परम भागवत श्रीधर स्वामी पूर्वाश्रममें दिग्विजयी पण्डित थे। एक समय वे दिग्विजय करके घर लौट रहे थे। रास्तेमें डाकुओंने आपको घेर लिया। तब वे आँखें मूँदकर मन-ही-मन अपने इष्टदेव भगवान् श्रीरामचन्द्रका स्मरण करने लगे। उसी क्षण डाकुओंको दिखायी दिया कि एक नवदूर्वादलश्याम तेजस्वी तरुण धनुष-बाण लिये ललकार रहा है। डाकू डर गये और उन्होंने श्रीधरजीके चरणोंपर गिरकर दीन भावसेकातर प्रार्थना की- ‘महाराज ! आपके साथी ये श्यामसुन्दर युवक हमें बाणोंसे मार डालना चाहते हैं- बचाइये, बचाइये।’ यह सुनकर श्रीधरजी मन-ही-मन बड़े दुःखी हुए और उन्होंने सोचा कि तुच्छ धनकी रक्षाके लिये मेरे प्रभुको कितना कष्ट सहना पड़ रहा है। उन्हें वैराग्य हो गया और वे उसी क्षण संसार छोड़कर काशी चले गये और वहाँ श्रीपरमानन्द स्वामीजीसे संन्यास लेकर श्रीनृसिंह- मन्त्रकी दीक्षा प्राप्त की।
Param Bhagwat Shridhar Swami was a Digvijayi Pandit in Purvashram. Once upon a time, he was returning home after winning Digvijaya. Bandits surrounded you on the way. Then he closed his eyes and started remembering his presiding deity Lord Shriramchandra. At the same moment, the dacoits saw that one Navdurvadalshyam Tejaswi Tarun was shouting with bow and arrows. The dacoits got scared and fell at Shridharji’s feet and prayed humbly – ‘ Maharaj! Your companions, this Shyamsundar youth want to kill us with arrows – save us, save us.’ Hearing this, Shridharji felt very sad in his heart and he thought that how much trouble my Lord is going through to protect the small money. He became dispassionate and at that very moment left the world and went to Kashi and took sannyasa from Sri Paramananda Swamiji and there received the initiation of Sri Nrisimha-mantra.