कामासक्तिसे विनाश
शंखचूड नामसे प्रसिद्ध एक बलवान् यक्ष था, जो कुबेरका सेवक था । इस भूतलपर उसके समान गदायुद्ध विशारद योद्धा दूसरा कोई नहीं था। एक दिन नारदजीके मुँहसे उग्रसेनकुमार कंसके उत्कट बलकी बात सुनकर वह प्रचण्ड पराक्रमी यक्षराज लाख भार लोहेकी बनी हुई भारी गदा लेकर अपने निवासस्थानसे मथुरामें आया। उस मदोन्मत्त वीरने राजसभामें पहुँचकर वहाँ सिंहासनपर बैठे हुए कंसको प्रणाम किया और कहा – ‘राजन् ! सुना है कि तुम त्रिभुवनविजयी वीर हो; इसलिये मुझे अपने साथ गदायुद्धका अवसर दो। यदि तुम विजयी हुए तो मैं तुम्हारा दास हो जाऊँगा और यदि मैं विजयी हुआ तो तत्काल तुम्हें अपना दास बना लूँगा।’ तब ‘तथास्तु’ कहकर, एक विशाल गदा हाथमें ले, कंस रंगभूमिमें शंखचूडके साथ युद्ध करने लगा। उन दोनोंमें घोर गदायुद्ध प्रारम्भ हो गया। दोनोंके परस्पर आघात प्रत्याघातसे होनेवाला चट-चट शब्द प्रलयकालके मेघोंकी गर्जना और बिजलीकी गड़गड़ाहटके समान जान पड़ता था। उस रंगभूमिमें दो मल्लों, नाट्यमण्डलीके दो नहीं, विशाल अंगवाले दो गजराजों तथा दो उद्भट सिंहोंके समान कंस और शंखचूड परस्पर जूझ रहे थे। एक दूसरेको जीत लेनेकी इच्छासे जूझते हुए उन दोनों वीरोंकी गदाएँ आगकी चिनगारियाँ बरसाती हुई परस्पर टकराकर चूर-चूर हो गयीं। अत्यन्त कोपसे भरे हुए कंसने यक्षको मुक्केसे मारा; तब शंखचूडने भी कंसपर मुक्केसे प्रहार किया। इस तरह मुक्का-मुक्की करते हुए उन दोनोंको सत्ताईस दिन बीत गये। दोनोंमेंसे किसीका बल क्षीण नहीं हुआ। दोनों ही एक-दूसरेके पराक्रमसे चकित थे। तदनन्तर दैत्यराज महाबली कंसने शंखचूडको सहसा पकड़कर बलपूर्वक आकाशमें फेंक दिया। वह सौ योजन ऊपर चला गया। शंखचूड आकाशसे जब वेगपूर्वक नीचे गिरा तो उसके मनमें किंचित् व्याकुलता आ गयी, तथापि उसने भी कंसको पकड़कर आकाशमें दस हजार योजन ऊँचे फेंक दिया। कंस भी आकाशसे गिरनेपर मन-ही-मन कुछ व्याकुल हो उठा। फिर उसने यक्षको पकड़कर सहसा पृथ्वीपर दे मारा। फिर शंखचूडने भी कंसको पकड़कर भूमिपर पटक दिया। इस प्रकार घोर युद्ध चलते रहनेके कारण भूमण्डल काँपने लगा। इसी बीचमें सर्वज्ञ मुनिवर साक्षात् गर्गाचार्यजी वहाँ आ गये। दोनोंने रंगभूमिमें उन्हें देखकर प्रणाम किया। तब गर्गने ओजस्विनी वाणीमें कंससे कहा
राजेन्द्र ! युद्ध न करो। इस युद्ध से कोई फल मिलनेवाला नहीं है। यह महाबली शंखचूड तुम्हारे समान ही वीर है। तुम्हारे मुक्केकी मार खाकर गजराज ऐरावतने धरतीपर घुटने टेक दिये थे और उसे अत्यन्त मूर्च्छा आ गयी थी। और भी बहुत-से दैत्य तुम्हारे मुक्केकी मार खाकर मृत्युके ग्रास बन गये हैं, परंतु शंखचूड धराशायी नहीं हो सका। इसमें संदेह नहीं कि यह तुम्हारे लिये अजेय है। इसका कारण सुनो। वे परिपूर्णतम परमात्मा जैसे तुम्हारा वध करनेवाले हैं, उसी तरह भगवान् शिवके वरसे बलशाली हुए इस शंखचूडको भी मारेंगे। अतः यदुनन्दन ! तुम्हें शंखचूडपर प्रेम करना चाहिये। यक्षराज ! तुम्हें भी अवश्य ही कंसपर प्रेमभाव रखना चाहिये।
