जैनपुराणकी कथा है कि एक बार श्रीबलदेव, वासुदेव और सात्यकि—ये तीनों बिना किसी सेवक या सैनिकके वनमें भटक गये। बात यह थी कि तीनोंके घोड़े शीघ्रगामी थे। वे नगरसे तो सेवक-सैनिकोंके साथ ही निकले थे, किंतु इनके घोड़े बहुत आगे निकल गये, सैनिक पीछे रह गये। घोर वनमें सैनिकोंसे ये पृथक् हो गये। संध्या तो कबकी बीत चुकी थी, रात्रिका अन्धकार फैल रहा था। अब न आगे जाना सम्भव था और न पीछे लौटना। एक सघन वृक्षके नीचे रात्रि विश्राम करनेका निश्चय हुआ । घोड़े बाँध दिये गये और उनपर कसी जीन भूमिपर उतार दी गयी।
रात्रिका प्रथम आधा प्रहर बीत चुका था। अन्तिम आधे प्रहरसे पूर्व तो तीनोंको ही प्रातः कृत्यके लिये उठ हो जाना था। बात केवल तीन प्रहर व्यतीत करनेकी थी। निश्चय हुआ कि बारी-बारीसे एक-एक व्यक्तिजगते हुए रक्षाका कार्य करे और शेष दो निद्रा लें। पहले सात्यकिको रक्षाका काम करना था। जब बलदेव और वासुदेव सो गये, तब वहाँ एक भयंकर पिशाच प्रकट हुआ। वह सात्यकिसे बोला ‘मैं तुम्हें छोड़ दूँगा, इन दोनोंको भक्षण कर लेने दो ।’
सात्यकिने उसे डाँटा – ‘प्राण बचाना हो तो भाग जा यहाँसे । तनिक भी इधर-उधर की तो कचूमर निकाल दूँगा।’
पिशाचने लाल-लाल आँखें निकालीं- ‘तू नहीं मानता तो आ जा !’
पिशाच और सात्यकि भिड़ गये। परंतु सात्यकि जितना ही क्रोध करते थे, पिशाचका आकार और बल उतना ही बढ़ता जाता था। उस पिशाचने सात्यकिको अनेक बार पटका । स्थान-स्थानसे सात्यकिका शरीर छिल गया। उनका मुख तथा घुटने सूज गये।युद्ध करते हुए जब एक प्रहर हो गया, पिशाच स्वयं अदृश्य हो गया। सात्यकिने बलदेवजीको जगा दिया और स्वयं सो गये। परंतु सात्यकिके निद्रामग्र होते ही पिशाच फिर प्रकट हुआ। बलदेवजीसे भी उसने पहलेके समान बातें कीं और उनसे भी उसका द्वन्द्वयुद्ध होने लगा। पूरे एक प्रहर द्वन्द्वयुद्ध चला। पिशाचका बल और आकार बढ़ता ही जाता था। बलदेवजीको भी उसने भरपूर तंग किया।
रात्रिके पिछले भागमें वासुदेव उठे। बलदेवजीके निद्रित हो जानेपर जब पिशाच प्रकट हुआ और वासुदेवको उसने निद्रित लोगोंको छोड़कर चले जानेको कहा, तब वे बोले-‘तुम अच्छे आये। तुम्हारे साथ द्वन्द्वयुद्ध करनेमें एक प्रहर मजेसे बीतेगा। न निद्रा आयेगी और न आलस्य ।’
पिशाच वासुदेवसे भी भिड़ गया। परंतु इस बार उसकी दुर्गति होनी थी। वह जब दाँत पीसकर घूसे या थप्पड़ चलाता था, तब वासुदेव हँस उठते थे – ‘ओह,तुम अच्छे वीर हो! तुममें उत्साह तो है।’ इसका परिणाम यह होता था कि पिशाचका बल बराबर घटता जाता था और उसका आकार भी छोटा होता जा रहा था। अन्तमें तो वह एक छोटे कीड़े-जितना ही रह गया। वासुदेवने उसे उठाकर पटुकेके छोरमें बाँध लिया।
प्रातःकाल तीनों उठे । सात्यकिका और मुख घुटना इतना फूला था, उसे इतने घाव लगे थे कि उसे देखते ही वासुदेवने पूछा- ‘तुम्हें क्या हो गया है ?’
