‘महेन्द्र विद्रोही हो गया है, सम्राट् । वह अधिकार और ऐश्वर्यमें इतना उन्मत्त है कि उसे आपके धर्मराज्यके सिद्धान्तोंका तनिक भी ध्यान नहीं रह गया है। दिन दोपहर प्रजापर मनमाना अत्याचार करना उसका तथा उसके सैनिकों और आश्रित अधिकारियोंका कार्य-क्रम हो चला है। प्रजा विद्रोह करेगी, महाराज।’ महामन्त्री राधागुप्तने मगधेश्वर भारतसम्राट् अशोकके धर्मसिंहासनके सामने नतमस्तक हो अभिवादन किया।
राजसभामें उपस्थित मन्त्रिगण तथा अन्य सदस्य विस्मित हो उठे। पाटलिपुत्रके भव्य राजभवनमें सन्नाटा छा गया। अशोकके नेत्र लाल हो गये। अहिंसक सम्राट् सब कुछ सह सकते थे, पर प्रजाके अहितमें तल्लीनरहनेवालोंको दण्ड देनेमें वे कभी आगा-1 करते थे। सौतेले भाई महेन्द्रका यह महान् अपराध था उनकी दृष्टिमें। सम्राट्के आदेशसे महेन्द्र राजसभामें उपस्थित हुआ और अपराधी – कक्षमें खड़ा हो गया।
‘मुझे तुमसे इस प्रकारके कुत्सित आचरणकी आशा नहीं थी। तुमने सम्राट् चन्द्रगुप्तके राजसिंहासनको लाञ्छित किया है। जानते हो इस अपराधका दण्ड? जानते हो प्रजाकी शान्तिको भङ्ग करनेका परिणाम ?”
‘मृत्यु । मेरा आचरण वास्तवमें प्रजाके लिये अहितकर हो चला था, देव । मृत्यु – दण्ड देनेके पहले सात दिनके अवकाशकी माँग है। यह आपके भाईकीयाचना नहीं, पाटलिपुत्रके एक अपराधी नागरिककी याचना है। महेन्द्र नतमस्तक था । ‘
‘आज छठा दिन है, अपराधी कल तुम्हारे समस्त राग-रंग समाप्त हो जायँगे।’ कारागार-अधिकारीने महेन्द्रको सावधान किया।
महेन्द्र अन्धकारपूर्ण कालकोठरीकी दीवारकी ओर देखने लगा। एक दरारसे उसने भगवती गङ्गाकी धवलिमाका दर्शन किया; उसपर डूबते सूर्यकी लालिमा विकल थी। वह झरोखेके पास आ गया और सांध्य शान्तिमें उसने अद्भुत प्रकाश देखा ‘मुझे सत्यकी ज्योति मिल गयी। मैंने मृत्युको जीत लिया।’ वह आनन्दसे नाच उठा।
‘तुम वास्तवमें मुक्त हो गये अब, महेन्द्र।’ अशोकउसकी बातोंसे प्रसन्न थे। वे अन्तिम विदा देने आये थे । सूर्य डूब गया। प्रहरीने एक टिमटिमाता दीपक सोपानपर रखकर भारतसम्राट्का अभिवादन किया।
‘हाँ भैया! मुझे अमरता मिल गयी। सम्यक् सम्बोधिकी प्राप्ति हो गयी मुझे। धर्म-ज्योति देखी है मैंने।’ उसने सम्राट्का आलिङ्गन किया।
‘पाटलिपुत्रका राजप्रासाद प्रतीक्षा कर रहा है, महेन्द्र !’ अशोकने मुक्ति-संदेश सुनाया। ‘नहीं सम्राट् ! अब तो पहाड़, वन, निर्जन स्थान ही
मेरे आश्रय हैं। मेँ धर्मकी ज्योतिसे जनताको समुत्तेजित
करूँगा। यह प्रजाके कल्याणका मार्ग है।’ वह कारागारसे
निकलकर पहाड़ीकी ओर चला गया।
‘तुम धन्य हो, श्रमण।’ सम्राट् अशोक सादर नतमस्तक । – रा0 श्री0
