उत्तरप्रदेशमें तारीघाटका प्रसंग
एक प्रभु-निर्भर जीवन
स्वामी विवेकानन्द तारीपाटमें चिलचिलाती गर्मी के दिनोंमें रेलगाड़ीसे उतरकर कहीं छायादार स्थान ढूँढ़ रहे थे। स्टेशनके द्वारपालने उन्हें बैठनेसे मना कर दिया। वे गाड़ीखानेके पास एक खम्भेके सहारे बैठ गये। उनके ठीक सामने अहाते में एक व्यापारी गद्देपर बैठा था। बीती रात वह व्यापारी भी स्वामीजीके साथ रेलके उसी डिब्बेमें यात्रा कर रहा था और उसे पता था कि स्वामीजीके पास दिनभरके खानेके लिये कुछ नहीं है और उन्हें अपनी प्यास बुझानेके लिये एक गिलास पानी भी नहीं मिल सकेगा; क्योंकि उनके पास पैसा नहीं है। संन्यासियोंके बारेमें व्यापारीकी सोच बहुत घटिया थी। इसके बाद उसने स्वामीजीको यह कहते हुए मैं खा रहा हूँ और पी रहा हूँ और तुम भूखे और प्यासे बैठे हो,’ ताना मारना शुरू कर दिया, जबकि वह स्वयं पूड़ियाँ खा रहा था और ठण्डा पानी पी रहा था ‘तुम मेरी तरह पैसा कमाते तो ये अच्छी-अच्छी चीजें खाते।’
जब यह वार्तालाप चल रहा था, उसी समय एक स्थानीय व्यक्ति एक पोटली और पानीका पात्र लेकर आ पहुँचा। उसने आसन बिछाया, एक गिलासमें पानी भरा और एक पत्तलपर कुछ पूड़ियाँ तथा मिठाइयाँ रखते हुए अत्यन्त विनम्रतापूर्वक स्वामीजीको भोजनके लिये बुलाया। स्वामीजी यह देखकर बहुत दुविधामें पड़ गये और उस अपरिचित आदमीसे कहा- ‘भैया! तुम मुझे कुछ और तो नहीं समझ बैठे!’ उस व्यक्तिने कहा- ‘नहीं! नहीं! मुझे यह सब देनेके लिये ‘रामजी’ ने कहा है। अभी आज दोपहरका भोजन करनेके बाद मैं सो रहा था तो मैंने सपना देखा, जिसमें ‘रामजी’ मेरे सामने प्रकट हुए और सपनेमें आपकी ओर इशारा करते हुए यह भोजन और पानी देनेके लिये कहा। इसे मात्र एक सपना मानते हुए मैंने करवट ली और फिरसे सो गया। ‘रामजी’ने फिरसे प्रकट होकर मुझे झटका दिया और पहलेकी तरह ही कहा। इसलिये मैं ये सब लाया हूँ। आप ही वे व्यक्ति हैं, जिन्हें ‘रामजी’ ने मुझे सपनेमें दिखाया था। बाबाजी ! अब आइये और भोजन कीजिये।’
यह देख ताने मारनेवाले व्यापारीने स्वामीजीसे अपने मूर्खतापूर्ण व्यवहारके लिये क्षमा करनेके लिये प्रार्थना को और उनकी पद-रज ली। परिव्राजक संन्यासीके रूपमें स्वामी विवेकानन्दका जीवन ऐसी घटनाओंसे भरा हुआ है, जो लोगोंके लिये शिक्षा और प्रेरणा दोनों प्रदान करता है। ऐसी घटनाओंके सन्दर्भमें स्वामी विवेकानन्दने सदैव अपने परिव्राजक जीवनमें गीताके श्लोक अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते । तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम् ॥ ( 9 | 22) अर्थात् ‘जो सम्पूर्णरूपसे स्वयंको मेरे लिये अर्पित कर देते हैं, उनके योगक्षेमको वहन करता हूँ’-को ध्यानमें रखा था। आध्यात्मिक जीवन वस्तुतः भगवन्निर्भरता और उसके आधारपर निर्भयताका जीवन है। निर्भरता, निर्भयता और निरभिमानितामें आध्यात्मिकताका सार समाया हुआ है, भगवान्से प्रार्थना है कि वे इन तीनों रूपों में हमारे जीवनमें प्रकट होकर हमें कृतार्थ करें।