गर्गाचार्यजीके यों कहने पर शंखचूड तथा कंस दोनों परस्पर मिले और एक-दूसरेसे अत्यन्त प्रेम करने लगे। तदनन्तर कंससे बिदा ले शंखचूड अपने घरको जाने लगा। रात्रिके समय मार्गमें उसे रासमण्डल मिला। वहाँ ताल – स्वरसे युक्त मनोहर गान उसके कानमें पड़ा । फिर उसने रासमें श्रीरासेश्वरीके साथ रासेश्वर श्रीकृष्णका दर्शन किया। उन्हें अत्यन्त कोमल शिशु जानकर शंखचूडने गोपियोंको हर ले जानेका विचार किया।
शंखचूडका मुँह था बाघके समान और शरीरका रंग था एकदम काला-कलूटा। वह दस ताड़के बराबर ऊँचा था और जीभ लपलपाकर जबड़े चाटता हुआ बड़ा भयंकर जान पड़ता था । उसे देखकर गोपांगनाएँ भयसे थर्रा उठीं और चारों ओर भागने लगीं। इससे महान् कोलाहल होने लगा। इस प्रकार शंखचूडके आते ही रासमण्डलमें हाहाकार मच गया। वह कामपीड़ित दुष्ट यक्षराज शतचन्द्रानना नामवाली गोपसुन्दरीको पकड़कर बिना किसी भय और आशंकाके उत्तर दिशाकी ओर दौड़ चला। शतचन्द्रानना भयसे व्याकुल हो ‘कृष्ण ! कृष्ण !!’ पुकारती हुई रोने लगी। यह देख श्रीकृष्ण अत्यन्त कुपित हो, शालका वृक्ष हाथमें लिये, उसके पीछे दौड़े। कालके समान दुर्जय श्रीकृष्णको पीछा करते देख यक्ष उस गोपीको छोड़कर भयसे विह्वल हो प्राण बचानेकी इच्छासे भागा। महादुष्ट शंखचूड भागकर जहाँ-जहाँ गया, वहाँ-वहाँ श्रीकृष्ण भी शालवृक्ष हाथमें लिये अत्यन्त रोषपूर्वक गये।
हिमालयकी घाटीमें पहुँचकर उस यक्षराजने भी एक शाल उखाड़ लिया और उनके सामने विशेषतः युद्धकी इच्छासे वह खड़ा हो गया। भगवान्ने अपने बाहुबलसे शंखचूडपर उस शालवृक्षको दे मारा। उसके आघातसे शंखचूड आँधीके उखाड़े हुए पेड़की भाँति पृथ्वीपर गिर पड़ा। शंखचूडने फिर उठकर भगवान् श्रीकृष्णको मुक्केसे मारा। मारकर वह दुष्ट यक्ष सम्पूर्ण दिशाओंको निनादित करता हुआ सहसा गरजने लगा। तब श्रीहरिने उसे दोनों हाथों से पकड़ लिया और भुजाओंके बलसे घुमाकर उसी तरह पृथ्वीपर पटक दिया, जैसे वायु उखाड़े हुए कमलको फेंक देती है। शंखचूडने भी श्रीकृष्णको पकड़कर धरतीपर दे मारा। जब इस प्रकार युद्ध चलने लगा, तब सारा भूमण्डल काँप उठा। तब माधव श्रीकृष्णने मुक्केकी मारसे उसके सिरको धड़से अलग कर दिया और उसकी चूडामणि ले ली।
इस प्रकार अत्यन्त बलशाली होते हुए भी अनुचित कामासक्तिके कारण शंखचूड़ मारा गया। [ गर्गसंहिता ]
