एक बार बुद्ध एक नगर के बाजार से गुजर रहे थे। तभी एक व्यक्ति उनके पास आया और बुद्ध को वंदन करते हुए बोला कि भगवान यहाँ का नगर सेठ आपकी निंदा करते हुए आपको कुछ बोल रहा था। अगर आज्ञा हो तो बताऊ की वह आपके लिए क्या बोल रहा था।
तब बुद्ध ने कहा की पहले मेरे तीन सवालो का जवाब दो फिर आगे देखते हैं कि नगर सेठ की बाते सुनना हैं या नहीं।
बुद्ध ने व्यक्ति से कहा- क्या तुम्हे लगता हैं कि नगर सेठ मेरे बारे में जो बाते बोला वो सत्य हैं?
तब व्यक्ति ने कहा- नहीं भगवन् मुझे तो उसकी बातो में तनिक भी भरोसा नहीं हैं। उसने बोला इसलिए मैं आपको बताना चाह रहा था।
बुद्ध ने दूसरा प्रश्न किया- क्या तुम्हे लगता हैं कि जिस बात को तुम बताने जा रहे हो उसे सुनकर मुझे दुःख होगा?
तब व्यक्ति ने कहा- हां भगवन् उसे सुनकर दुःख हो सकता हैं।
तब बुद्ध ने अंतिम प्रश्न किया- क्या तुम्हे लगता हैं जो बाते तुम मुझे बताओगे वह मेरे किसी काम की हैं या उससे मुझे कोई लाभ होगा
व्यक्ति ने जवाब दिया- नहीं भगवन् ये बातें न ही आपके किसी काम की हैं न ही आपको कोई लाभ होगा।
तब बुद्ध ने कहा- “मेरा हृदय एक शांत सरोवर हैं जिसमे मैं प्रेम दया करुणा के पुष्प रखता हूँ। जिस बात पर तुम्हे ही यकीन नहीं हैं, जिस बात को सुनकर मुझे दुःख हो और जो बात मेरे किसी काम की नहीं हैं अर्थात व्यर्थ हैं। ऐसी बातो को सुनकर मैं अपने शांत सरोवर रुपी हृदय को क्यूं मलीन करू”।
हम सभी लोगों के मन में अंहकार का,हिंसा का,तनाव का,जुगली-चाटी का,नकारात्मक सोच का इतनि भार पैदा कर लिया है कि उसके भार से दबे ही जा रहे हैं। निर्भार होते ही भीतर शान्ति जागती है। हम सभी
प्रेमपूर्ण हो जाते हैं,जीवन में परमात्मा उतर आते है।परमात्मा के आते ही हम कहने लगते है:–बस,ईश्वर
जीवन की गाड़ी आप ही
चलाईऐ !!
व्यक्ति को ज्ञान मिल चुका था कि किसी दूसरे की बात को सुन कर ही विश्वास कर लेना काफी नहीं हैं बल्कि स्वयं का विवेक जगाकर ऐसी निंदाजनक बातो से दूर रहना ही बेहतर हैं !!