ऋणानुबन्ध
जब शहरी लोग वातानुकूलित कक्षों या कूलरमें बैठे अड़तालीस डिग्री हो गये तापक्रम और ग्लोबल वार्मिंगपर बहस कर रहे होते हैं, तब गाँवका किसान चिलचिलाती धूपमें खेतकी जुताईकर बीज बोनेके लिये तैयारी कर रहा होता है।
मालवाके एक छोटेसे गाँवका किसान प्रह्लाद, इस बार कुछ ज्यादा ही उत्साहित था, पिछले वर्ष ठीक बुआईके समय एक बैल मर जानेसे उसका सारा साल खराब हो गया था। इस बार वह साहूकारसे व्याजपर पैसे लेकर एक बड़ा सुन्दर, पुष्ट और नौजवान बैल लेकर आया था, पर जैसी लोकमें कहावत है ‘बोवाती कई व्हे कटी ने धान घरै आइ जाए जब जानो कि आपनो ।’ (बुआई करनेसे ही नहीं, धान कटकर घर आ जाय, तब जानिये कि अपना है)।
प्रह्लादका भी शायद दुर्भाग्य ही था कि सुन्दर और पुष्ट बैल थोड़ी दूर चलकर फिर बैठ जाता, उठाये न उठता। सीधा-साधा प्रह्लाद न चाहकर भी उसे पीटता। आखिर बुआई करना उसके और उसके परिवारके जीवन-मरणका प्रश्न था
एक दिन कठिन दोपहरमें जब जेठ तप रहा था, प्रह्लाद खेतमें हल चला रहा था; आदतसे मजबूर बैल बैठ गया। खीझके मारे प्रह्लाद उसे बुरी तरह पीटने लगा, संयोगवश उसी समय पासकी सड़कसे शहरके एक विख्यात मठके महन्तजी हाथीपर बैठे गुजर रहे थे, उनकी दृष्टि प्रह्लाद और बैलपर पड़ी तो वे जोरसे चिल्लाकर बोले— ‘भैया, उस बैलको मत मारो, रुको मैं आता हूँ।’
कुछ भयभीत, कुछ असमंजसमें प्रह्लादने हल खोल दिया। महन्तजी हाथीके हौदेसे उतरकर आये। आश्चर्यचकित रह गया प्रह्लाद। महन्तजीने बैलको सादर प्रणाम किया, फिर उसके कानमें कुछ कहा। बस, फिर क्या था, बैल तो बिजलीकी गतिसे उठ गया और
चलनेको भी तत्पर !
सीधे-साधे प्रह्लादने महन्तजीको भूमिष्ठ होकर प्रणाम किया और कहा-बाबा। यह मन्त्र मुझे भी बता दो। कई गरियाल निठल्ले बैल हैं।
पर प्रह्लादने देखा महन्तजीकी आँखोंमें आँसू हैं. और वे बड़े दुखी भी, बोले- बेटा! यह कोई मन्त्र नहींहै, यह तो ‘ऋणानुबन्ध’ है।
कुछ न समझा प्रह्लाद, बोला-क्या होता है बाबा! ऋणानुबन्ध ? बेटा! ये बड़ा कठिन है, जिसका लिया है, उसका किसी भी रूपमें चुकाना ही पड़ता है। पूर्वजन्मकी बात है, तुम ऐसे ही किसान थे और ये बैल-तुम्हारे गाँवके एक मठके महन्तजी, बड़ा आदर था इनका पूरा गाँव पूजता था। तुम्हारे एक बेटी थी और थोड़ी खेती, जब कभी तुम्हारे पास कुछ बचता-दो-चार-दस रुपये, तुम महन्तजीके पास रख देते, जब बेटीकी शादी होगी, काम आयेंगे।
धीरे-धीरे करके लड़की भी सयानी हो गयी और रकम भी ज्यादा।
बिटियाका रिश्ताकर तुम निश्चिन्त होकर महन्तजीके पास पहुँचे और बोले, ‘बाबा! मेरा पैसा लौटा दो, मैंने बड़े अच्छे घर और वरसे बेटीका रिश्ता तय कर दिया है।’
हाय कुछ काल-कुछ दैव, रकमने महन्तजीकी नीयत खराब कर दी। वे तैशमें आकर बोले- कौनसे पैसे, काहेके पैसे?
प्रतिष्ठित महन्तजीकी बातसे सारा गाँव सहमत था- इतने पैसे गरीब किसानके पास आये ही कहाँसे ? फिर महन्तजी और बेईमानी! ना-ना !