कामासक्तिसे विनाश
शंखचूड नामसे प्रसिद्ध एक बलवान् यक्ष था, जो कुबेरका सेवक था । इस भूतलपर उसके समान गदायुद्ध विशारद योद्धा दूसरा कोई नहीं था। एक दिन नारदजीके मुँहसे उग्रसेनकुमार कंसके उत्कट बलकी बात सुनकर वह प्रचण्ड पराक्रमी यक्षराज लाख भार लोहेकी बनी हुई भारी गदा लेकर अपने निवासस्थानसे मथुरामें आया। उस मदोन्मत्त वीरने राजसभामें पहुँचकर वहाँ सिंहासनपर बैठे हुए कंसको प्रणाम किया और कहा – ‘राजन् ! सुना है कि तुम त्रिभुवनविजयी वीर हो; इसलिये मुझे अपने साथ गदायुद्धका अवसर दो। यदि तुम विजयी हुए तो मैं तुम्हारा दास हो जाऊँगा और यदि मैं विजयी हुआ तो तत्काल तुम्हें अपना दास बना लूँगा।’ तब ‘तथास्तु’ कहकर, एक विशाल गदा हाथमें ले, कंस रंगभूमिमें शंखचूडके साथ युद्ध करने लगा। उन दोनोंमें घोर गदायुद्ध प्रारम्भ हो गया। दोनोंके परस्पर आघात प्रत्याघातसे होनेवाला चट-चट शब्द प्रलयकालके मेघोंकी गर्जना और बिजलीकी गड़गड़ाहटके समान जान पड़ता था। उस रंगभूमिमें दो मल्लों, नाट्यमण्डलीके दो नहीं, विशाल अंगवाले दो गजराजों तथा दो उद्भट सिंहोंके समान कंस और शंखचूड परस्पर जूझ रहे थे। एक दूसरेको जीत लेनेकी इच्छासे जूझते हुए उन दोनों वीरोंकी गदाएँ आगकी चिनगारियाँ बरसाती हुई परस्पर टकराकर चूर-चूर हो गयीं। अत्यन्त कोपसे भरे हुए कंसने यक्षको मुक्केसे मारा; तब शंखचूडने भी कंसपर मुक्केसे प्रहार किया। इस तरह मुक्का-मुक्की करते हुए उन दोनोंको सत्ताईस दिन बीत गये। दोनोंमेंसे किसीका बल क्षीण नहीं हुआ। दोनों ही एक-दूसरेके पराक्रमसे चकित थे। तदनन्तर दैत्यराज महाबली कंसने शंखचूडको सहसा पकड़कर बलपूर्वक आकाशमें फेंक दिया। वह सौ योजन ऊपर चला गया। शंखचूड आकाशसे जब वेगपूर्वक नीचे गिरा तो उसके मनमें किंचित् व्याकुलता आ गयी, तथापि उसने भी कंसको पकड़कर आकाशमें दस हजार योजन ऊँचे फेंक दिया। कंस भी आकाशसे गिरनेपर मन-ही-मन कुछ व्याकुल हो उठा। फिर उसने यक्षको पकड़कर सहसा पृथ्वीपर दे मारा। फिर शंखचूडने भी कंसको पकड़कर भूमिपर पटक दिया। इस प्रकार घोर युद्ध चलते रहनेके कारण भूमण्डल काँपने लगा। इसी बीचमें सर्वज्ञ मुनिवर साक्षात् गर्गाचार्यजी वहाँ आ गये। दोनोंने रंगभूमिमें उन्हें देखकर प्रणाम किया। तब गर्गने ओजस्विनी वाणीमें कंससे कहा
राजेन्द्र ! युद्ध न करो। इस युद्ध से कोई फल मिलनेवाला नहीं है। यह महाबली शंखचूड तुम्हारे समान ही वीर है। तुम्हारे मुक्केकी मार खाकर गजराज ऐरावतने धरतीपर घुटने टेक दिये थे और उसे अत्यन्त मूर्च्छा आ गयी थी। और भी बहुत-से दैत्य तुम्हारे मुक्केकी मार खाकर मृत्युके ग्रास बन गये हैं, परंतु शंखचूड धराशायी नहीं हो सका। इसमें संदेह नहीं कि यह तुम्हारे लिये अजेय है। इसका कारण सुनो। वे परिपूर्णतम परमात्मा जैसे तुम्हारा वध करनेवाले हैं, उसी तरह भगवान् शिवके वरसे बलशाली हुए इस शंखचूडको भी मारेंगे। अतः यदुनन्दन ! तुम्हें शंखचूडपर प्रेम करना चाहिये। यक्षराज ! तुम्हें भी अवश्य ही कंसपर प्रेमभाव रखना चाहिये।
