संत जनाबाई विठ्ठल को कभी अपनी माता, कभी पिता, कभी पुत्र तो कभी सखा मानती थीं अर्थात् मन की स्थिति कैसी भी हो, प्रत्येक प्रसंग में वह विठ्ठल के स्मरण में रहती थीं।
घर में कुल सदस्य संख्या १५ थी। वे दासी होने के कारण प्रायः घर के सभी काम उन्हीं को करने पड़ते थे, उदाहरणतया कपड़े धोना, पात्र (बरतन) स्वच्छता, नदी से पानी लाना, चक्की पीसना, धान कूटना, झाडू लगाना, घर, आंगन की लीपा-पोती करना, रंगोली सजाना, नगर से बाहर जाकर कंडे, लकडियां ढूंढ कर लाना ऐसे बहुत सारे काम उन्हें करने पडते थे परंतु विठ्ठल प्रायः उनके सभी कामों में उनकी सहायता करते थे। इतना ही नहीं विठ्ठल जनाबाई जी के केशों को माखन लगाकर उन्हें नहलाते, केश संवार कर कभी जूड़ा तो कभी चोटी बना कर उनका शृंगार भी करते हैं। साथ ही विठ्ठल प्रतिदिन रात में उनसे बातें करने आते थे और दोनो वार्तालाप में तन्मय हो जाते परंतु एक दिन बात करते करते विठ्ठल जी को निद्रा आ गई। समय पर जागृत ना होने से जनाबाई ने उन्हें जगाया।
विलंब होने के कारण हड़बड़ी में विठ्ठल अपना उपरणा तथा आभूषण वहीं भूल कर जनाबाई की चादर ओढ़ कर दौड़े-दौड़े मंदिर में जाकर खड़े हो गए। इतने में पूजा करने वाले ब्राह्मण आए और उन्होंने देखा कि भगवान विठ्ठल के अंग पर आभूषण तथा उपरणा न होकर एक फटी हुई चादर है। ब्राह्मणों को लगा कि चोरी हुई है।
राजा को वार्ता पहुंचायी गई। पूछ-ताछ करने पर ज्ञात हुआ कि वह फटी हुई चादर जनाबाई की है। लोग उनको चोर सम्बोधित कर पीटने लगे। जनाबाई विठ्ठल की दुहाई देने लगीं परंतु विठ्ठल के न आने पर जनाबाई को बडा क्रोध आया।
राजा ने जनाबाई को सूली पर चढ़ाने का आदेश दिया। राजाज्ञा के अनुसार चंद्रभागा नदी तट पर सूली की सब सिद्धता हो गयी। उन्हें अंतिम इच्छा पूछी तो, जनाबाई ने विठ्ठल के दर्शन की आस बतायी।
उन्हें दर्शन के लिए मंदिर ले जाया गया। वहां विठ्ठल रुआंसा मुख लेकर खड़े हैं, यह देखकर उनका वात्सल्य भाव जागृत हुआ और उन्होंने बडी वत्सलता से कहा – विठ्ठला! तुम्हें मेरे कारण बड़े श्रम उठाने पड़े, मुझ से बहुत अपराध हुए, मुझे क्षमा कर दो, कहते कहते उनके नेत्र भर आएं और विठ्ठल के गले से लिपट कर अपने पल्लू से विठ्ठल का मुख पोछते हुए जनाबाई उस को ही सांत्वना देने लगी कि ‘मेरे जीवनाधार तुम दुःखी ना हो।’
वहां से सब लोग चंद्रभागा नदी तट पर आए। जनाबाई ने नदी में स्नान किया। भक्त पुंडलीक के मंदिर में जाकर दर्शन किए और वे सूल के सामने खड़ी होते ही, उस सूल का रूपांतर एकाएक चंपक के फूलों से हरे-भरे वृक्ष में हुआ, सब लोग आश्चर्य से देखने लगे, तभी वृक्ष का भी पानी हो गया।
सभी लोगों ने जनाबाई का जय जयकार किया। उन्हें जब ब्रह्मज्ञान प्राप्त हुआ तो सर्वत्र विठ्ठल ही दिखाई देने लगा।
अपनी इसी अवस्था का वह वर्णन इस प्रकार करती हैं कि, अन्न रूप तथा जल रूप ब्रह्म का सेवन करती हूं, शय्या रूप ब्रह्म पर निद्रा लेती हूं। जीवन रूपी ब्रह्म से व्यवहार करती हूं, इस व्यवहार में मैं सबसे ब्रह्म लेती हूं और केवल ब्रह्म ही देती हूं। यहां-वहां चहुं ओर ब्रह्म देखती हूं, पूरे संसार में ब्रह्म नहीं ऐसा कुछ भी नहीं। अब तो मैं सबाह्य अंतरी ब्रह्म ही हो गयी।
उन्होंने अपने उदाहरण से समस्त संसार को दिखा दिया कि ईश्वर प्राप्ति के लिए कर्मकांड, धन-संपत्ति की, घर-संसार का त्याग करने की अथवा किसी भी आडंबर की आवश्यकता ना होकर केवल भगवान के प्रति शुद्ध भाव होना ही आवश्यक है।
इस महान संत कवयित्री जनाबाई ने श्री क्षेत्र पंढरपुर के महाद्वार में आषाढ कृष्ण त्रयोदशी संवत १२७२ को समाधि ली तथा विठ्ठल भगवान में विलीन हो गई।
चैत्र शुक्ल दशमी, विक्रम संवत २०८०