प्रतिकूल परिस्थितिसे बचे रहो

boy river monk

क्या हुआ जो स्थूलभद्र पहिले अत्यन्त विलासी थे और उन्होंने बारह वर्ष नर्तकी कोशाके यहाँ व्यतीत किये थे। जब उनके चित्तमें विवेकका उदय हुआ, वे सचमुच जाग्रत हो गये। दीक्षा लेकर मुनिवेश ग्रहण करनेके अनन्तर उनका संयम, उनकी एकाग्रता, उनका वैराग्य कभी शिथिल नहीं पड़ा। आज आचार्य अपने शिष्पोंसे पूछ रहे थे वे चातुर्मास्य कहाँ करेंगे ?’ आचार्यके दो शिष्य उपयुक्त स्थान चुन चुके थे। तीसरेने कहा- ‘मैं सिंहकी गुहामें चातुर्मास्य करूँगा।’ उन्हें भी अनुमति मिल गयी। अन्तमें स्थूलभद्रसे पूछा गया तो वे बोले-‘मैं ये चार महीने कोशाके घर व्यतीत करना चाहता हूँ।’

“ये चार महीना तो क्या चार जन्म उसी पाप पङ्कमें व्यतीत करेंगे। वह नर्तकी इन्हें भूल कैसे सकती है।’ गुरु–भाइयोंने परस्पर कानाफूसी प्रारम्भ की। परंतु आचार्य गम्भीर हो गये। दो क्षण सोचकर उन्होंने कह दिया- ‘तथास्तु ।’

कोशा नर्तकी थी, वेश्या थी; किंतु स्थूलभद्र में उसका सच्चा अनुराग था। स्थूलभद्र जब उसे छोड़कर गये थे- रात-रात जगकर वह रोती रही थी। आज वही स्थूलभद्र उसके यहाँ पधारे थे, क्या हुआ जो अब वे मुनिवेशमें थे। कोशाने उनका स्वागत किया। उनके रहनेकी सुव्यवस्था की। उनको रिझानेके प्रयत्नमें लग गयी। वह नर्तकी थी, लोकरुचि परखना जानती थी और पुरुषको पहिचान सकती थी। शीघ्र ही उसने समझ लिया कि उसके आभूषण, उसके भव्य वस्त्र, उसका अद्भुत शृंगार अब स्थूलभद्रको आकर्षित नहीं कर सकता। यह सब उन त्यागीके चित्तको उससे अधिक विमुख करेगा। नर्तकी कोशाने आभूषण उतार दिये। शृंगार करना बंद कर दिया। वह केवल एक उज्वल साड़ी पहनने लगी। दासीकी भाँति स्थूलभद्रकी सेवामें लग गयी। इससे भी जब स्थूलभद्र आकृष्ट नहीं हुए, तब उनके पैरोंपर गिरकर एक दिन वह फूट-फूटकर रोने लगी।

स्थूलभद्र बोले- ‘कोश में बहुत दुखी हूँ तुम्हारे दुःखसे तुमने मेरे लिये जीवन अर्पित कर दिया, भोगत्याग दिये; किंतु सोचो तो सही कि क्या जीवन इसीलिये है? नारी क्या केवल भोगकी सामग्री मात्र है? तुम्हारे भीतर जो मातृत्व है, उसे पहिचानो। नारीका सच्चा रूप है माता। वह जगत्को मातृत्वका स्नेह देने उत्पन्न हुई है कोशा बहिन !’

विशुद्ध प्रेम हृदयमें वासना नहीं उत्पन्न करता, हृदयको वासनाशून्य करता है। कोशाका प्रेम शुद्ध था। उसकी वासना स्थूलभद्रके शब्दोंसे ही नष्ट हो गयी। उसने स्थूलभद्रके चरणोंमें मस्तक रख दिया। उन्हींसे दीक्षा ली उसने । उसका जीवन पवित्र बन गया।

चातुर्मास्य समाप्त करके शिष्य आचार्यके पास पहुँचे। स्थूलभद्रके सम्बन्धमें वे अनेक हीन सम्भावना कर रहे थे; किंतु स्थूलभद्र जब पहुँचे उनका शान्त, गम्भीर, ओजपूर्ण भाव देखकर सब शान्त रह गये। आचार्यने उन्हें अपने समीप आसन दिया।

अगला चातुर्मास्य आया तो आचार्यके तीसरे शिष्यने कोशाके यहाँ रहनेकी इच्छा प्रकट की। आचार्य बोले- ‘तुम अभी इसके योग्य नहीं हो।

‘जब सिंहकी गुफामें मैं निर्भय रह सका तो वहाँ भी स्थिर रहूँगा ।’ शिष्यने आग्रह किया और आचार्यने खिन्न मनसे अनुमति दे दी।