गर्गाचार्यजीके यों कहने पर शंखचूड तथा कंस दोनों परस्पर मिले और एक-दूसरेसे अत्यन्त प्रेम करने लगे। तदनन्तर कंससे बिदा ले शंखचूड अपने घरको जाने लगा। रात्रिके समय मार्गमें उसे रासमण्डल मिला। वहाँ ताल – स्वरसे युक्त मनोहर गान उसके कानमें पड़ा । फिर उसने रासमें श्रीरासेश्वरीके साथ रासेश्वर श्रीकृष्णका दर्शन किया। उन्हें अत्यन्त कोमल शिशु जानकर शंखचूडने गोपियोंको हर ले जानेका विचार किया।
शंखचूडका मुँह था बाघके समान और शरीरका रंग था एकदम काला-कलूटा। वह दस ताड़के बराबर ऊँचा था और जीभ लपलपाकर जबड़े चाटता हुआ बड़ा भयंकर जान पड़ता था । उसे देखकर गोपांगनाएँ भयसे थर्रा उठीं और चारों ओर भागने लगीं। इससे महान् कोलाहल होने लगा। इस प्रकार शंखचूडके आते ही रासमण्डलमें हाहाकार मच गया। वह कामपीड़ित दुष्ट यक्षराज शतचन्द्रानना नामवाली गोपसुन्दरीको पकड़कर बिना किसी भय और आशंकाके उत्तर दिशाकी ओर दौड़ चला। शतचन्द्रानना भयसे व्याकुल हो ‘कृष्ण ! कृष्ण !!’ पुकारती हुई रोने लगी। यह देख श्रीकृष्ण अत्यन्त कुपित हो, शालका वृक्ष हाथमें लिये, उसके पीछे दौड़े। कालके समान दुर्जय श्रीकृष्णको पीछा करते देख यक्ष उस गोपीको छोड़कर भयसे विह्वल हो प्राण बचानेकी इच्छासे भागा। महादुष्ट शंखचूड भागकर जहाँ-जहाँ गया, वहाँ-वहाँ श्रीकृष्ण भी शालवृक्ष हाथमें लिये अत्यन्त रोषपूर्वक गये।
हिमालयकी घाटीमें पहुँचकर उस यक्षराजने भी एक शाल उखाड़ लिया और उनके सामने विशेषतः युद्धकी इच्छासे वह खड़ा हो गया। भगवान्ने अपने बाहुबलसे शंखचूडपर उस शालवृक्षको दे मारा। उसके आघातसे शंखचूड आँधीके उखाड़े हुए पेड़की भाँति पृथ्वीपर गिर पड़ा। शंखचूडने फिर उठकर भगवान् श्रीकृष्णको मुक्केसे मारा। मारकर वह दुष्ट यक्ष सम्पूर्ण दिशाओंको निनादित करता हुआ सहसा गरजने लगा। तब श्रीहरिने उसे दोनों हाथों से पकड़ लिया और भुजाओंके बलसे घुमाकर उसी तरह पृथ्वीपर पटक दिया, जैसे वायु उखाड़े हुए कमलको फेंक देती है। शंखचूडने भी श्रीकृष्णको पकड़कर धरतीपर दे मारा। जब इस प्रकार युद्ध चलने लगा, तब सारा भूमण्डल काँप उठा। तब माधव श्रीकृष्णने मुक्केकी मारसे उसके सिरको धड़से अलग कर दिया और उसकी चूडामणि ले ली।
इस प्रकार अत्यन्त बलशाली होते हुए भी अनुचित कामासक्तिके कारण शंखचूड़ मारा गया। [ गर्गसंहिता ]