उद्दण्डताका दण्ड
पूर्वकालमें हिरण्याक्षका पुत्र महिष नामक दैत्य हुआ था, जिसने भैंसेका रूप धारण करके ही समस्त त्रिलोकीका शासन किया था। पहले वह बड़ा सुन्दर तथा तेजसे सम्पन्न था। उस समय लोग उसे चित्रसम कहते थे। चित्रसमको बाल्यावस्थासे ही भैँसेकी सवारीका शौक हो गया था। वह घोड़े आदि सवारियोंको छोड़कर भैंसेपर ही चढ़कर चलता था। एक दिनकी बात है, दानव चित्रसम भैंसेपर आरूढ़ होकर चला और गंगाजीके तटपर जाकर जल-पक्षियोंका शिकार करने लगा। वहाँ मुनिश्रेष्ठ दुर्वासा गंगाके किनारे समाधि लगाये बैठे थे। दैत्यका चित्त जलपक्षियोंकी ओर लगा था। उसने मुनिको नहीं देखा और भैंसेको आगे बढ़ा दिया। मुनि उसके खुरोंके वेगसे कुचल गये, उनका सारा शरीर लहूलुहान हो गया। उन्होंने आँख खोलकर देखा, तो सामने एक दानव प्रणाम आदिसे रहित उद्दण्डभावसे खड़ा था। तब दुर्वासाने कुपित होकर कहा-‘पापी ! तुमने भैंसेके खुरोंसे मेरे शरीरको कुचल डाला और मेरी समाधि भंग कर दी, इसलिये तुम भी भैंसा हो जाओ
और जबतक जिओ, प्रधानत: भैंसा ही बने रहो।’ मुनिके इतना कहते ही वह बड़ा भारी भैंसा हो गया। तब उसने विनीत भावसे मुनिको प्रसन्न करते हुए कहा- ‘विप्रवर! मैं बालक हूँ, अनजानमें मुझसे आपका अपराध हो गया; उसे क्षमा करके मेरे शापका अन्त कर दीजिये।’
मुनिने कहा- ‘मेरा वचन व्यर्थ नहीं हो सकता। दुर्मते! जबतक तुम्हारे प्राण रहेंगे, तबतक तो तुम इसी रूपमें रहोगे।’
ऐसा कहकर दुर्वासामुनि गंगाका किनारा छोड़कर अन्यत्र चल दिये। तब वह दैत्य भी शुक्राचार्यके पास जाकर बोला- ‘गुरुदेव ! मुझे दुर्वासाने शाप देकर महिष बना दिया है। अब आप ही मुझे शरण दीजिये। मैं आपके प्रसादसे अपने पूर्वशरीरको पा जाऊँ और मेरी यह पशुयोनि नष्ट हो जाय। ऐसा उपाय कीजिये।’
शुक्राचार्यने कहा—’ एकमात्र भगवान् महेश्वरको छोड़कर दूसरा कोई भी ऐसा नहीं है, जो दुर्वासाके शापको पलट सके। इसलिये तुम शीघ्र ही हाटकेश्वरक्षेत्र में जाकर वहाँके परम उत्तम शिवलिंगकी आराधना करो।’
शुक्राचार्यके ऐसा कहनेपर वह दानव शीघ्र ही हाटकेश्वरक्षेत्रमें गया। वहाँ उसने भक्तिभावसे महान् शिवलिंगकी स्थापना करके कैलासशिखरके समान ऊँचा मन्दिर बनवाया और कठिन तपस्यामें तत्पर हो महादेवजीकी आराधना करने लगा। इस प्रकार उसका दीर्घकाल व्यतीत हुआ। तब महादेवजीने सन्तुष्ट होकर उसे प्रत्यक्ष दर्शन दिया। और कहा-‘दानव! मैं प्रसन्न हूँ, वर माँगो।’
महिष बोला- ‘मुझे दुर्वासाजीने शाप देकर भैंसा बना दिया है, आपके प्रसादसे मेरी यह पशुयोनि निवृत्त हो जाय। यही प्रार्थना है।’
भगवान् शिव बोले- ‘दुर्वासाके वचनको अन्यथा नहीं किया जा सकता, परंतु तुम्हारे सुखका एक उपाय मैं कर दूँगा, वह यह कि जितने भी दैव, मानव तथा आसुर भोग हैं, वे सब तुम्हें इस शरीरमें प्राप्त होंगे। भोगके लिये ही देवता और असुर मानव-शरीरकी इच्छा करते हैं। तुम्हारा यह शरीर उन सब भोगोंको प्राप्त करेगा।’
इस प्रकार चित्रसमको अपनी उद्दण्डताके कारण सुन्दर मनुष्योचित शरीरके स्थानपर भैंसेके ही शरीरमें जीवन-भर रहना पड़ा। यही उसकी उद्दण्डताका दण्ड था। [ स्कन्दपुराण ]
उद्दण्डताका दण्ड
पूर्वकालमें हिरण्याक्षका पुत्र महिष नामक दैत्य हुआ था, जिसने भैंसेका रूप धारण करके ही समस्त त्रिलोकीका शासन किया था। पहले वह बड़ा सुन्दर तथा तेजसे सम्पन्न था। उस समय लोग उसे चित्रसम कहते थे। चित्रसमको बाल्यावस्थासे ही भैँसेकी सवारीका शौक हो गया था। वह घोड़े आदि सवारियोंको छोड़कर भैंसेपर ही चढ़कर चलता था। एक दिनकी बात है, दानव चित्रसम भैंसेपर आरूढ़ होकर चला और गंगाजीके तटपर जाकर जल-पक्षियोंका शिकार करने लगा। वहाँ मुनिश्रेष्ठ दुर्वासा गंगाके किनारे समाधि लगाये बैठे थे। दैत्यका चित्त जलपक्षियोंकी ओर लगा था। उसने मुनिको नहीं देखा और भैंसेको आगे बढ़ा दिया। मुनि उसके खुरोंके वेगसे कुचल गये, उनका सारा शरीर लहूलुहान हो गया। उन्होंने आँख खोलकर देखा, तो सामने एक दानव प्रणाम आदिसे रहित उद्दण्डभावसे खड़ा था। तब दुर्वासाने कुपित होकर कहा-‘पापी ! तुमने भैंसेके खुरोंसे मेरे शरीरको कुचल डाला और मेरी समाधि भंग कर दी, इसलिये तुम भी भैंसा हो जाओ
और जबतक जिओ, प्रधानत: भैंसा ही बने रहो।’ मुनिके इतना कहते ही वह बड़ा भारी भैंसा हो गया। तब उसने विनीत भावसे मुनिको प्रसन्न करते हुए कहा- ‘विप्रवर! मैं बालक हूँ, अनजानमें मुझसे आपका अपराध हो गया; उसे क्षमा करके मेरे शापका अन्त कर दीजिये।’
मुनिने कहा- ‘मेरा वचन व्यर्थ नहीं हो सकता। दुर्मते! जबतक तुम्हारे प्राण रहेंगे, तबतक तो तुम इसी रूपमें रहोगे।’
ऐसा कहकर दुर्वासामुनि गंगाका किनारा छोड़कर अन्यत्र चल दिये। तब वह दैत्य भी शुक्राचार्यके पास जाकर बोला- ‘गुरुदेव ! मुझे दुर्वासाने शाप देकर महिष बना दिया है। अब आप ही मुझे शरण दीजिये। मैं आपके प्रसादसे अपने पूर्वशरीरको पा जाऊँ और मेरी यह पशुयोनि नष्ट हो जाय। ऐसा उपाय कीजिये।’
शुक्राचार्यने कहा—’ एकमात्र भगवान् महेश्वरको छोड़कर दूसरा कोई भी ऐसा नहीं है, जो दुर्वासाके शापको पलट सके। इसलिये तुम शीघ्र ही हाटकेश्वरक्षेत्र में जाकर वहाँके परम उत्तम शिवलिंगकी आराधना करो।’
शुक्राचार्यके ऐसा कहनेपर वह दानव शीघ्र ही हाटकेश्वरक्षेत्रमें गया। वहाँ उसने भक्तिभावसे महान् शिवलिंगकी स्थापना करके कैलासशिखरके समान ऊँचा मन्दिर बनवाया और कठिन तपस्यामें तत्पर हो महादेवजीकी आराधना करने लगा। इस प्रकार उसका दीर्घकाल व्यतीत हुआ। तब महादेवजीने सन्तुष्ट होकर उसे प्रत्यक्ष दर्शन दिया। और कहा-‘दानव! मैं प्रसन्न हूँ, वर माँगो।’
महिष बोला- ‘मुझे दुर्वासाजीने शाप देकर भैंसा बना दिया है, आपके प्रसादसे मेरी यह पशुयोनि निवृत्त हो जाय। यही प्रार्थना है।’
भगवान् शिव बोले- ‘दुर्वासाके वचनको अन्यथा नहीं किया जा सकता, परंतु तुम्हारे सुखका एक उपाय मैं कर दूँगा, वह यह कि जितने भी दैव, मानव तथा आसुर भोग हैं, वे सब तुम्हें इस शरीरमें प्राप्त होंगे। भोगके लिये ही देवता और असुर मानव-शरीरकी इच्छा करते हैं। तुम्हारा यह शरीर उन सब भोगोंको प्राप्त करेगा।’
इस प्रकार चित्रसमको अपनी उद्दण्डताके कारण सुन्दर मनुष्योचित शरीरके स्थानपर भैंसेके ही शरीरमें जीवन-भर रहना पड़ा। यही उसकी उद्दण्डताका दण्ड था। [ स्कन्दपुराण ]