वे कोशाके घर पहुँचे कोशा अब नर्तकी नहीं थी। वह बहुत सादे वेशमें, संयमपूर्वक रहती थी। उसने नवीन मुनिका भी स्वागत किया। उनके रहनेकी भी सुव्यवस्था कर दी। कोशामें अब न मादक हाव भाव था और न मोहक श्रृंगार; किंतु उसके सौन्दर्यपर ही वे मुनि मुग्ध हो गये। अपने मनके संघर्ष से पराजित होकर उन्होंने अन्तमें कोशासे उसके रूपकी याचना की।

स्थूलभद्रकी शिष्या कोशा चौंकी। परंतु उसमें नर्तकीका कौशल तो था ही। उसने कहा- ‘मैं तो धनकी दासी हूँ। नैपालनरेशसे आप रत्न-कम्बल माँगकर ला सकें तो आपकी प्रार्थना मेँ स्वीकार करूँगी।’ वासना अंधी होती है। मुनिका संयम-नियम छूट गया। वे पैदल जंगल-पर्वतोंमें भटकते नेपाल पहुँचे और वहाँसे रत्न कम्बल लेकर लौटे। कोशाने उपेक्षापूर्वकरत्न-कम्बल लिया। उससे अपने पैर पोंछे और फेंक दिया उसे गंदी नालीमें।

इतने श्रमसे प्राप्त उपहारका यह अनादर देखकर मुनि क्रोधपूर्वक बोले—‘मूर्खे! इस दुर्लभ महामूल्य कम्बलको तु नालीमें फेंकती है !’ तू

कोशाने तीक्ष्णस्वरमें उत्तर दिया- ‘पहिले अपनी ओर देखो कि तुम अपना अमूल्य शीलरत्न कहाँ फेंक रहे हो।’मुनिको धक्का लगा, उनका सोया हुआ विवेक जाग उठा। उन्होंने हाथ जोड़कर मस्तक झुकाया-

‘मुझे क्षमा करो देवि! तुम मेरी उद्धारिका हो ।’ चातुर्मास्य कबका बीत चुका था। आचार्यके चरणोंमें उपस्थित होकर जब उन्होंने सब बातें बतायीं, तब आचार्य बोले—‘प्रतिकूल परिस्थितिसे बचे ही रहना चाहिये। संयमको स्थिर रखनेके लिये यह नितान्त आवश्यक है।’- सु0 सिं0