उत्तरप्रदेशमें तारीघाटका प्रसंग
एक प्रभु-निर्भर जीवन
स्वामी विवेकानन्द तारीपाटमें चिलचिलाती गर्मी के दिनोंमें रेलगाड़ीसे उतरकर कहीं छायादार स्थान ढूँढ़ रहे थे। स्टेशनके द्वारपालने उन्हें बैठनेसे मना कर दिया। वे गाड़ीखानेके पास एक खम्भेके सहारे बैठ गये। उनके ठीक सामने अहाते में एक व्यापारी गद्देपर बैठा था। बीती रात वह व्यापारी भी स्वामीजीके साथ रेलके उसी डिब्बेमें यात्रा कर रहा था और उसे पता था कि स्वामीजीके पास दिनभरके खानेके लिये कुछ नहीं है और उन्हें अपनी प्यास बुझानेके लिये एक गिलास पानी भी नहीं मिल सकेगा; क्योंकि उनके पास पैसा नहीं है। संन्यासियोंके बारेमें व्यापारीकी सोच बहुत घटिया थी। इसके बाद उसने स्वामीजीको यह कहते हुए मैं खा रहा हूँ और पी रहा हूँ और तुम भूखे और प्यासे बैठे हो,’ ताना मारना शुरू कर दिया, जबकि वह स्वयं पूड़ियाँ खा रहा था और ठण्डा पानी पी रहा था ‘तुम मेरी तरह पैसा कमाते तो ये अच्छी-अच्छी चीजें खाते।’
जब यह वार्तालाप चल रहा था, उसी समय एक स्थानीय व्यक्ति एक पोटली और पानीका पात्र लेकर आ पहुँचा। उसने आसन बिछाया, एक गिलासमें पानी भरा और एक पत्तलपर कुछ पूड़ियाँ तथा मिठाइयाँ रखते हुए अत्यन्त विनम्रतापूर्वक स्वामीजीको भोजनके लिये बुलाया। स्वामीजी यह देखकर बहुत दुविधामें पड़ गये और उस अपरिचित आदमीसे कहा- ‘भैया! तुम मुझे कुछ और तो नहीं समझ बैठे!’ उस व्यक्तिने कहा- ‘नहीं! नहीं! मुझे यह सब देनेके लिये ‘रामजी’ ने कहा है। अभी आज दोपहरका भोजन करनेके बाद मैं सो रहा था तो मैंने सपना देखा, जिसमें ‘रामजी’ मेरे सामने प्रकट हुए और सपनेमें आपकी ओर इशारा करते हुए यह भोजन और पानी देनेके लिये कहा। इसे मात्र एक सपना मानते हुए मैंने करवट ली और फिरसे सो गया। ‘रामजी’ने फिरसे प्रकट होकर मुझे झटका दिया और पहलेकी तरह ही कहा। इसलिये मैं ये सब लाया हूँ। आप ही वे व्यक्ति हैं, जिन्हें ‘रामजी’ ने मुझे सपनेमें दिखाया था। बाबाजी ! अब आइये और भोजन कीजिये।’
यह देख ताने मारनेवाले व्यापारीने स्वामीजीसे अपने मूर्खतापूर्ण व्यवहारके लिये क्षमा करनेके लिये प्रार्थना को और उनकी पद-रज ली। परिव्राजक संन्यासीके रूपमें स्वामी विवेकानन्दका जीवन ऐसी घटनाओंसे भरा हुआ है, जो लोगोंके लिये शिक्षा और प्रेरणा दोनों प्रदान करता है। ऐसी घटनाओंके सन्दर्भमें स्वामी विवेकानन्दने सदैव अपने परिव्राजक जीवनमें गीताके श्लोक अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते । तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम् ॥ ( 9 | 22) अर्थात् ‘जो सम्पूर्णरूपसे स्वयंको मेरे लिये अर्पित कर देते हैं, उनके योगक्षेमको वहन करता हूँ’-को ध्यानमें रखा था। आध्यात्मिक जीवन वस्तुतः भगवन्निर्भरता और उसके आधारपर निर्भयताका जीवन है। निर्भरता, निर्भयता और निरभिमानितामें आध्यात्मिकताका सार समाया हुआ है, भगवान्से प्रार्थना है कि वे इन तीनों रूपों में हमारे जीवनमें प्रकट होकर हमें कृतार्थ करें।