एक बार कैलासके शिखरपर श्रीश्रीगौरीशङ्कर | भगवद्भक्तोंके विषयमें कुछ वार्तालाप कर रहे थे। उसी प्रसङ्गमें जगज्जननी श्रीपार्वतीजीने आशुतोष श्रीभोलेबाबा से निवेदन किया- ‘भगवन्! जिन भक्तोंकी आप इतनी महिमा वर्णन करते हैं उनमेंसे किसीके दर्शन करानेकी कृपा कीजिये। आपके श्रीमुखसे भक्तोंकी महिमा सुनकर मेरे चित्तमें बड़ा आहाद हुआ है और अब मुझे ऐसे भक्तराजके दर्शनोंकी अति उत्कण्ठा हो रही है। अतः कृपया शीघ्रता कीजिये।”
प्राणप्रिया उमाके ये वचन सुनकर श्री भोलानाथ उन्हें साथ लेकर इन्द्रप्रस्थको चले और वहाँ कृष्ण सखा अर्जुनके महलके द्वारपर जाकर द्वारपालसे पूछा ‘कहो, इस समय अर्जुन कहाँ हैं?’ उसने कहा-
‘इस समय महाराज शयनागारमें पौढ़े हुए हैं।’ यह सुनकर पार्वतीजीने उतावलीसे कहा, ‘तो अब हमें उनके दर्शन कैसे हो सकेंगे।’ प्रियाको अधीर देखकर श्रीमहादेवजीने कहा-‘देवि! कुछ देर शान्त रहो। इतनी अधीर मत हो, भक्तको उसके इष्टदेव भगवान्के द्वारा ही जगाना चाहिये, अतः मैं इसका प्रयत्न करता हूँ।’ तदनन्तर उन्होंने समाधिस्थ होकर प्रेमाकर्षणद्वारा आनन्दकन्द श्रीव्रजचन्द्रको बुलाया और कहा, ‘भगवन्! कृपया अपने भक्तको जगा दीजिये, देवी पार्वती उनका दर्शन करना चाहती हैं।’ श्रीमहादेवजीके कहनेसे श्यामसुन्दर तुरंत ही मित्र उद्धव, देवी रुक्मिणी और सत्यभामासहित अर्जुनके शयनागारमें गये और देखा कि वह अधिक थकानसे सो रहा है और सुभद्रा उसके सिरहाने बैठी हुई धीरे-धीरे पंखा डुलाकर उसके स्वेदक्लान्त केशोंको सुखा रही हैं। भाई कृष्णको आये हुए देखकर सुभद्रा हड़बड़ाकर उठ खड़ी हुई और उसकी जगह श्रीसत्यभामाजी विराजमान होकर पंखा डुलाने लगीं। गरमी अधिक थी, इसलिये भगवान्का संकेत पाकर उद्धवजी भी पंखा हाँकने लगे। इतनेमें ही अकस्मात् सत्यभामा और उद्धव चकित से होकर एक-दूसरेकी ओर ताकने लगे। भगवान्ने पूछा तुमलोग किस विचारमें पड़े हो? उन्होंने कहा- ‘महाराज! आप अन्तर्यामी हैं, सब जानते हैं; हमें क्या पूछते हैंभगवान् श्रीकृष्ण बोले, ‘बताओ तो सही, क्या बात है?’ तब उद्भवने कहा कि “अर्जुनके प्रत्येक रोमसे ‘श्रीकृष्ण- श्रीकृष्ण की आवाज आ रही है। रुक्मिणीजी पैर दबा रही थीं, वे बोलीं- ‘महाराज! पैरोंसे भी वही आवाज आती है!’ भगवान्ने समीप जाकर सुना तो उन्हें भी स्पष्ट सुनायी दिया कि अर्जुनके प्रत्येक केशसे निरन्तर ‘जय कृष्ण-कृष्ण, जय कृष्ण-कृष्ण’ की ध्वनि निकल रही है। कुछ और ध्यान दिया तो विदित हुआ कि उसके शरीरके प्रत्येक रोमसे यहाँ ध्वनि निकल रही है। तब तो भगवान् उसे जगाना भूलकर स्वयं भी उसके प्रेम-पाशमें बँध गये और गद्रद होकर स्वयं उसके चरण दबाने लगे। भगवान्के नवनीत कोमल कर-कमलोंका स्पर्श होनेसे अर्जुनकी निद्रा और भी गाढ़ी हो गयी!