‘महेन्द्र विद्रोही हो गया है, सम्राट् । वह अधिकार और ऐश्वर्यमें इतना उन्मत्त है कि उसे आपके धर्मराज्यके सिद्धान्तोंका तनिक भी ध्यान नहीं रह गया है। दिन दोपहर प्रजापर मनमाना अत्याचार करना उसका तथा उसके सैनिकों और आश्रित अधिकारियोंका कार्य-क्रम हो चला है। प्रजा विद्रोह करेगी, महाराज।’ महामन्त्री राधागुप्तने मगधेश्वर भारतसम्राट् अशोकके धर्मसिंहासनके सामने नतमस्तक हो अभिवादन किया।
राजसभामें उपस्थित मन्त्रिगण तथा अन्य सदस्य विस्मित हो उठे। पाटलिपुत्रके भव्य राजभवनमें सन्नाटा छा गया। अशोकके नेत्र लाल हो गये। अहिंसक सम्राट् सब कुछ सह सकते थे, पर प्रजाके अहितमें तल्लीनरहनेवालोंको दण्ड देनेमें वे कभी आगा-1 करते थे। सौतेले भाई महेन्द्रका यह महान् अपराध था उनकी दृष्टिमें। सम्राट्के आदेशसे महेन्द्र राजसभामें उपस्थित हुआ और अपराधी – कक्षमें खड़ा हो गया।
‘मुझे तुमसे इस प्रकारके कुत्सित आचरणकी आशा नहीं थी। तुमने सम्राट् चन्द्रगुप्तके राजसिंहासनको लाञ्छित किया है। जानते हो इस अपराधका दण्ड? जानते हो प्रजाकी शान्तिको भङ्ग करनेका परिणाम ?”
‘मृत्यु । मेरा आचरण वास्तवमें प्रजाके लिये अहितकर हो चला था, देव । मृत्यु – दण्ड देनेके पहले सात दिनके अवकाशकी माँग है। यह आपके भाईकीयाचना नहीं, पाटलिपुत्रके एक अपराधी नागरिककी याचना है। महेन्द्र नतमस्तक था । ‘
‘आज छठा दिन है, अपराधी कल तुम्हारे समस्त राग-रंग समाप्त हो जायँगे।’ कारागार-अधिकारीने महेन्द्रको सावधान किया।
महेन्द्र अन्धकारपूर्ण कालकोठरीकी दीवारकी ओर देखने लगा। एक दरारसे उसने भगवती गङ्गाकी धवलिमाका दर्शन किया; उसपर डूबते सूर्यकी लालिमा विकल थी। वह झरोखेके पास आ गया और सांध्य शान्तिमें उसने अद्भुत प्रकाश देखा ‘मुझे सत्यकी ज्योति मिल गयी। मैंने मृत्युको जीत लिया।’ वह आनन्दसे नाच उठा।
‘तुम वास्तवमें मुक्त हो गये अब, महेन्द्र।’ अशोकउसकी बातोंसे प्रसन्न थे। वे अन्तिम विदा देने आये थे । सूर्य डूब गया। प्रहरीने एक टिमटिमाता दीपक सोपानपर रखकर भारतसम्राट्का अभिवादन किया।
‘हाँ भैया! मुझे अमरता मिल गयी। सम्यक् सम्बोधिकी प्राप्ति हो गयी मुझे। धर्म-ज्योति देखी है मैंने।’ उसने सम्राट्का आलिङ्गन किया।
‘पाटलिपुत्रका राजप्रासाद प्रतीक्षा कर रहा है, महेन्द्र !’ अशोकने मुक्ति-संदेश सुनाया। ‘नहीं सम्राट् ! अब तो पहाड़, वन, निर्जन स्थान ही
मेरे आश्रय हैं। मेँ धर्मकी ज्योतिसे जनताको समुत्तेजित
करूँगा। यह प्रजाके कल्याणका मार्ग है।’ वह कारागारसे
निकलकर पहाड़ीकी ओर चला गया।
‘तुम धन्य हो, श्रमण।’ सम्राट् अशोक सादर नतमस्तक । – रा0 श्री0