समर्थ होकर भी चिकित्सा न करनेवाला निन्दाका पात्र होता है

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समर्थ होकर भी चिकित्सा न करनेवाला निन्दाका पात्र होता है

अभिमन्युके पुत्र राजा परीक्षित् धर्मके अनुसार इस पृथ्वीका पालन करते हुए हस्तिनापुरमें निवास करते थे। एक समय वे मृगयामें अनुरक्त होकर वनमें घूम रहे थे। उस समय उनकी अवस्था साठ वर्षकी हो गयी थी। वे भूख और प्याससे पीड़ित थे। घूमते घूमते उन्होंने एक ध्यानमग्न मुनिको देखकर पूछा ‘मुने! मैंने इस समय वनमें अपने बाणसे एक मृगको घायल किया है। वह भयसे कातर होकर भाग गया है। क्या आपने उसे देखा है ?’ मुनिकी समाधि लग गयी थी, उन्होंने मौन रहनेका व्रत भी लिया था, इस कारण राजाको कुछ भी उत्तर नहीं दिया। तब राजाने कुपित हो एक मरे हुए साँपको धनुषसे उठाकर मुनिके कन्धे पर रख दिया और अपने नगरकी राह ली। मुनिके एक पुत्र था, जिसका नाम श्रृंगी था। शृंगीका कृष नामवाला कोई श्रेष्ठ द्विज मित्र था। उसने विवादमें अपने मित्र श्रृंगीसे व्यंग्यपूर्वक कहा-‘सखे! तुम्हारे पिता इस समय मरा हुआ साँप कन्धेपर ढो रहे हैं। तुम बहुत घमण्ड न दिखाया करो और मेरे आगे यह व्यर्थ क्रोध न किया करो।’
यह सुनकर श्रृंगी कुपित हो उठा और शाप देते हुए बोला- ‘जिस मूढबुद्धि मानवने मेरे पिताके कन्धेपर मरा हुआ साँप रखा है, वह सातवें दिन तक्षक नागके काटनेपर मृत्युको प्राप्त होगा।’ इस प्रकार उस मुनिकुमारने उत्तरानन्दन परीक्षित्‌को शाप दे दिया। उसके पिता शमीक मुनिने जब यह सुना कि मेरे पुत्रने राजाको शाप दिया है, तब वे उससे बोले-‘अरे! समस्त लोगोंकी रक्षा करनेवाले राजाको तूने क्यों शाप दिया ? राजाके न रहनेपर हमलोग संसारमें सुखपूर्वक कैसे रह सकेंगे ? क्रोधसे पाप होता है और दयासे सुख मिलता है। जो मनुष्य मनमें आये हुए क्रोधको क्षमासे शान्त कर देता है, वह इहलोक और परलोकमें भी अतिशय सुखका भागी होता है। क्षमायुक्त मनुष्य ही उत्तम श्रेय प्राप्त करते हैं।’ बेटेको इस प्रकार समझाकर शमीकने दौर्मुख नामवाले अपने शिष्यसे कहा- ‘वत्स दौर्मुख! तुम जाकर राजा परीक्षित्से मेरे पुत्रके दिये हुए शापका वृत्तान्त, जिसमें तक्षक नागके डँसनेकी बात है, बता दो। महामते ! फिर शीघ्र मेरे पास लौट आना।’
शमीकके ऐसा कहनेपर दौर्मुखने उत्तराकुमार राजा परीक्षितके पास जाकर कहा- राजन्! आपके द्वारा पिताके कन्धेपर रखे हुए मृत सर्पको देखकर, शमीकके पुत्र श्रृंगी ऋषिने रोषमें आकर आपको यों शाप दिया है ‘आजसे सातवें दिन अभिमन्युपुत्र परीक्षित् महानाग तक्षकके काटनेपर उसकी विषाग्निसे जलकर भस्म हो जायँ।’ राजासे ऐसा कहकर दौर्मुख शीघ्र लौट गया। उसके जानेपर राजाने गंगाकी बीच धारामें एक ही खम्भेका एक बहुत ऊँचा और विस्तृत मण्डप बनवाया और भगवान् विष्णुके प्रति भक्तिभाव बढ़ाते हुए अनेक देवर्षि, ब्रह्मर्षि तथा राजर्षियोंके साथ वे उस ऊँचे मण्डपमें रहने लगे। उसी अवसरपर मन्त्र जाननेवालोंमें श्रेष्ठ काश्यप नामवाला ब्राह्मण तक्षकके महान् विषसे राजाकी प्राणरक्षा करनेके लिये सातवें दिन वहाँ जा रहा था। दरिद्र होनेके कारण वह राजासे धन पानेकी इच्छा रखता था। इसी बीचमें तक्षक नाग भी ब्राह्मणका रूप धारण करके आ गया। मार्गमें काश्यपको देखकर उसने पूछा—’ब्रह्मन् ! महामुने! तुम कहाँ जाते हो? मुझे बताओ।’
काश्यपने उत्तर दिया- ‘आज महाराज परीक्षितको तक्षक नाग अपनी विषाग्निसे जलायेगा। उसकी विषाग्निको शान्त करनेके लिये मैं महाराजके समीप जाता हूँ।’
तक्षक बोला- विप्रवर! मैं ही तक्षक हूँ। मैं जिसे काट लूँ, उसकी चिकित्सा सौ वर्षोंमें भी, दस हजार महामन्त्रोंसे भी नहीं हो सकती। यदि तुममें मेरे काटे हुएको भी अपनी चिकित्साद्वारा जिला देनेकी शक्ति है, तो बहुत ऊँचे इस वृक्षको मैं हँसता हूँ, तुम जिला यों कहकर तक्षकने उस वृक्षको काट लिया।
उसके डॅसते ही वह अत्यन्त ऊंचा वृक्ष जलकर भस्म हो गया। उस वृक्षपर पहलेसे ही कोई मनुष्य चढ़ा हुआ था, वह भी तक्षकके विषकी ज्वालाओंसे दग्ध हो गया। तब मन्त्रज्ञोंमें श्रेष्ठ काश्यपने अपनी मन्त्रशक्तिसे उस जले हुए वृक्षको भी जिला दिया। उसके साथ ही वह मनुष्य भी जी उठा। यह देख तक्षकने मन्त्रकुशल काश्यपसे कहा—’ब्रह्मन् ! राजा तुम्हें जितना धन दे सकते हैं, उससे दूना मैं देता हूँ। इसे लेकर शीघ्र लौट जाओ।’ यों कहकर तक्षकने उसे बहुमूल्य रत्न देकर लौटा दिया।
तत्पश्चात् तक्षकने सब सर्पोको बुलाकर कहा ‘तुम सब लोग मुनियोंका वेष धारण करके राजाके पास जाओ और उन्हें भेंटमें फल समर्पित करो।” बहुत अच्छा’ कहकर वे सर्प वहाँ गये और राजाको फल देने लगे। उस समय तक्षक भी किसी बेरके फलमें कृमिका रूप धारण करके राजाको डँसनेके लिये बैठ गया। ब्राह्मणरूपी सर्पोंके दिये हुए सभी फल राजा परीक्षित्ने बूढ़े मन्त्रियोंको देकर कौतूहलवश एक मोटे फलको हाथमें ले लिया। इसी समय सूर्य भी अस्ताचलपर पहुँच गये। उस फलमें सब लोगोंने तथा राजाने भी एक लाल रंगका कीट देखा, वही तक्षक था। उसने शीघ्र ही फलसे निकलकर राजाके शरीरको लपेट लिया। यह देखकर आसपास बैठे हुए सब लोग भयसे भाग गये। तक्षककी अत्यन्त प्रबल विषाग्निसे राजा परीक्षित् मण्डपसहित तत्काल जलकर भस्म हो गये। पुरोहित और मन्त्रियोंने उनका और्ध्वदैहिक संस्कार करके प्रजाकी रक्षाके लिये उनके पुत्र जनमेजयको राजाके पदपर अभिषिक्त कर दिया।