इधर महादेव और पार्वतीको प्रतीक्षा करते हुए जब बहुत देर हो गयी तब वे मन-ही-मन कहने लगे ‘भगवान् श्रीकृष्णको गये बहुत विलम्ब हो गया। मालूम होता है उन्हें भी निद्राने घेर लिया है।’ तब उन्होंने ब्रह्माजीको बुलाकर अर्जुनको जगानेके लिये भेजा। किंतु अन्तः पुरमें पहुँचनेपर ब्रह्माजी भी अर्जुनके रोम-रोमसे ‘कृष्ण-कृष्ण’ की ध्वनि सुनकर और स्वयं भगवान्को अपने भक्तके पाँव पलोटते देखकर अपने प्रेमावेशकी न रोक सके। एवं अपने चारों मुखोंसे वेद-स्तुति करने लगे। अब क्या था, ये भी हाथसे गये। जब ब्रह्माजीकी प्रतीक्षामें भी श्रीमहादेव और पार्वतीको बहुत समय हो गया तब उन्होंने देवर्षि नारदजीका आवाहन किया। अबकी बार वे अर्जुनको जगानेका बीड़ा उठाकर चले। | किंतु शयनागारका अद्भुत दृश्य देख-सुनकर उनसे भी न रहा गया। वे भी अपनी वीणाकी खूंटियाँ कसकर हरि कीर्तनमें तल्लीन हो गये। जब उनके कीर्तनकी ध्वनि भगवान् शङ्करके कानमें पड़ी तो उनसे भी और अधिक प्रतीक्षा न हो सकी; वे भी पार्वतीजीके साथ तुरंत ही अन्तःपुरमें पहुँच गये। वहाँ अर्जुनके रोम रोमसे ‘जय कृष्ण, जय कृष्ण’ का मधुर नाद सुनकर और सभी विचित्र दृश्य देखकर वे भी प्रेम समुद्रको उत्ताल तरङ्गोंमें उछलने डूबने लगे। अन्तमें उनसे भीन रहा गया। उन्होंने भी अपना त्रिभुवनमोहन ताण्डव नृत्य आरम्भ कर दिया; साथ ही श्रीपार्वतीजी भी स्वर और तालके साथ सुमधुर वाणीसे हरि-गुण गाने लगीं। इस प्रकार वह सम्पूर्ण समाज प्रेम-समुद्रमें डूब गया,किसीको भी अपने तन मनकी सुध-बुध नहीं रही। सभी प्रेमोन्मत्त हो गये। भक्तराज अर्जुनके प्रेम-प्रवाहने सभीको सराबोर कर दिया। अर्जुन! तुम्हारा वह अविचल प्रेम धन्य है !
एक बार कैलासके शिखरपर श्रीश्रीगौरीशङ्कर | भगवद्भक्तोंके विषयमें कुछ वार्तालाप कर रहे थे। उसी प्रसङ्गमें जगज्जननी श्रीपार्वतीजीने आशुतोष श्रीभोलेबाबा से निवेदन किया- ‘भगवन्! जिन भक्तोंकी आप इतनी महिमा वर्णन करते हैं उनमेंसे किसीके दर्शन करानेकी कृपा कीजिये। आपके श्रीमुखसे भक्तोंकी महिमा सुनकर मेरे चित्तमें बड़ा आहाद हुआ है और अब मुझे ऐसे भक्तराजके दर्शनोंकी अति उत्कण्ठा हो रही है। अतः कृपया शीघ्रता कीजिये।”
प्राणप्रिया उमाके ये वचन सुनकर श्री भोलानाथ उन्हें साथ लेकर इन्द्रप्रस्थको चले और वहाँ कृष्ण सखा अर्जुनके महलके द्वारपर जाकर द्वारपालसे पूछा ‘कहो, इस समय अर्जुन कहाँ हैं?’ उसने कहा-
‘इस समय महाराज शयनागारमें पौढ़े हुए हैं।’ यह सुनकर पार्वतीजीने उतावलीसे कहा, ‘तो अब हमें उनके दर्शन कैसे हो सकेंगे।’ प्रियाको अधीर देखकर श्रीमहादेवजीने कहा-‘देवि! कुछ देर शान्त रहो। इतनी अधीर मत हो, भक्तको उसके इष्टदेव भगवान्के द्वारा ही जगाना चाहिये, अतः मैं इसका प्रयत्न करता हूँ।’ तदनन्तर उन्होंने समाधिस्थ होकर प्रेमाकर्षणद्वारा आनन्दकन्द श्रीव्रजचन्द्रको बुलाया और कहा, ‘भगवन्! कृपया अपने भक्तको जगा दीजिये, देवी पार्वती उनका दर्शन करना चाहती हैं।’ श्रीमहादेवजीके कहनेसे श्यामसुन्दर तुरंत ही मित्र उद्धव, देवी रुक्मिणी और सत्यभामासहित अर्जुनके शयनागारमें गये और देखा कि वह अधिक थकानसे सो रहा है और सुभद्रा उसके सिरहाने बैठी हुई धीरे-धीरे पंखा डुलाकर उसके स्वेदक्लान्त केशोंको सुखा रही हैं। भाई कृष्णको आये हुए देखकर सुभद्रा हड़बड़ाकर उठ खड़ी हुई और उसकी जगह श्रीसत्यभामाजी विराजमान होकर पंखा डुलाने लगीं। गरमी अधिक थी, इसलिये भगवान्का संकेत पाकर उद्धवजी भी पंखा हाँकने लगे। इतनेमें ही अकस्मात् सत्यभामा और उद्धव चकित से होकर एक-दूसरेकी ओर ताकने लगे। भगवान्ने पूछा तुमलोग किस विचारमें पड़े हो? उन्होंने कहा- ‘महाराज! आप अन्तर्यामी हैं, सब जानते हैं; हमें क्या पूछते हैंभगवान् श्रीकृष्ण बोले, ‘बताओ तो सही, क्या बात है?’ तब उद्भवने कहा कि “अर्जुनके प्रत्येक रोमसे ‘श्रीकृष्ण- श्रीकृष्ण की आवाज आ रही है। रुक्मिणीजी पैर दबा रही थीं, वे बोलीं- ‘महाराज! पैरोंसे भी वही आवाज आती है!’ भगवान्ने समीप जाकर सुना तो उन्हें भी स्पष्ट सुनायी दिया कि अर्जुनके प्रत्येक केशसे निरन्तर ‘जय कृष्ण-कृष्ण, जय कृष्ण-कृष्ण’ की ध्वनि निकल रही है। कुछ और ध्यान दिया तो विदित हुआ कि उसके शरीरके प्रत्येक रोमसे यहाँ ध्वनि निकल रही है। तब तो भगवान् उसे जगाना भूलकर स्वयं भी उसके प्रेम-पाशमें बँध गये और गद्रद होकर स्वयं उसके चरण दबाने लगे। भगवान्के नवनीत कोमल कर-कमलोंका स्पर्श होनेसे अर्जुनकी निद्रा और भी गाढ़ी हो गयी!
इधर महादेव और पार्वतीको प्रतीक्षा करते हुए जब बहुत देर हो गयी तब वे मन-ही-मन कहने लगे ‘भगवान् श्रीकृष्णको गये बहुत विलम्ब हो गया। मालूम होता है उन्हें भी निद्राने घेर लिया है।’ तब उन्होंने ब्रह्माजीको बुलाकर अर्जुनको जगानेके लिये भेजा। किंतु अन्तः पुरमें पहुँचनेपर ब्रह्माजी भी अर्जुनके रोम-रोमसे ‘कृष्ण-कृष्ण’ की ध्वनि सुनकर और स्वयं भगवान्को अपने भक्तके पाँव पलोटते देखकर अपने प्रेमावेशकी न रोक सके। एवं अपने चारों मुखोंसे वेद-स्तुति करने लगे। अब क्या था, ये भी हाथसे गये। जब ब्रह्माजीकी प्रतीक्षामें भी श्रीमहादेव और पार्वतीको बहुत समय हो गया तब उन्होंने देवर्षि नारदजीका आवाहन किया। अबकी बार वे अर्जुनको जगानेका बीड़ा उठाकर चले। | किंतु शयनागारका अद्भुत दृश्य देख-सुनकर उनसे भी न रहा गया। वे भी अपनी वीणाकी खूंटियाँ कसकर हरि कीर्तनमें तल्लीन हो गये। जब उनके कीर्तनकी ध्वनि भगवान् शङ्करके कानमें पड़ी तो उनसे भी और अधिक प्रतीक्षा न हो सकी; वे भी पार्वतीजीके साथ तुरंत ही अन्तःपुरमें पहुँच गये। वहाँ अर्जुनके रोम रोमसे ‘जय कृष्ण, जय कृष्ण’ का मधुर नाद सुनकर और सभी विचित्र दृश्य देखकर वे भी प्रेम समुद्रको उत्ताल तरङ्गोंमें उछलने डूबने लगे। अन्तमें उनसे भीन रहा गया। उन्होंने भी अपना त्रिभुवनमोहन ताण्डव नृत्य आरम्भ कर दिया; साथ ही श्रीपार्वतीजी भी स्वर और तालके साथ सुमधुर वाणीसे हरि-गुण गाने लगीं। इस प्रकार वह सम्पूर्ण समाज प्रेम-समुद्रमें डूब गया,किसीको भी अपने तन मनकी सुध-बुध नहीं रही। सभी प्रेमोन्मत्त हो गये। भक्तराज अर्जुनके प्रेम-प्रवाहने सभीको सराबोर कर दिया। अर्जुन! तुम्हारा वह अविचल प्रेम धन्य है !
(क0 6-2 )