इन श्रीकल्याणजीका पहला नाम था – अम्बादास । छोटी उम्रमें ही इनका गुरु श्रीसंत रामदासजीसे सम्बन्ध हो गया था। गुरुजीने देखा कि यह तो पका हुआ फल ही है। अतः उन्होंने इनको अपने साथ ही सेवामें रहनेकी अनुमति दे दी। तबसे ये एकाग्रचित्त होकर अपने गुरुकी सेवामें रहे।
अम्बादासकी तपस्या पूरी हुई, परंतु अभीतक उन्हें भगवान् श्रीरामचन्द्रजीके दर्शन नहीं हुए। वे इसके लिये परम व्याकुल हो उठे। श्रीरामदासजीने भी देखा कि इसकी सेवा पूर्ण हो चुकी है, अतः अब यह भगवान्के शुभ दर्शनका पात्र हो गया है।
एक दिन श्रीरामदासजी सहज ही शिष्योंके साथ एक बड़े कुएँके समीप एक वृक्षके नीचे आराम कर रहे थे। उस वृक्षकी एक शाखा बिलकुल कुएँके ऊपरतक पहुँच गयी थी। रामदासजीने सोचा कि ‘यह मध्याह्नका समय है। इसी समय प्रभु श्रीरामचन्द्रका प्राकट्य (अवतार) हुआ था। और यह समय अपने शिष्य अम्बादासके सौभाग्योदय होनेके योग्य भी है। साथ ही इसी समय गुरुके शब्दोंपर अम्बादासकी। कितनी श्रद्धा तथा विश्वास है, इसकी भी परीक्षा हो। जायगी।’
गुरुजी श्रीरामदासजीने सहज भावसे अम्बादासकोपास बुलाया। मुझे गुरुजीने बुलाया है, इसी बात से अम्बादासको महान् आनन्द हुआ। वृक्षकी उस कुएँपर पहुँची हुई शाखाको अङ्गुलिसे दिखाकर रामदासजी बोले -‘अम्बादास ! तुम उस डालीतक जा सकोगे ?’ तत्परतासे अम्बादासने उत्तर दिया- ‘हाँ जी ! सहज ही जा सकूँगा।’
‘तो फिर ऐसा करो, करौत साथ ले जाओ। उस शाखापर जाकर उसे काट डालो।’ गुरुजीने आज्ञा दी ।
आज्ञाको ही अनुग्रह माननेवाले अम्बादासने ‘जी, अभी गया’ कहकर अपनी धोतीको अच्छी तरहसे बाँधकर पेड़ पर चढ़नेकी तैयारी की। ये चढ़ ही रहे थे कि गुरुजीने फिर कहा – ‘देखो, अच्छी तरह काटना । परंतु एक काम करना, शाखाके अगले भागकी ओर पीठ करके शाखापर खड़े होकर शाखाको अपने सामनेसे काटना।’
सब शिष्य तो यह सुनकर देखते ही रह गये। इस आज्ञाके अनुसार काटनेपर तो अम्बादास भी शाखाके साथ ही कुएँमें गिरेंगे। इसका कुछ भी विचार गुरुजीने नहीं किया।
परंतु अम्बादासके मनमें कोई दूसरा विचार ही नहीं आया। ‘जो आज्ञा’ कहकर वह शीघ्र ही उस शाखातक पहुँच गया। और जैसे गुरुजीने कहा था, उसी तरहशाखाके अगले भागपर खड़े होकर उसे काटना आरम्भ किया। उसके मनमें संदेह उत्पन्न करनेके लिये
रामदासजी बोले – ‘मूढ! यों काटोगे तो तुम स्वयं गिर
जाओगे कुएँ पड़कर योगे अम्बादासने उसी जगहसे प्रणाम करके विनयपूर्व कहा- ‘गुरुदेव ! आज्ञाका पालन करते समय मुझे कुछ भी नहीं हो सकता। जब आपकी कृपासे मैं संसार सागरसे ही तर जाऊँगा, तब इस जरा से कुएंकी तो
बात ही क्या है।’
‘ठीक है!’ गुरुजीने संतोषसे कहा- इतनी श्रद्धा है तो जरूर काटो।’