समय कब रुकता है। तुम फिर किसान हो, बेईमानीने महन्तजीको बैल बना दिया है। गद्दीपर बैठकर माल छाननेका संस्कार उन्हें मेहनत करने नहीं देता बार-बार बैठ जाते हैं, गालियाँ और मार खाते हैं। जिसका लिया है, उसका देना तो है ही, यह प्रकृतिका कभी न बदलनेवाला नियम है, चाहे राजी खुशी दो, चाहे मार खाकर यही ऋणानुबन्ध है। यही कर्म सिद्धान्त है, मैंने वही उनके कानमें कहा कि महन्तजी ! चुकाना तो है ही, फिर अपमान और मार सहकर क्यों ? राजी-खुशी चुका दो और ऋणमुक्त होकर फिर भगवान्का भजन करो। उन्हें स्मरण भी हो आया है और समझ भी आ गयी। अब वे शायद कभी न बैठें, जबतक
चुकता न चुक जाय ।
ऋणानुबन्ध
जब शहरी लोग वातानुकूलित कक्षों या कूलरमें बैठे अड़तालीस डिग्री हो गये तापक्रम और ग्लोबल वार्मिंगपर बहस कर रहे होते हैं, तब गाँवका किसान चिलचिलाती धूपमें खेतकी जुताईकर बीज बोनेके लिये तैयारी कर रहा होता है।
मालवाके एक छोटेसे गाँवका किसान प्रह्लाद, इस बार कुछ ज्यादा ही उत्साहित था, पिछले वर्ष ठीक बुआईके समय एक बैल मर जानेसे उसका सारा साल खराब हो गया था। इस बार वह साहूकारसे व्याजपर पैसे लेकर एक बड़ा सुन्दर, पुष्ट और नौजवान बैल लेकर आया था, पर जैसी लोकमें कहावत है ‘बोवाती कई व्हे कटी ने धान घरै आइ जाए जब जानो कि आपनो ।’ (बुआई करनेसे ही नहीं, धान कटकर घर आ जाय, तब जानिये कि अपना है)।
प्रह्लादका भी शायद दुर्भाग्य ही था कि सुन्दर और पुष्ट बैल थोड़ी दूर चलकर फिर बैठ जाता, उठाये न उठता। सीधा-साधा प्रह्लाद न चाहकर भी उसे पीटता। आखिर बुआई करना उसके और उसके परिवारके जीवन-मरणका प्रश्न था
एक दिन कठिन दोपहरमें जब जेठ तप रहा था, प्रह्लाद खेतमें हल चला रहा था; आदतसे मजबूर बैल बैठ गया। खीझके मारे प्रह्लाद उसे बुरी तरह पीटने लगा, संयोगवश उसी समय पासकी सड़कसे शहरके एक विख्यात मठके महन्तजी हाथीपर बैठे गुजर रहे थे, उनकी दृष्टि प्रह्लाद और बैलपर पड़ी तो वे जोरसे चिल्लाकर बोले— ‘भैया, उस बैलको मत मारो, रुको मैं आता हूँ।’
कुछ भयभीत, कुछ असमंजसमें प्रह्लादने हल खोल दिया। महन्तजी हाथीके हौदेसे उतरकर आये। आश्चर्यचकित रह गया प्रह्लाद। महन्तजीने बैलको सादर प्रणाम किया, फिर उसके कानमें कुछ कहा। बस, फिर क्या था, बैल तो बिजलीकी गतिसे उठ गया और
चलनेको भी तत्पर !
सीधे-साधे प्रह्लादने महन्तजीको भूमिष्ठ होकर प्रणाम किया और कहा-बाबा। यह मन्त्र मुझे भी बता दो। कई गरियाल निठल्ले बैल हैं।
पर प्रह्लादने देखा महन्तजीकी आँखोंमें आँसू हैं. और वे बड़े दुखी भी, बोले- बेटा! यह कोई मन्त्र नहींहै, यह तो ‘ऋणानुबन्ध’ है।
कुछ न समझा प्रह्लाद, बोला-क्या होता है बाबा! ऋणानुबन्ध ? बेटा! ये बड़ा कठिन है, जिसका लिया है, उसका किसी भी रूपमें चुकाना ही पड़ता है। पूर्वजन्मकी बात है, तुम ऐसे ही किसान थे और ये बैल-तुम्हारे गाँवके एक मठके महन्तजी, बड़ा आदर था इनका पूरा गाँव पूजता था। तुम्हारे एक बेटी थी और थोड़ी खेती, जब कभी तुम्हारे पास कुछ बचता-दो-चार-दस रुपये, तुम महन्तजीके पास रख देते, जब बेटीकी शादी होगी, काम आयेंगे।
धीरे-धीरे करके लड़की भी सयानी हो गयी और रकम भी ज्यादा।
बिटियाका रिश्ताकर तुम निश्चिन्त होकर महन्तजीके पास पहुँचे और बोले, ‘बाबा! मेरा पैसा लौटा दो, मैंने बड़े अच्छे घर और वरसे बेटीका रिश्ता तय कर दिया है।’
हाय कुछ काल-कुछ दैव, रकमने महन्तजीकी नीयत खराब कर दी। वे तैशमें आकर बोले- कौनसे पैसे, काहेके पैसे?
प्रतिष्ठित महन्तजीकी बातसे सारा गाँव सहमत था- इतने पैसे गरीब किसानके पास आये ही कहाँसे ? फिर महन्तजी और बेईमानी! ना-ना !
समय कब रुकता है। तुम फिर किसान हो, बेईमानीने महन्तजीको बैल बना दिया है। गद्दीपर बैठकर माल छाननेका संस्कार उन्हें मेहनत करने नहीं देता बार-बार बैठ जाते हैं, गालियाँ और मार खाते हैं। जिसका लिया है, उसका देना तो है ही, यह प्रकृतिका कभी न बदलनेवाला नियम है, चाहे राजी खुशी दो, चाहे मार खाकर यही ऋणानुबन्ध है। यही कर्म सिद्धान्त है, मैंने वही उनके कानमें कहा कि महन्तजी ! चुकाना तो है ही, फिर अपमान और मार सहकर क्यों ? राजी-खुशी चुका दो और ऋणमुक्त होकर फिर भगवान्का भजन करो। उन्हें स्मरण भी हो आया है और समझ भी आ गयी। अब वे शायद कभी न बैठें, जबतक
चुकता न चुक जाय ।