सात्यकिने पिशाचकी बात बतलायी उसकी बातें सुनकर श्रीबलदेव बोले- ‘ओह ! बड़ा भयंकर पिशाच था वह। मुझे भी उसने बहुत तंग किया।’
वासुदेवने पटुकेके कोनेसे खोलकर पिशाचको आगे रख दिया और बोले—’यह रहा वह पिशाच! आपलोगोंने इसे पहचाना ही नहीं। यह तो क्रोध है। जितना क्रोध आप करते गये, उतना यह बढ़ता और बलवान् होता गया । यही इसका स्वरूप है। क्रोध न किया जाय तो इसका बल और विस्तार सब समाप्त हो जाता है।’ -सु0 सिं0
जैनपुराणकी कथा है कि एक बार श्रीबलदेव, वासुदेव और सात्यकि—ये तीनों बिना किसी सेवक या सैनिकके वनमें भटक गये। बात यह थी कि तीनोंके घोड़े शीघ्रगामी थे। वे नगरसे तो सेवक-सैनिकोंके साथ ही निकले थे, किंतु इनके घोड़े बहुत आगे निकल गये, सैनिक पीछे रह गये। घोर वनमें सैनिकोंसे ये पृथक् हो गये। संध्या तो कबकी बीत चुकी थी, रात्रिका अन्धकार फैल रहा था। अब न आगे जाना सम्भव था और न पीछे लौटना। एक सघन वृक्षके नीचे रात्रि विश्राम करनेका निश्चय हुआ । घोड़े बाँध दिये गये और उनपर कसी जीन भूमिपर उतार दी गयी।
रात्रिका प्रथम आधा प्रहर बीत चुका था। अन्तिम आधे प्रहरसे पूर्व तो तीनोंको ही प्रातः कृत्यके लिये उठ हो जाना था। बात केवल तीन प्रहर व्यतीत करनेकी थी। निश्चय हुआ कि बारी-बारीसे एक-एक व्यक्तिजगते हुए रक्षाका कार्य करे और शेष दो निद्रा लें। पहले सात्यकिको रक्षाका काम करना था। जब बलदेव और वासुदेव सो गये, तब वहाँ एक भयंकर पिशाच प्रकट हुआ। वह सात्यकिसे बोला ‘मैं तुम्हें छोड़ दूँगा, इन दोनोंको भक्षण कर लेने दो ।’
सात्यकिने उसे डाँटा – ‘प्राण बचाना हो तो भाग जा यहाँसे । तनिक भी इधर-उधर की तो कचूमर निकाल दूँगा।’
पिशाचने लाल-लाल आँखें निकालीं- ‘तू नहीं मानता तो आ जा !’
पिशाच और सात्यकि भिड़ गये। परंतु सात्यकि जितना ही क्रोध करते थे, पिशाचका आकार और बल उतना ही बढ़ता जाता था। उस पिशाचने सात्यकिको अनेक बार पटका । स्थान-स्थानसे सात्यकिका शरीर छिल गया। उनका मुख तथा घुटने सूज गये।युद्ध करते हुए जब एक प्रहर हो गया, पिशाच स्वयं अदृश्य हो गया। सात्यकिने बलदेवजीको जगा दिया और स्वयं सो गये। परंतु सात्यकिके निद्रामग्र होते ही पिशाच फिर प्रकट हुआ। बलदेवजीसे भी उसने पहलेके समान बातें कीं और उनसे भी उसका द्वन्द्वयुद्ध होने लगा। पूरे एक प्रहर द्वन्द्वयुद्ध चला। पिशाचका बल और आकार बढ़ता ही जाता था। बलदेवजीको भी उसने भरपूर तंग किया।
रात्रिके पिछले भागमें वासुदेव उठे। बलदेवजीके निद्रित हो जानेपर जब पिशाच प्रकट हुआ और वासुदेवको उसने निद्रित लोगोंको छोड़कर चले जानेको कहा, तब वे बोले-‘तुम अच्छे आये। तुम्हारे साथ द्वन्द्वयुद्ध करनेमें एक प्रहर मजेसे बीतेगा। न निद्रा आयेगी और न आलस्य ।’
पिशाच वासुदेवसे भी भिड़ गया। परंतु इस बार उसकी दुर्गति होनी थी। वह जब दाँत पीसकर घूसे या थप्पड़ चलाता था, तब वासुदेव हँस उठते थे – ‘ओह,तुम अच्छे वीर हो! तुममें उत्साह तो है।’ इसका परिणाम यह होता था कि पिशाचका बल बराबर घटता जाता था और उसका आकार भी छोटा होता जा रहा था। अन्तमें तो वह एक छोटे कीड़े-जितना ही रह गया। वासुदेवने उसे उठाकर पटुकेके छोरमें बाँध लिया।
प्रातःकाल तीनों उठे । सात्यकिका और मुख घुटना इतना फूला था, उसे इतने घाव लगे थे कि उसे देखते ही वासुदेवने पूछा- ‘तुम्हें क्या हो गया है ?’
सात्यकिने पिशाचकी बात बतलायी उसकी बातें सुनकर श्रीबलदेव बोले- ‘ओह ! बड़ा भयंकर पिशाच था वह। मुझे भी उसने बहुत तंग किया।’
वासुदेवने पटुकेके कोनेसे खोलकर पिशाचको आगे रख दिया और बोले—’यह रहा वह पिशाच! आपलोगोंने इसे पहचाना ही नहीं। यह तो क्रोध है। जितना क्रोध आप करते गये, उतना यह बढ़ता और बलवान् होता गया । यही इसका स्वरूप है। क्रोध न किया जाय तो इसका बल और विस्तार सब समाप्त हो जाता है।’ -सु0 सिं0