तक्षकसे राजाकी रक्षा करनेके लिये जो काश्यप नामक ब्राह्मण आया था, उसकी सब लोग निन्दा करने लगे। अन्तमें वह शाकल्य मुनिकी शरणमें गया और उन्हें प्रणाम करके बोला- ‘भगवन्! आप सब धर्मोके ज्ञाता और भगवान् विष्णुके प्रिय भक्त हैं। ये मुनि, ब्राह्मण, सुहृद् तथा अन्य लोग जो मेरी निन्दा करते हैं, इसका क्या कारण है, यह मैं नहीं जानता। यदि आप जानते हों तो बतायें।’ तब महामुनि शाकल्यने क्षणभर ध्यान करके काश्यपसे कहा – ‘तुम तक्षकसे महाराज परीक्षित्को बचानेके लिये जा रहे थे, किंतु आधे मार्गमें तक्षकने तुम्हें मना कर दिया। जो मनुष्य विष, रोग आदिकी चिकित्सा करनेमें समर्थ होकर भी काम, क्रोध, भय, लोभ, मात्सर्य अथवा मोहसे विष एवं रोगसे पीड़ित मनुष्यकी रक्षा नहीं करता, वह ब्रह्महत्यारा, शराबी, चोर, गुरुपत्नीगामी तथा इन सबके संसर्गदोषसे दूषितके समान ही महापातकी है। उसके उद्धारका कोई उपाय नहीं है। महाराज परीक्षित् पवित्र यशवाले, धर्मात्मा, विष्णुभक्त, महायोगी तथा चारों वर्णोंकी रक्षा करनेवाले थे। उन्होंने व्यासपुत्र शुकदेवजीसे भक्तिपूर्वक श्रीमद्भागवतकी कथा । सुनी थी। ऐसे पुण्यात्मा राजाकी रक्षा न करके जो तुम तक्षकके कहनेसे धन लेकर लौट गये, उसी कारणसे श्रेष्ठ ब्राह्मण और बन्धु-बान्धव तुम्हारी निन्दा करते हैं। मरनेवाले मनुष्यके प्राण जबतक कण्ठमें रहते हैं, तबतक उसकी चिकित्सा करनी चाहिये। तुम चिकित्सा करनेमें समर्थ होकर भी उनकी दवा किये बिना ही आधे मार्गसे लौट आये। इसलिये तुम वास्तवमें निन्दाके पात्र हो ।’

समर्थ होकर भी चिकित्सा न करनेवाला निन्दाका पात्र होता है
अभिमन्युके पुत्र राजा परीक्षित् धर्मके अनुसार इस पृथ्वीका पालन करते हुए हस्तिनापुरमें निवास करते थे। एक समय वे मृगयामें अनुरक्त होकर वनमें घूम रहे थे। उस समय उनकी अवस्था साठ वर्षकी हो गयी थी। वे भूख और प्याससे पीड़ित थे। घूमते घूमते उन्होंने एक ध्यानमग्न मुनिको देखकर पूछा ‘मुने! मैंने इस समय वनमें अपने बाणसे एक मृगको घायल किया है। वह भयसे कातर होकर भाग गया है। क्या आपने उसे देखा है ?’ मुनिकी समाधि लग गयी थी, उन्होंने मौन रहनेका व्रत भी लिया था, इस कारण राजाको कुछ भी उत्तर नहीं दिया। तब राजाने कुपित हो एक मरे हुए साँपको धनुषसे उठाकर मुनिके कन्धे पर रख दिया और अपने नगरकी राह ली। मुनिके एक पुत्र था, जिसका नाम श्रृंगी था। शृंगीका कृष नामवाला कोई श्रेष्ठ द्विज मित्र था। उसने विवादमें अपने मित्र श्रृंगीसे व्यंग्यपूर्वक कहा-‘सखे! तुम्हारे पिता इस समय मरा हुआ साँप कन्धेपर ढो रहे हैं। तुम बहुत घमण्ड न दिखाया करो और मेरे आगे यह व्यर्थ क्रोध न किया करो।’
