय जलमें स्नान करके पिताको प्रणाम किया और एक दिन वह सुन्दर पवित्र नवीन वस्त्र तथा आभूषण धारण करके श्रीविष्णु मन्दिरमें चला गया। वहाँ वह यमुना- पुलिनपर वनमें गोपबालाओंके साथ क्रीड़ा करते हुए भुवनमोहन श्रीकृष्णका ध्यान करने लगा और भगवान्के लिये उसका हृदय अत्यन्त व्याकुल हो उठा। भगवत्कृपासे उसे परमा विद्या प्राप्त हुई और उसने स्वप्रमें देखा l

उस भवनमें सुवर्णपीठपर समस्त सुलक्षणोंसे युक्त श्यामवर्ण स्निग्ध और लावण्यशाली त्रिभङ्गललित भगवान् श्रीकृष्णका मनोहर श्रीविग्रह है। सिरपर मयूरपिच्छ सुशोभित है। वे श्रीविग्रहरूप भगवान् मानो अधरोंपर स्थापित स्वर्णवेणु बजा रहे हैं। उनके दोनों ओर दो सुन्दरियाँ विराजमान हैं। चित्रध्वजने इस प्रकार वेशविलासयुक्त श्रीकृष्णको देखकर लज्जावनत होकर उन्हें प्रणाम किया। तदनन्तर श्रीकृष्णने अपने दाहिनी ओर बैठी हुई लज्जिता प्रियासे हँसते हुए कहा “मृगलोचने! तुम अपने ही अंशभूत इस बालकके लिये ऐसा चिन्तन करो मानो यह तुम्हारे ही जैसी दिव्य अद्भुत युवती है। तुम्हारे और इसके शरीरमें कोई भी भेद नहींरहना चाहिये। तुम्हारे ऐसा चिन्तन करनेपर तुम्हारे अङ्ग-तेजका स्पर्श पाकर यह बालक तुम्हारे रूपको प्राप्त हो जायगा।’

तब वह कमलनयनी चित्रध्वजके पास जाकर अपने अङ्गोंके समान उसके समस्त अङ्गोंका अभेदभावसे चिन्तन करने लगी। उस देवी अङ्गोंकी तेजोराशि चित्रध्वजके अङ्गोंका आश्रय करके उसका वैसा ही निर्माण करने लगी। देखते-ही-देखते वह सुन्दर नितम्ब, वक्षःस्थल, केशराशिसे युक्त रमणीय युवती रूपमें परिणत | हो गया। वह रमणी सम्पूर्ण सुन्दर वस्त्र, आभूषण तथा हार- मालादिसे सुशोभित होकर वैसे ही हाव भावोंसे सम्पन्न दीखने लगी। तब एक दीपकसे दूसरे दीपकके जल उठनेकी भाँति देवी – शरीरसे उत्पन्न देवी मूर्तिको देखकर उस देवीने उस लज्जासे संकुचित और यौवन | सुलभ मन्द मुसकान से युक्त नवीन रमणीका हाथ पकड़कर परम आनन्दसे उसे श्रीगोविन्दकी बायीं ओर बैठा दिया। तदनन्तर उस देवीने श्रीभगवान्से कहा-‘प्रभो! आपकी यह दासी उपस्थित है; इसका नामकरण कीजिये और | इसको आपकी रुचिकी कौन-सी अत्यन्त प्रिय सेवामें नियुक्त किया जायगा, यह भी बता दीजिये।’ इसके पश्चात् उसने स्वयं ही उसका ‘चित्रकला’ नाम रखकर उससे कहा कि ‘तुम इस वीणाको लो और सदा-सर्वदा प्रभुके समीप रहकर विविध स्वरोंमें मेरे प्राणनाथका गुणगान किया करो। तुम्हारे लिये यही सेवा है।’ ‘चित्रकला’ने उसका आदेश स्वीकार करके भगवान् श्रीमाधवको प्रणाम किया और उनकी प्रेयसीकेचरणारविन्दकी धूलि लेकर वह युगलस्वरूपके आनन्दवर्धक | गुणोंका सुललित स्वरोंमें गान करने लगी। तब आनन्दमय भगवान् श्रीकृष्णने अत्यन्त प्रसन्न होकर उसका आलिङ्गन किया। भगवान् श्रीकृष्णके आनन्दमय स्पर्शसे चित्रकला ज्यों ही आनन्दसागरमें निमग्न हुई कि उसकी नींद टूट गयी। अब तो श्रीकृष्ण- प्रेम-परवश होकर कुमार चित्रध्वज स्वप्नके उस अपार अलौकिक आनन्दका स्मरण करके फुफकार मारकर उच्च स्वरसे रोने लगा । उसका आहार-विहार सब छूट गया। महीनेभर इसप्रकार व्याकुल हृदयसे घरमें रहा, फिर एक दिन आधी रात्रिके समय श्रीकृष्णको सहचर बनाकर वह घरसे निकल पड़ा और श्रीकृष्ण-प्राप्तिके लिये मुनियोंके लिये भी दुःसाध्य तपस्या करने लगा। इसी महामुनिने देह त्यागके अनन्तर वीरगुप्त नामक गोपके घर ‘चित्रकला’ नामसे कन्यारूपसे जन्म लिया। चित्रकला गोपीके कंधे पर सदा-सर्वदा सप्तस्वर -शोभित मनोहर वीणा रहती है और यह भगवान्‌ के समीप युगल-स्वरूप श्रीराधाकृष्णका नित्य निरन्तर गुणगान किया करती है।

प्राचीन कालमें चन्द्रप्रभ नामके एक राजर्षि थे। भगवान् श्रीकृष्णकी कृपासे उन्हें चित्रध्वज नामक सुन्दर पुत्र प्राप्त था। वह लड़कपनसे ही भगवान्का भक्त था। वह जब बारह वर्षका हुआ, तब राजाने किसी ब्राह्मणके द्वारा उसे अष्टादशाक्षर- ( ॐ क्लीं कृष्णाय गोविन्दाय गोपीजनवल्लभाय स्वाहा ) मन्त्र दिलवा दिया। बालकने मन्त्रपूत अमृतमय जलमें स्नान करके पिताको प्रणाम किया और एक दिन वह सुन्दर पवित्र नवीन वस्त्र तथा आभूषण धारण करके श्रीविष्णु मन्दिरमें चला गया। वहाँ वह यमुना- पुलिनपर वनमें गोपबालाओंके साथ क्रीड़ा करते हुए भुवनमोहन श्रीकृष्णका ध्यान करने लगा और भगवान्के लिये उसका हृदय अत्यन्त व्याकुल हो उठा। भगवत्कृपासे उसे परमा विद्या प्राप्त हुई और उसने स्वप्रमें देखा l
उस भवनमें सुवर्णपीठपर समस्त सुलक्षणोंसे युक्त श्यामवर्ण स्निग्ध और लावण्यशाली त्रिभङ्गललित भगवान् श्रीकृष्णका मनोहर श्रीविग्रह है। सिरपर मयूरपिच्छ सुशोभित है। वे श्रीविग्रहरूप भगवान् मानो अधरोंपर स्थापित स्वर्णवेणु बजा रहे हैं। उनके दोनों ओर दो सुन्दरियाँ विराजमान हैं। चित्रध्वजने इस प्रकार वेशविलासयुक्त श्रीकृष्णको देखकर लज्जावनत होकर उन्हें प्रणाम किया। तदनन्तर श्रीकृष्णने अपने दाहिनी ओर बैठी हुई लज्जिता प्रियासे हँसते हुए कहा “मृगलोचने! तुम अपने ही अंशभूत इस बालकके लिये ऐसा चिन्तन करो मानो यह तुम्हारे ही जैसी दिव्य अद्भुत युवती है। तुम्हारे और इसके शरीरमें कोई भी भेद नहींरहना चाहिये। तुम्हारे ऐसा चिन्तन करनेपर तुम्हारे अङ्ग-तेजका स्पर्श पाकर यह बालक तुम्हारे रूपको प्राप्त हो जायगा।’
