आत्मसम्बन्ध

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स्वामी रामतीर्थ जापानसे अमेरिका जा रहे थे। प्रशान्त महासागरका वक्ष विदीर्ण करता हुआ उनका जहाज सान फ्रांसिसकोके एक बंदरगाहपर आ लगा। सब यात्री उतर गये। जहाजके डेकपर स्वामी रामतीर्थ टहल रहे थे। ऐसा लगता था कि वे जहाजसे उतरना ही नहीं चाहते हों। एक अमेरिकन सज्जन उनकी गति विधिका निरीक्षण कर रहे थे।

‘आपका सामान कहाँ है? आप उतरते क्यों नहीं हैं?’ अमेरिकन सज्जनका प्रश्न था ।

‘जो कुछ मेरे शरीरपर है उसके सिवा मेरे पास दूसरा कोई सामान नहीं है।’ भारतीय संन्यासीके उत्तरसे जागतिक ऐश्वर्यमें मग्न रहनेवाले अमेरिकनका आश्चर्य बढ़ गया। स्वामीजीका गेरुआ वस्त्र उनके गौरवर्ण, तप्तस्वर्ण शरीरपर आन्दोलित था मानो पाताल देशकी राजसिकतापर विजय पानेके लिये सत्यका अरुण केतन फहरा रहा हो। वे मन्द-मन्द मुसकरा रहे थे, ऐसा लगता था मानो उनके हृदयकी करुणा नये विश्वका उद्धार करनेके लिये विकल हो गयी हो।

‘आपके रुपये-पैसे कहाँ हैं।’ सज्जनका दूसरा प्रश्न था।

‘मैं अपने पास कुछ नहीं रखता। समस्त जड चेतनमें मेरी आत्माका रमण है। मैं अपने (आत्म)’ सम्बन्धियोंके प्रेमामृतसे जीवित रहता हूँ। भूख लगनेपरकोई रोटीका टुकड़ा दे देता है तो प्यास लगनेपर पानी पिला देता है । समस्त विश्व मेरा है। इस विश्वमें रमण करनेवाला सत्य ही मेरा प्राण-देवता है। कभी पेड़के नीचे रात कटती है तो कभी आसमानके तारे गिनते गिनते आँखें लग जाती हैं।’ त्याग-मूर्ति रामने वेदान्त तत्त्वका प्रतिपादन किया। ‘पर यहाँ अमेरिकामें आपका परिचित कौन है ?’

स्वामीजीसे अमेरिकन महानुभावका यह तीसरा प्रश्न था । ‘ (मुसकराते हुए बोले) – आप । भाई ! अमेरिकामें तो केवल मैं एक ही व्यक्तिको जानता हूँ। चाहे आप परिचित कह लें या मित्र अथवा साथीके नामसे पुकार लें और वह व्यक्ति आप हैं । महात्मा रामतीर्थने उनके कंधे पर हाथ रख दिया। वे संन्यासीके स्पर्शसे धन्य हो गये। स्वामीजी उनके साथ जहाजसे उतर पड़े। नयी दुनियाकी धरतीने उनकी चरण-धूलिका स्पर्श किया, वह धन्य हो गयी।’

‘स्वामी रामतीर्थ हिमालयकी कन्दराओंसे उदय होनेवाले सूर्यके समान हैं। न अग्नि उनको जला सकती है, न अस्त्र-शस्त्र उनका अस्तित्व नष्ट कर सकते हैं। आनन्दाश्रु उनके नेत्रोंसे सदा छलकते रहते हैं। उनकी उपस्थितिमात्रसे हमें नवजीवन मिलता है।’ अमेरिकन सज्जनके ये उद्गार थे भारतीय आत्ममानव के प्रति ।

Swami Ramteerth was going to America from Japan. Breaking the chest of the Pacific Ocean, his ship arrived at a port in San Francisco. All the passengers got down. Swami Ramteerth was walking on the deck of the ship. It seemed that they did not want to get off the ship. An American gentleman was inspecting his speed method.
‘Where’s your stuff? Why don’t you get down?’ It was a question from the American gentleman.
‘I have no other belongings except what is on my body.’ The answer of the Indian ascetic increased the surprise of the American who was engrossed in worldly opulence. Swamiji’s saffron robes fluttered over His glorious, hot gold body as if the Aruna Ketan of Truth was unfurling to conquer the kingship of Patal Desh. He was smiling faintly, it seemed as if the compassion of his heart had become distraught for the salvation of the new world.
‘Where is your money?’ The gentleman had another question.
‘I don’t keep anything with me. In all inert consciousness there is the delight of my soul. I live by the nectar of love of my (self) relatives. When someone is hungry, someone gives a piece of bread and when thirsty, he gives water to drink. The whole world is mine. The truth that delights in this world is my life-god. Sometimes the night is spent under the tree and sometimes the eyes get caught counting the stars in the sky.’ Sacrifice-murti Ram propounded the philosophy of Vedanta. ‘But who do you know here in America?’
This was the third question of the American gentleman to Swamiji. ‘ (Speaking with a smile) – You. Brother ! I only know one person in America. Whether you call yourself an acquaintance or a friend or companion, that person is you. Mahatma Ramatirtha put his hand on his shoulder. He was blessed by the touch of the monk. Swamiji got off the ship with them. The earth of the new world touched the dust of her feet, she became blessed.’
‘Swami Ramteerth is like the sun rising from the caves of the Himalayas. Neither fire can burn them, nor weapons can destroy their existence. Tears of joy always flow from his eyes. We get new life just by his presence. These were the words of the American gentleman towards the Indian soul.

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