अम्बादासने शाखाको आधा काटा होगा कि वह टूटकर बड़ी आवाजके साथ अम्वादासके सहित कुएँ में गिर पड़ी। शिष्य मण्डली काँपकर हाहाकर कर उठी। श्रीरामदासजीने सबको वहीं चुपचाप बैठे रहनेकी आज्ञा दी। व्यथित-चित्तसे सब वहाँ बैठ गये। वे तरह तरहकी कल्पना करने लगे कि ‘जलमें डूबकर अम्वादासका देहान्त तो नहीं हो गया होगा।’ ‘इतने बड़े कुएँ में तो गिरनेकी आशङ्कासे ही आदमी मर जाता है और अम्बादास तो प्रत्यक्ष गिरा है।’ ‘गिरते समय मारे भयके उसकी चेतना लुप्त हो गयी होगी। तभी कोई आवाज नहीं आयी। देखें, अब उसकी आवाज आयेगी।’ परंतु समर्थ श्रीरामदासजी तो बड़ी शान्तिसे पहली बातें आगे चलाने लगे, मानो कुछ हुआ ही नहीं।
अम्बादास सीधा कुऍके बीचमें गिरा। न मालूम शाखा और करौत कहाँ गयी। जलमें गिरते समय उसने अपने गुरुका और प्रभु श्रीरामचन्द्रजीका स्मरण किया। एक बार जलसे ऊपर आकर आँखें खोलीं तो देखा कि जिनके पुण्य तथा दुर्लभ दर्शनके लिये अनेकों साधकोंने अपने प्राण-मन अर्पण कर दिये, जिनके लिये वह स्वयं बड़ी आतुरता तथा अधीरतासे प्रतीक्षा कर रहा था, वे ही भास्कर-कुल- दिवाकर रघुवंशशिरोमणि सच्चिदानन्दघन-विग्रह भगवान् श्रीरामचन्द्र उसके सामने मन्द मन्द मुसकराते हुए खड़े हैं। पता नहीं, जल कहाँ चला गया। निर्निमेष नेत्रोंसे टकटकी लगाये अम्बादास देखता ही रहा। अत्यन्त तेजःपुञ्ज शरीरसे मधुर मधुर दिव्य सुगन्ध निकलकर मनको मुग्ध कररही थी। अति सुन्दर श्यामसुन्दर शरीर था। प्रभुके एक हाथमें बाण और दूसरेमें धनुष था। मस्तक पर अति प्रखर सुवर्ण मुकुटसे बिखरे हुए बाल बाहर निकलकर कंधोंतक फैले हुए थे। सुन्दर पीताम्बर फहरा रहा था।
बस, अम्बादास स्मित-मुग्ध होकर देखता ही रह गया। उसके नेत्रोंसे प्रेमानन्दके आँसू बहने लगे। तदनन्तर बाह्य चेतना आनेपर वह प्रभुके चरणोंपर गिर गया। उसका जीवन कृतार्थ हो गया। एकमात्र दिव्य सुखानुभूतिके अतिरिक्त कोई भी संवेदना उसके मन उस समय नहीं रह गयी। हाथमें और सिरमें समीप सटे हुए भगवान्के कोमल चरण कमल और सिरफर प्रभुका वरद हस्त। इसके अतिरिक्त सारा जगत् उसके लिये विस्मृत अथवा विलुप्त हो गया। वह अनन्त सुखसागरमें निमग्र हो गया।
ऊपर वृक्षके नीचे बैठे हुए शिष्योंने देखा कि बहुत देर हो गयी है और स्वामीजी उसी पूर्वप्रसङ्गको शान्तिपूर्वक चला रहे हैं। तब अधीर होकर एक शिष्यने हाथ जोड़कर विनती की ‘महाराज! जबतक हम अम्बादासको नहीं निकाल लेते, तबतक हमें अन्य किसी भी बातका ज्ञान नहीं हो रहा हैं। कृपा करके आज्ञा दें हमें, उसे देखें।’ मुसकराते हुए श्रीरामदासजीने वहीं बैठे-बैठे पुकारा-‘क्यों अम्बादास! कैसे क्या हो रहा है ?”