तब वह कमलनयनी चित्रध्वजके पास जाकर अपने अङ्गोंके समान उसके समस्त अङ्गोंका अभेदभावसे चिन्तन करने लगी। उस देवी अङ्गोंकी तेजोराशि चित्रध्वजके अङ्गोंका आश्रय करके उसका वैसा ही निर्माण करने लगी। देखते-ही-देखते वह सुन्दर नितम्ब, वक्षःस्थल, केशराशिसे युक्त रमणीय युवती रूपमें परिणत | हो गया। वह रमणी सम्पूर्ण सुन्दर वस्त्र, आभूषण तथा हार- मालादिसे सुशोभित होकर वैसे ही हाव भावोंसे सम्पन्न दीखने लगी। तब एक दीपकसे दूसरे दीपकके जल उठनेकी भाँति देवी – शरीरसे उत्पन्न देवी मूर्तिको देखकर उस देवीने उस लज्जासे संकुचित और यौवन | सुलभ मन्द मुसकान से युक्त नवीन रमणीका हाथ पकड़कर परम आनन्दसे उसे श्रीगोविन्दकी बायीं ओर बैठा दिया। तदनन्तर उस देवीने श्रीभगवान्से कहा-‘प्रभो! आपकी यह दासी उपस्थित है; इसका नामकरण कीजिये और | इसको आपकी रुचिकी कौन-सी अत्यन्त प्रिय सेवामें नियुक्त किया जायगा, यह भी बता दीजिये।’ इसके पश्चात् उसने स्वयं ही उसका ‘चित्रकला’ नाम रखकर उससे कहा कि ‘तुम इस वीणाको लो और सदा-सर्वदा प्रभुके समीप रहकर विविध स्वरोंमें मेरे प्राणनाथका गुणगान किया करो। तुम्हारे लिये यही सेवा है।’ ‘चित्रकला’ने उसका आदेश स्वीकार करके भगवान् श्रीमाधवको प्रणाम किया और उनकी प्रेयसीकेचरणारविन्दकी धूलि लेकर वह युगलस्वरूपके आनन्दवर्धक | गुणोंका सुललित स्वरोंमें गान करने लगी। तब आनन्दमय भगवान् श्रीकृष्णने अत्यन्त प्रसन्न होकर उसका आलिङ्गन किया। भगवान् श्रीकृष्णके आनन्दमय स्पर्शसे चित्रकला ज्यों ही आनन्दसागरमें निमग्न हुई कि उसकी नींद टूट गयी। अब तो श्रीकृष्ण- प्रेम-परवश होकर कुमार चित्रध्वज स्वप्नके उस अपार अलौकिक आनन्दका स्मरण करके फुफकार मारकर उच्च स्वरसे रोने लगा । उसका आहार-विहार सब छूट गया। महीनेभर इसप्रकार व्याकुल हृदयसे घरमें रहा, फिर एक दिन आधी रात्रिके समय श्रीकृष्णको सहचर बनाकर वह घरसे निकल पड़ा और श्रीकृष्ण-प्राप्तिके लिये मुनियोंके लिये भी दुःसाध्य तपस्या करने लगा। इसी महामुनिने देह त्यागके अनन्तर वीरगुप्त नामक गोपके घर ‘चित्रकला’ नामसे कन्यारूपसे जन्म लिया। चित्रकला गोपीके कंधे पर सदा-सर्वदा सप्तस्वर -शोभित मनोहर वीणा रहती है और यह भगवान्‌ के समीप युगल-स्वरूप श्रीराधाकृष्णका नित्य निरन्तर गुणगान किया करती है।

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