यह सुनकर श्रृंगी कुपित हो उठा और शाप देते हुए बोला- ‘जिस मूढबुद्धि मानवने मेरे पिताके कन्धेपर मरा हुआ साँप रखा है, वह सातवें दिन तक्षक नागके काटनेपर मृत्युको प्राप्त होगा।’ इस प्रकार उस मुनिकुमारने उत्तरानन्दन परीक्षित्‌को शाप दे दिया। उसके पिता शमीक मुनिने जब यह सुना कि मेरे पुत्रने राजाको शाप दिया है, तब वे उससे बोले-‘अरे! समस्त लोगोंकी रक्षा करनेवाले राजाको तूने क्यों शाप दिया ? राजाके न रहनेपर हमलोग संसारमें सुखपूर्वक कैसे रह सकेंगे ? क्रोधसे पाप होता है और दयासे सुख मिलता है। जो मनुष्य मनमें आये हुए क्रोधको क्षमासे शान्त कर देता है, वह इहलोक और परलोकमें भी अतिशय सुखका भागी होता है। क्षमायुक्त मनुष्य ही उत्तम श्रेय प्राप्त करते हैं।’ बेटेको इस प्रकार समझाकर शमीकने दौर्मुख नामवाले अपने शिष्यसे कहा- ‘वत्स दौर्मुख! तुम जाकर राजा परीक्षित्से मेरे पुत्रके दिये हुए शापका वृत्तान्त, जिसमें तक्षक नागके डँसनेकी बात है, बता दो। महामते ! फिर शीघ्र मेरे पास लौट आना।’
शमीकके ऐसा कहनेपर दौर्मुखने उत्तराकुमार राजा परीक्षितके पास जाकर कहा- राजन्! आपके द्वारा पिताके कन्धेपर रखे हुए मृत सर्पको देखकर, शमीकके पुत्र श्रृंगी ऋषिने रोषमें आकर आपको यों शाप दिया है ‘आजसे सातवें दिन अभिमन्युपुत्र परीक्षित् महानाग तक्षकके काटनेपर उसकी विषाग्निसे जलकर भस्म हो जायँ।’ राजासे ऐसा कहकर दौर्मुख शीघ्र लौट गया। उसके जानेपर राजाने गंगाकी बीच धारामें एक ही खम्भेका एक बहुत ऊँचा और विस्तृत मण्डप बनवाया और भगवान् विष्णुके प्रति भक्तिभाव बढ़ाते हुए अनेक देवर्षि, ब्रह्मर्षि तथा राजर्षियोंके साथ वे उस ऊँचे मण्डपमें रहने लगे। उसी अवसरपर मन्त्र जाननेवालोंमें श्रेष्ठ काश्यप नामवाला ब्राह्मण तक्षकके महान् विषसे राजाकी प्राणरक्षा करनेके लिये सातवें दिन वहाँ जा रहा था। दरिद्र होनेके कारण वह राजासे धन पानेकी इच्छा रखता था। इसी बीचमें तक्षक नाग भी ब्राह्मणका रूप धारण करके आ गया। मार्गमें काश्यपको देखकर उसने पूछा—’ब्रह्मन् ! महामुने! तुम कहाँ जाते हो? मुझे बताओ।’
काश्यपने उत्तर दिया- ‘आज महाराज परीक्षितको तक्षक नाग अपनी विषाग्निसे जलायेगा। उसकी विषाग्निको शान्त करनेके लिये मैं महाराजके समीप जाता हूँ।’
तक्षक बोला- विप्रवर! मैं ही तक्षक हूँ। मैं जिसे काट लूँ, उसकी चिकित्सा सौ वर्षोंमें भी, दस हजार महामन्त्रोंसे भी नहीं हो सकती। यदि तुममें मेरे काटे हुएको भी अपनी चिकित्साद्वारा जिला देनेकी शक्ति है, तो बहुत ऊँचे इस वृक्षको मैं हँसता हूँ, तुम जिला यों कहकर तक्षकने उस वृक्षको काट लिया।
उसके डॅसते ही वह अत्यन्त ऊंचा वृक्ष जलकर भस्म हो गया। उस वृक्षपर पहलेसे ही कोई मनुष्य चढ़ा हुआ था, वह भी तक्षकके विषकी ज्वालाओंसे दग्ध हो गया। तब मन्त्रज्ञोंमें श्रेष्ठ काश्यपने अपनी मन्त्रशक्तिसे उस जले हुए वृक्षको भी जिला दिया। उसके साथ ही वह मनुष्य भी जी उठा। यह देख तक्षकने मन्त्रकुशल काश्यपसे कहा—’ब्रह्मन् ! राजा तुम्हें जितना धन दे सकते हैं, उससे दूना मैं देता हूँ। इसे लेकर शीघ्र लौट जाओ।’ यों कहकर तक्षकने उसे बहुमूल्य रत्न देकर लौटा दिया।