अब अम्बादास बहिर्जगत् में आया। तत्क्षण उसने ऊपरकी ओर देखा। इसी बीच प्रभु अन्तर्धान हो गये। अम्बादासने वहींसे गद्रद वाणीसे उत्तर दिया ‘आपकी कृपासे परम कल्याण है, महाराज! सब आनन्दमय है।’
फिर प्रयत्न करके कुएँसे बाहर निकलकर अम्बादासने समर्थ श्रीरामदासजीके चरण पकड़ लिये। आनन्द तथा प्रेमके आँसुओंसे उनके चरणोंको धोता शरीर और गद्रद वाणीसे वह बोला-‘भगवन्! आपने हुआ रोमाञ्चित | मेरा कल्याण कर दिया… यों कहते-कहते उसकी वाणी रुक गयी। दूसरे शिष्योंको उसकी आनन्दानुभूतिका पता उस कैसे लगता।
तभीसे अम्बादासका नाम ‘कल्याण’ हुआ। श्रीसंत रामदासजीके शिष्योंमें ये अग्रगण्य माने जाते हैं।
इन श्रीकल्याणजीका पहला नाम था – अम्बादास । छोटी उम्रमें ही इनका गुरु श्रीसंत रामदासजीसे सम्बन्ध हो गया था। गुरुजीने देखा कि यह तो पका हुआ फल ही है। अतः उन्होंने इनको अपने साथ ही सेवामें रहनेकी अनुमति दे दी। तबसे ये एकाग्रचित्त होकर अपने गुरुकी सेवामें रहे।
अम्बादासकी तपस्या पूरी हुई, परंतु अभीतक उन्हें भगवान् श्रीरामचन्द्रजीके दर्शन नहीं हुए। वे इसके लिये परम व्याकुल हो उठे। श्रीरामदासजीने भी देखा कि इसकी सेवा पूर्ण हो चुकी है, अतः अब यह भगवान्के शुभ दर्शनका पात्र हो गया है।
एक दिन श्रीरामदासजी सहज ही शिष्योंके साथ एक बड़े कुएँके समीप एक वृक्षके नीचे आराम कर रहे थे। उस वृक्षकी एक शाखा बिलकुल कुएँके ऊपरतक पहुँच गयी थी। रामदासजीने सोचा कि ‘यह मध्याह्नका समय है। इसी समय प्रभु श्रीरामचन्द्रका प्राकट्य (अवतार) हुआ था। और यह समय अपने शिष्य अम्बादासके सौभाग्योदय होनेके योग्य भी है। साथ ही इसी समय गुरुके शब्दोंपर अम्बादासकी। कितनी श्रद्धा तथा विश्वास है, इसकी भी परीक्षा हो। जायगी।’
गुरुजी श्रीरामदासजीने सहज भावसे अम्बादासकोपास बुलाया। मुझे गुरुजीने बुलाया है, इसी बात से अम्बादासको महान् आनन्द हुआ। वृक्षकी उस कुएँपर पहुँची हुई शाखाको अङ्गुलिसे दिखाकर रामदासजी बोले -‘अम्बादास ! तुम उस डालीतक जा सकोगे ?’ तत्परतासे अम्बादासने उत्तर दिया- ‘हाँ जी ! सहज ही जा सकूँगा।’
‘तो फिर ऐसा करो, करौत साथ ले जाओ। उस शाखापर जाकर उसे काट डालो।’ गुरुजीने आज्ञा दी ।
