इंगलैंडका चतुर्थ हेनरीका ज्येष्ठपुत्र, जो आगे हेनरी पञ्चम नामसे प्रसिद्ध हुआ, बड़ा ही शूरवीर और राजकाजमें भी अत्यन्त दक्ष था। किंतु बचपनमें राज्यारूढ़ होनेके पूर्व वह बड़ा ही उजड्ड और मुँहफट था। वह उचक्कोंकी संगति कर नीच मूर्खतापूर्ण काम भी करता था।
एक बार उसके एक मित्रको किसी अपराधपर मुख्य कैदकी सजा सुनायी। राजपुत्र अदालतमें उपस्थित था। सजा सुनते ही वह बिगड़ उठा और न्यायाधीशके साथ बेअदबी कर अपने मित्रको छोड़ देनेके लिये उन्हें हुक्म देने लगा। उसने कहा – ‘राजपुत्रके मित्रको कैदकी सजा देना अनुचित है और मैं प्रिंस आफ वेल्सके नाते आपको आदेश देता हूँ कियह मेरा मित्र है, इसलिये रास्तेके साधारण चोरकी तरह इसके साथ कभी बर्ताव न करें।’
न्यायाधीशने उत्तर दिया –’मैं यहाँ प्रिंस आफ वेल्सको बिलकुल नहीं पहचानता। ‘न्यायके काममें पक्षपात नहीं करूँगा’ यह मैंने शपथ ली है। इसलिये जो बात न्याय दीखेगी, उसे बिना किये न रहूँगा।’
राजपुत्र आगबबूला हो उठा। आपेसे बाहर हो वह अपने मित्र उस कैदीको छुड़ानेका यत्न करने लगा। न्यायाधीशने पुनः साफ चेतावनी दी – ‘ इसमें हाथ डालनेका आपको अधिकार नहीं। व्यर्थ ही अदालतमें दंगा मत कीजिये।’ राजपुत्रके तलवेकी आग ब्रह्माण्डमें पहुँच गयी और उसने भरी अदालतमेंन्यायाधीशके गालपर थप्पड़ जमा दी।
न्यायाधीशने राजपुत्र और उसके मित्रको तत्काल जेलमें भेजनेका आदेश दिया। उन्होंने कहा – ‘इसने न्यायाधीशका अपमान किया है। इसलिये यह दण्ड है।’ न्यायाधीशने राजपुत्रको सम्बोधन करके कहा-‘आगे आपको ही राज्यारूढ़ होना है। यदि स्वयं आप अपने राज्यके कानूनोंकी इस तरह अवज्ञा करेंगे तो प्रजा आपका आदेश क्या मानेगी।’
राजपुत्रके हृदयमें तत्काल प्रकाश हुआ। वह बड़ा लज्जित हुआ। सिर नवाकर न्यायाधीशको मुजरा कियाऔर जेलकी ओर चल पड़ा।
राजा हेनरी चतुर्थको पता चलनेपर उसने कहा ‘सचमुच मैं धन्य हूँ; जिसके राज्यमें न्यायका निष्पक्ष स्थापन करनेवाला ऐसा न्यायाधीश है।’
स्वयं हेनरी पंचम बननेपर राजपुत्रने न्यायाधीशसे कहा- ‘आपके साथ मैंने जैसा बर्ताव किया, यदि मुझे ऐसा ही पुत्र हुआ तो उसकी आँखोंमें आँजन डालनेवाला आप जैसा ही न्यायाधीश मुझे सौभाग्यसे मिले, यही मैं चाहता हूँ।’-गो0 न0 बै0 (नीतिबोध)
The eldest son of England’s fourth Henry, who later became famous as Henry V, was very brave and very skilled in governance. But before becoming the king in childhood, he was very rude and outspoken. He also used to do lowly foolish things in the company of thieves.
Once one of his friends was sentenced to capital imprisonment for some crime. The prince was present in the court. As soon as he heard the sentence, he got upset and started disrespecting the judge and ordered him to leave his friend. He said – ‘Imprisonment is unfair to a friend of the prince’s son and I, as the Prince of Wales, order you that this is my friend, so never treat him like an ordinary thief in the street.’
The judge replied – ‘I do not recognize the Prince of Wales here at all. I have taken an oath that ‘I will not be partial in the work of justice’. That’s why I will not remain without doing what justice will do.
The prince got furious. Being out of his mind, he started trying to free his friend that prisoner. The judge again gave a clear warning – ‘You have no right to put your hand in this. Don’t unnecessarily create riot in the court.’ The fire of the prince’s feet reached the universe and he slapped the judge on the cheek in the crowded court.
The judge ordered the prince and his friend to be sent to jail immediately. He said – ‘He has insulted the judge. That’s why it is a punishment. The judge addressed the prince and said – ‘You have to become the king in the future. If you yourself disobey the laws of your state like this, then how will the subjects obey your orders.’
Immediately there was light in the heart of the prince. He felt very ashamed. Bowing his head, he bowed down to the judge and went towards the jail.
When King Henry IV found out, he said ‘Truly I am blessed; In whose state there is such a judge who establishes justice impartially.
On becoming Henry V himself, the prince said to the judge- ‘If I had a son like you, I would like to be fortunate to have a judge like you, who used to treat you like this.’