तत्पश्चात् तक्षकने सब सर्पोको बुलाकर कहा ‘तुम सब लोग मुनियोंका वेष धारण करके राजाके पास जाओ और उन्हें भेंटमें फल समर्पित करो।” बहुत अच्छा’ कहकर वे सर्प वहाँ गये और राजाको फल देने लगे। उस समय तक्षक भी किसी बेरके फलमें कृमिका रूप धारण करके राजाको डँसनेके लिये बैठ गया। ब्राह्मणरूपी सर्पोंके दिये हुए सभी फल राजा परीक्षित्ने बूढ़े मन्त्रियोंको देकर कौतूहलवश एक मोटे फलको हाथमें ले लिया। इसी समय सूर्य भी अस्ताचलपर पहुँच गये। उस फलमें सब लोगोंने तथा राजाने भी एक लाल रंगका कीट देखा, वही तक्षक था। उसने शीघ्र ही फलसे निकलकर राजाके शरीरको लपेट लिया। यह देखकर आसपास बैठे हुए सब लोग भयसे भाग गये। तक्षककी अत्यन्त प्रबल विषाग्निसे राजा परीक्षित् मण्डपसहित तत्काल जलकर भस्म हो गये। पुरोहित और मन्त्रियोंने उनका और्ध्वदैहिक संस्कार करके प्रजाकी रक्षाके लिये उनके पुत्र जनमेजयको राजाके पदपर अभिषिक्त कर दिया।
तक्षकसे राजाकी रक्षा करनेके लिये जो काश्यप नामक ब्राह्मण आया था, उसकी सब लोग निन्दा करने लगे। अन्तमें वह शाकल्य मुनिकी शरणमें गया और उन्हें प्रणाम करके बोला- ‘भगवन्! आप सब धर्मोके ज्ञाता और भगवान् विष्णुके प्रिय भक्त हैं। ये मुनि, ब्राह्मण, सुहृद् तथा अन्य लोग जो मेरी निन्दा करते हैं, इसका क्या कारण है, यह मैं नहीं जानता। यदि आप जानते हों तो बतायें।’ तब महामुनि शाकल्यने क्षणभर ध्यान करके काश्यपसे कहा – ‘तुम तक्षकसे महाराज परीक्षित्को बचानेके लिये जा रहे थे, किंतु आधे मार्गमें तक्षकने तुम्हें मना कर दिया। जो मनुष्य विष, रोग आदिकी चिकित्सा करनेमें समर्थ होकर भी काम, क्रोध, भय, लोभ, मात्सर्य अथवा मोहसे विष एवं रोगसे पीड़ित मनुष्यकी रक्षा नहीं करता, वह ब्रह्महत्यारा, शराबी, चोर, गुरुपत्नीगामी तथा इन सबके संसर्गदोषसे दूषितके समान ही महापातकी है। उसके उद्धारका कोई उपाय नहीं है। महाराज परीक्षित् पवित्र यशवाले, धर्मात्मा, विष्णुभक्त, महायोगी तथा चारों वर्णोंकी रक्षा करनेवाले थे। उन्होंने व्यासपुत्र शुकदेवजीसे भक्तिपूर्वक श्रीमद्भागवतकी कथा । सुनी थी। ऐसे पुण्यात्मा राजाकी रक्षा न करके जो तुम तक्षकके कहनेसे धन लेकर लौट गये, उसी कारणसे श्रेष्ठ ब्राह्मण और बन्धु-बान्धव तुम्हारी निन्दा करते हैं। मरनेवाले मनुष्यके प्राण जबतक कण्ठमें रहते हैं, तबतक उसकी चिकित्सा करनी चाहिये। तुम चिकित्सा करनेमें समर्थ होकर भी उनकी दवा किये बिना ही आधे मार्गसे लौट आये। इसलिये तुम वास्तवमें निन्दाके पात्र हो ।’

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