सोमं सुत्वात्र संसारं सारं कुर्वीत तत्त्ववित् ।
यथाऽऽसीत् सुत्वचा पाला दत्वेन्द्राय मुखच्युतम् ll
(नीतिमञ्जरी 130)
महर्षि अत्रिका आश्रम उनकी तपस्याका पवित्र प्रतीक था। चारों ओर अनुपम शान्ति और दिव्य आनन्दकी वृष्टि निरन्तर होती रहती थी। यज्ञकी धूमशिखाओं और वेद मन्त्रोंके उच्चारणसे आश्रमके कण-कणमें रमणीयताका निवास था। महर्षि आनन्दमग्र रहकर भी सदा उदास दीख पड़ते थे। उनकी उदासीका एकमात्र कारण थी अपाला वह उनकी स्नेहसिक्ता कन्या थी । चर्मरोगसे उसका शरीर बिगड़ गया था। श्वेत कुष्ठके दागोंसे उसकी अङ्ग कान्ति म्लान दीखती थी। पतिने इसी रोगके कारण उसे अपने आश्रमसे निकाल दिया था, वह बहुत समयसे अपने पिताके ही आश्रम में रहकर समय काट रही थी। दिन-प्रति-दिन उसका यौवन गलता जा रहा था; महर्षि अत्रिके अनन्य स्नेहसे उसके प्राणकी दीप शिखा प्रकाशित थी। चर्मरोगकी निवृत्तिके लिये अपालाने इन्द्रकी शरण ली। वह बड़ी निष्ठासे उनकी उपासनामें लग गयी। वह जानती थी कि इन्द्र सोमरससे प्रसन्न होते हैं। उसकी हार्दिक इच्छा थी कि इन्द्र प्रत्यक्ष दर्शन देकर सोम स्वीकार करें।
‘कितनी निर्मल चाँदनी है। चन्द्रमा ऐसा लगता है मानो उसने अभी-अभी अमृतरसागरमें स्नान किया है या कामधेनुके दूधसे ऋषियोंने उसका अभिषेक किया है।’ सरोवरमें स्नानकर अपालाने जलसे भराकलश कंधेपर रख लिया, वह प्रसन्न थी-रातने अभी पहले पहरमें ही प्रवेश किया था वह आश्रमकी ओर चली जा रही थी।
निस्संदेह आज इन्द्र मुझसे बहुत प्रसन्न है, मुझे अपना सर्वस्व मिल गया।’ उसने रास्तेमें सोमलता देखी और परीक्षाके लिये दाँतोंसे लगाते ही सोमाभिषव सम्पन्न हो गया, उसके दाँतसे सोमरस-कण पृथ्वीपर गिर पड़े। सोमलता प्रामिसे उसे महान् आनन्द हुआ उसकी तपस्या सोमलताके रूपमें मूर्तिमती हो उठी। अपालाने रास्ते में ही एक दिव्य पुरुषका दर्शन किया।
‘मैं सोमपानके लिये घर-घर घूमता रहता हूँ। आज इस समय तुम्हारी सोमाभिषव क्रियासे मैं अपने आप ‘चला आया।’ दिव्य स्वर्णरथसे उतरकर इन्द्रने अपना परिचय दिया। देवराजने सोमपान किया। उन्होंने सिके स्वरमें वरदान माँगनेकी प्रेरणा दी।
‘आपकी प्रसन्नता ही मेरी इच्छा पूर्ति है। उपास्यका दर्शन हो जाय, इससे बढ़कर दूसरा सौभाग्य ही क्या है?’ ब्रह्मवादिनी ऋषिकन्याने इन्द्रकी स्तुति की।
‘सच्ची भक्ति कभी निष्फल नहीं होती है, देवि!’ इन्द्रने अपालाको पकड़कर अपने रथ छिद्रसे उसे तीन बार निकाला। उनकी कृपासे चर्मरोग दूर हो गया, वह सूर्यकी प्रभासी प्रदीस हो उठी। ऋषि अत्रिने कन्याको आशीर्वाद दिया। अपाला अपने पतिके घर गयी। उपासना के फलस्वरूप उसका दाम्पत्य-जीवन सरस हो उठा।
-रा0 श्री0
(बृहद्देवता अ0 6 99-106)
सोमं सुत्वात्र संसारं सारं कुर्वीत तत्त्ववित् ।
यथाऽऽसीत् सुत्वचा पाला दत्वेन्द्राय मुखच्युतम् ll
(नीतिमञ्जरी 130)
महर्षि अत्रिका आश्रम उनकी तपस्याका पवित्र प्रतीक था। चारों ओर अनुपम शान्ति और दिव्य आनन्दकी वृष्टि निरन्तर होती रहती थी। यज्ञकी धूमशिखाओं और वेद मन्त्रोंके उच्चारणसे आश्रमके कण-कणमें रमणीयताका निवास था। महर्षि आनन्दमग्र रहकर भी सदा उदास दीख पड़ते थे। उनकी उदासीका एकमात्र कारण थी अपाला वह उनकी स्नेहसिक्ता कन्या थी । चर्मरोगसे उसका शरीर बिगड़ गया था। श्वेत कुष्ठके दागोंसे उसकी अङ्ग कान्ति म्लान दीखती थी। पतिने इसी रोगके कारण उसे अपने आश्रमसे निकाल दिया था, वह बहुत समयसे अपने पिताके ही आश्रम में रहकर समय काट रही थी। दिन-प्रति-दिन उसका यौवन गलता जा रहा था; महर्षि अत्रिके अनन्य स्नेहसे उसके प्राणकी दीप शिखा प्रकाशित थी। चर्मरोगकी निवृत्तिके लिये अपालाने इन्द्रकी शरण ली। वह बड़ी निष्ठासे उनकी उपासनामें लग गयी। वह जानती थी कि इन्द्र सोमरससे प्रसन्न होते हैं। उसकी हार्दिक इच्छा थी कि इन्द्र प्रत्यक्ष दर्शन देकर सोम स्वीकार करें।
‘कितनी निर्मल चाँदनी है। चन्द्रमा ऐसा लगता है मानो उसने अभी-अभी अमृतरसागरमें स्नान किया है या कामधेनुके दूधसे ऋषियोंने उसका अभिषेक किया है।’ सरोवरमें स्नानकर अपालाने जलसे भराकलश कंधेपर रख लिया, वह प्रसन्न थी-रातने अभी पहले पहरमें ही प्रवेश किया था वह आश्रमकी ओर चली जा रही थी।
निस्संदेह आज इन्द्र मुझसे बहुत प्रसन्न है, मुझे अपना सर्वस्व मिल गया।’ उसने रास्तेमें सोमलता देखी और परीक्षाके लिये दाँतोंसे लगाते ही सोमाभिषव सम्पन्न हो गया, उसके दाँतसे सोमरस-कण पृथ्वीपर गिर पड़े। सोमलता प्रामिसे उसे महान् आनन्द हुआ उसकी तपस्या सोमलताके रूपमें मूर्तिमती हो उठी। अपालाने रास्ते में ही एक दिव्य पुरुषका दर्शन किया।
‘मैं सोमपानके लिये घर-घर घूमता रहता हूँ। आज इस समय तुम्हारी सोमाभिषव क्रियासे मैं अपने आप ‘चला आया।’ दिव्य स्वर्णरथसे उतरकर इन्द्रने अपना परिचय दिया। देवराजने सोमपान किया। उन्होंने सिके स्वरमें वरदान माँगनेकी प्रेरणा दी।
‘आपकी प्रसन्नता ही मेरी इच्छा पूर्ति है। उपास्यका दर्शन हो जाय, इससे बढ़कर दूसरा सौभाग्य ही क्या है?’ ब्रह्मवादिनी ऋषिकन्याने इन्द्रकी स्तुति की।
‘सच्ची भक्ति कभी निष्फल नहीं होती है, देवि!’ इन्द्रने अपालाको पकड़कर अपने रथ छिद्रसे उसे तीन बार निकाला। उनकी कृपासे चर्मरोग दूर हो गया, वह सूर्यकी प्रभासी प्रदीस हो उठी। ऋषि अत्रिने कन्याको आशीर्वाद दिया। अपाला अपने पतिके घर गयी। उपासना के फलस्वरूप उसका दाम्पत्य-जीवन सरस हो उठा।
-रा0 श्री0
(बृहद्देवता अ0 6 99-106)