क्या हुआ जो स्थूलभद्र पहिले अत्यन्त विलासी थे और उन्होंने बारह वर्ष नर्तकी कोशाके यहाँ व्यतीत किये थे। जब उनके चित्तमें विवेकका उदय हुआ, वे सचमुच जाग्रत हो गये। दीक्षा लेकर मुनिवेश ग्रहण करनेके अनन्तर उनका संयम, उनकी एकाग्रता, उनका वैराग्य कभी शिथिल नहीं पड़ा। आज आचार्य अपने शिष्पोंसे पूछ रहे थे वे चातुर्मास्य कहाँ करेंगे ?’ आचार्यके दो शिष्य उपयुक्त स्थान चुन चुके थे। तीसरेने कहा- ‘मैं सिंहकी गुहामें चातुर्मास्य करूँगा।’ उन्हें भी अनुमति मिल गयी। अन्तमें स्थूलभद्रसे पूछा गया तो वे बोले-‘मैं ये चार महीने कोशाके घर व्यतीत करना चाहता हूँ।’
“ये चार महीना तो क्या चार जन्म उसी पाप पङ्कमें व्यतीत करेंगे। वह नर्तकी इन्हें भूल कैसे सकती है।’ गुरु-भाइयोंने परस्पर कानाफूसी प्रारम्भ की। परंतु आचार्य गम्भीर हो गये। दो क्षण सोचकर उन्होंने कह दिया- ‘तथास्तु ।’
कोशा नर्तकी थी, वेश्या थी; किंतु स्थूलभद्र में उसका सच्चा अनुराग था। स्थूलभद्र जब उसे छोड़कर गये थे- रात-रात जगकर वह रोती रही थी। आज वही स्थूलभद्र उसके यहाँ पधारे थे, क्या हुआ जो अब वे मुनिवेशमें थे। कोशाने उनका स्वागत किया। उनके रहनेकी सुव्यवस्था की। उनको रिझानेके प्रयत्नमें लग गयी। वह नर्तकी थी, लोकरुचि परखना जानती थी और पुरुषको पहिचान सकती थी। शीघ्र ही उसने समझ लिया कि उसके आभूषण, उसके भव्य वस्त्र, उसका अद्भुत शृंगार अब स्थूलभद्रको आकर्षित नहीं कर सकता। यह सब उन त्यागीके चित्तको उससे अधिक विमुख करेगा। नर्तकी कोशाने आभूषण उतार दिये। शृंगार करना बंद कर दिया। वह केवल एक उज्वल साड़ी पहनने लगी। दासीकी भाँति स्थूलभद्रकी सेवामें लग गयी। इससे भी जब स्थूलभद्र आकृष्ट नहीं हुए, तब उनके पैरोंपर गिरकर एक दिन वह फूट-फूटकर रोने लगी।
स्थूलभद्र बोले- ‘कोश में बहुत दुखी हूँ तुम्हारे दुःखसे तुमने मेरे लिये जीवन अर्पित कर दिया, भोगत्याग दिये; किंतु सोचो तो सही कि क्या जीवन इसीलिये है? नारी क्या केवल भोगकी सामग्री मात्र है? तुम्हारे भीतर जो मातृत्व है, उसे पहिचानो। नारीका सच्चा रूप है माता। वह जगत्को मातृत्वका स्नेह देने उत्पन्न हुई है कोशा बहिन !’
विशुद्ध प्रेम हृदयमें वासना नहीं उत्पन्न करता, हृदयको वासनाशून्य करता है। कोशाका प्रेम शुद्ध था। उसकी वासना स्थूलभद्रके शब्दोंसे ही नष्ट हो गयी। उसने स्थूलभद्रके चरणोंमें मस्तक रख दिया। उन्हींसे दीक्षा ली उसने । उसका जीवन पवित्र बन गया।
चातुर्मास्य समाप्त करके शिष्य आचार्यके पास पहुँचे। स्थूलभद्रके सम्बन्धमें वे अनेक हीन सम्भावना कर रहे थे; किंतु स्थूलभद्र जब पहुँचे उनका शान्त, गम्भीर, ओजपूर्ण भाव देखकर सब शान्त रह गये। आचार्यने उन्हें अपने समीप आसन दिया।
अगला चातुर्मास्य आया तो आचार्यके तीसरे शिष्यने कोशाके यहाँ रहनेकी इच्छा प्रकट की। आचार्य बोले- ‘तुम अभी इसके योग्य नहीं हो।
‘जब सिंहकी गुफामें मैं निर्भय रह सका तो वहाँ भी स्थिर रहूँगा ।’ शिष्यने आग्रह किया और आचार्यने खिन्न मनसे अनुमति दे दी।
वे कोशाके घर पहुँचे कोशा अब नर्तकी नहीं थी। वह बहुत सादे वेशमें, संयमपूर्वक रहती थी। उसने नवीन मुनिका भी स्वागत किया। उनके रहनेकी भी सुव्यवस्था कर दी। कोशामें अब न मादक हाव भाव था और न मोहक श्रृंगार; किंतु उसके सौन्दर्यपर ही वे मुनि मुग्ध हो गये। अपने मनके संघर्ष से पराजित होकर उन्होंने अन्तमें कोशासे उसके रूपकी याचना की।
स्थूलभद्रकी शिष्या कोशा चौंकी। परंतु उसमें नर्तकीका कौशल तो था ही। उसने कहा- ‘मैं तो धनकी दासी हूँ। नैपालनरेशसे आप रत्न-कम्बल माँगकर ला सकें तो आपकी प्रार्थना मेँ स्वीकार करूँगी।’ वासना अंधी होती है। मुनिका संयम-नियम छूट गया। वे पैदल जंगल-पर्वतोंमें भटकते नेपाल पहुँचे और वहाँसे रत्न कम्बल लेकर लौटे। कोशाने उपेक्षापूर्वकरत्न-कम्बल लिया। उससे अपने पैर पोंछे और फेंक दिया उसे गंदी नालीमें।
इतने श्रमसे प्राप्त उपहारका यह अनादर देखकर मुनि क्रोधपूर्वक बोले—‘मूर्खे! इस दुर्लभ महामूल्य कम्बलको तु नालीमें फेंकती है !’ तू
कोशाने तीक्ष्णस्वरमें उत्तर दिया- ‘पहिले अपनी ओर देखो कि तुम अपना अमूल्य शीलरत्न कहाँ फेंक रहे हो।’मुनिको धक्का लगा, उनका सोया हुआ विवेक जाग उठा। उन्होंने हाथ जोड़कर मस्तक झुकाया-
‘मुझे क्षमा करो देवि! तुम मेरी उद्धारिका हो ।’ चातुर्मास्य कबका बीत चुका था। आचार्यके चरणोंमें उपस्थित होकर जब उन्होंने सब बातें बतायीं, तब आचार्य बोले—‘प्रतिकूल परिस्थितिसे बचे ही रहना चाहिये। संयमको स्थिर रखनेके लिये यह नितान्त आवश्यक है।’- सु0 सिं0

Share on whatsapp
Share on facebook
Share on twitter
Share on pinterest
Share on telegram
Share on email

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *