(6) वीणाके तार
भगवान् बुद्धका एक शिष्य था श्रौण। श्रौण कभी राजा था। एक बार भगवान् बुद्ध उसके राज्यमें गये । श्रीणने उनका उपदेश सुना तो एकदम वैराग्य जागा । तत्काल वह अपने पुत्रको राज्य सौंपकर और मन्त्रियोंको संरक्षक नियतकर बुद्धका शिष्य हो गया और भिक्षु होकर उनके साथ ही चल दिया। बुद्धके अन्य शिष्य भी थे, परंतु यह अद्भुत शिष्य था। अन्य शिष्य जितना तप करते थे, श्रौण उनसे दुगना करता था। शिष्य दो समय भोजन करते तो वह एक ही समय आहार लेता और शिष्य यदि
एक समय आहार लेते तो वह आहार लेना ही बन्द कर देता। शिष्य यदि भूमिपर शयन करते तो श्रण काँटे बिछाकर उसपर लेटता था । छः महीनेमें श्रौणकी हालत खराब हो गयी, वह सूखकर काँटा हो गया। स्थिति मरणासन्न हो गयी, तब अन्य शिष्योंने इस बातको भगवान् बुद्ध से कहा कि इस तरह तो यह मर ही जायगा।
तब बुद्धने श्रौणको बुलाया और कहा – ‘श्रौण ! आज मैं तुमसे एक बात पूछता हूँ। मैंने सुना है कि जब तू राजा था, तब तुझे वीणा बजानेका बड़ा शौक था और वीणा अच्छी बजा लेता था।’ श्रौणने कहा- ‘हाँ भन्ते ! यह सत्य है। मैं वीणा बजानेमें सिद्धहस्त था । ‘
बुद्धने कहा- ‘मैं यह जानना चाहता हूँ कि वीणा संगीत कब निकलता है ? तार ज्यादा कसते चले जायँ तब या तार बिलकुल ढीले हों, तब ?’ श्रौण बोला- ‘नहीं भन्ते! दोनों ही स्थितियोंमें संगीत नहीं निकलता। तार ज्यादा कसते चले जायँ तो तार टूट जायँगे और तब संगीत नहीं निकलेगा और अगर बिलकुल ढीले छोड़ दें, तो भर-भर्र-जैसी कर्कश ध्वनि निकलेगी, संगीत नहीं।’ बुद्धने कहा-‘तो संगीत किस स्थितिमें निकलेगा ?’ श्रौणने कहा-‘संगीत तो तभी निकलेगा, जब तार न अधिक कसे हों और न अधिक ढीले हों, अपितु मध्यमें स्थित हों, सम हों।’
भगवान् बुद्ध बोले- ‘श्रौण! यही मैं कहना चाहता हूँ। जीवनमें शान्तिका — परम तृप्तिका – आनन्दका संगीत तभी मिलता है, जब जीवन समतामें-मध्यमें स्थित होता है। जब तू राजा था तो भोगमें अत्यधिक लिप्त था और अब जब भिक्षु हो गया तो त्यागमें अति कर दी। ये दो स्थितियाँ अतियाँ ही हैं, इसलिये एक सूत्र देता हूँ ‘अति सर्वत्र वर्जयेत्।’ अतिको छोड़ तू मध्यमें स्थित हो जा, तभी तू शान्तिका अनुभव करेगा। यह निर्वाणका सही रास्ता है। शाश्वत शान्तिके पास जानेका यही तरीका है।’ [ डॉ0 श्रीरामस्वरूपजी ब्रजपुरिया, विद्यावाचस्पति ]
(6) Strings of Veena
Shraun was a disciple of Lord Buddha. Shraun was once a king. Once Lord Buddha went to his kingdom. When Shrina heard his sermon, complete disinterest was awakened. Immediately, handing over the kingdom to his son and appointing his ministers as guardians, he became a disciple of Buddha and went with him as a monk. Buddha had other disciples too, but this was a wonderful disciple. Shraun used to do twice as much penance as other disciples. If the disciple used to eat two times, he would take food at the same time and if the disciple
If he had taken food once, he would have stopped taking food. If the disciple used to sleep on the ground, he used to lie down on it by spreading thorns. Shraun’s condition deteriorated in six months, he dried up and became a thorn. The situation became fatal, then other disciples told this thing to Lord Buddha that in this way he would surely die.
Then Buddha called Shraun and said – ‘ Shraun! Today I ask you one thing. I have heard that when you were a king, you were very fond of playing the veena and used to play the veena very well.’ Shraun said – ‘ Yes Bhante! This is true. I was proficient in playing the Veena. ,
Buddha said- ‘I want to know when Veena music comes out? Should the strings be tightened more or should the strings be completely loose?’ Shraun said – ‘No Bhante! In both cases the music does not come out. If the strings are tightened too much, then the strings will break and then music will not come out and if left completely loose, then there will be a hoarse sound, not music.’ Buddha said – ‘Then in what condition will the music emerge?’ Shraun said – ‘Music will come out only when the strings are neither too tight nor too loose, but are located in the middle, are equal.’
Lord Buddha said – ‘Shraun! That’s what I want to say. The music of peace – ultimate satisfaction – joy is found in life only when life is situated in equality-middle. When you were a king, you were very much indulged in enjoyment and now when you have become a monk, you have done excessive in renunciation. These two conditions are only extremes, that’s why I give a formula ‘excessive everywhere’. Leave the extremes and settle in the middle, only then you will experience peace. This is the right path to Nirvana. This is the way to approach eternal peace.’ [ Dr. Shriramswaroopji Brajpuria, Vidyavachaspati ]