आज्ञाको ही अनुग्रह माननेवाले अम्बादासने ‘जी, अभी गया’ कहकर अपनी धोतीको अच्छी तरहसे बाँधकर पेड़ पर चढ़नेकी तैयारी की। ये चढ़ ही रहे थे कि गुरुजीने फिर कहा – ‘देखो, अच्छी तरह काटना । परंतु एक काम करना, शाखाके अगले भागकी ओर पीठ करके शाखापर खड़े होकर शाखाको अपने सामनेसे काटना।’
सब शिष्य तो यह सुनकर देखते ही रह गये। इस आज्ञाके अनुसार काटनेपर तो अम्बादास भी शाखाके साथ ही कुएँमें गिरेंगे। इसका कुछ भी विचार गुरुजीने नहीं किया।
परंतु अम्बादासके मनमें कोई दूसरा विचार ही नहीं आया। ‘जो आज्ञा’ कहकर वह शीघ्र ही उस शाखातक पहुँच गया। और जैसे गुरुजीने कहा था, उसी तरहशाखाके अगले भागपर खड़े होकर उसे काटना आरम्भ किया। उसके मनमें संदेह उत्पन्न करनेके लिये
रामदासजी बोले – ‘मूढ! यों काटोगे तो तुम स्वयं गिर
जाओगे कुएँ पड़कर योगे अम्बादासने उसी जगहसे प्रणाम करके विनयपूर्व कहा- ‘गुरुदेव ! आज्ञाका पालन करते समय मुझे कुछ भी नहीं हो सकता। जब आपकी कृपासे मैं संसार सागरसे ही तर जाऊँगा, तब इस जरा से कुएंकी तो
बात ही क्या है।’
‘ठीक है!’ गुरुजीने संतोषसे कहा- इतनी श्रद्धा है तो जरूर काटो।’
अम्बादासने शाखाको आधा काटा होगा कि वह टूटकर बड़ी आवाजके साथ अम्वादासके सहित कुएँ में गिर पड़ी। शिष्य मण्डली काँपकर हाहाकर कर उठी। श्रीरामदासजीने सबको वहीं चुपचाप बैठे रहनेकी आज्ञा दी। व्यथित-चित्तसे सब वहाँ बैठ गये। वे तरह तरहकी कल्पना करने लगे कि ‘जलमें डूबकर अम्वादासका देहान्त तो नहीं हो गया होगा।’ ‘इतने बड़े कुएँ में तो गिरनेकी आशङ्कासे ही आदमी मर जाता है और अम्बादास तो प्रत्यक्ष गिरा है।’ ‘गिरते समय मारे भयके उसकी चेतना लुप्त हो गयी होगी। तभी कोई आवाज नहीं आयी। देखें, अब उसकी आवाज आयेगी।’ परंतु समर्थ श्रीरामदासजी तो बड़ी शान्तिसे पहली बातें आगे चलाने लगे, मानो कुछ हुआ ही नहीं।
अम्बादास सीधा कुऍके बीचमें गिरा। न मालूम शाखा और करौत कहाँ गयी। जलमें गिरते समय उसने अपने गुरुका और प्रभु श्रीरामचन्द्रजीका स्मरण किया। एक बार जलसे ऊपर आकर आँखें खोलीं तो देखा कि जिनके पुण्य तथा दुर्लभ दर्शनके लिये अनेकों साधकोंने अपने प्राण-मन अर्पण कर दिये, जिनके लिये वह स्वयं बड़ी आतुरता तथा अधीरतासे प्रतीक्षा कर रहा था, वे ही भास्कर-कुल- दिवाकर रघुवंशशिरोमणि सच्चिदानन्दघन-विग्रह भगवान् श्रीरामचन्द्र उसके सामने मन्द मन्द मुसकराते हुए खड़े हैं। पता नहीं, जल कहाँ चला गया। निर्निमेष नेत्रोंसे टकटकी लगाये अम्बादास देखता ही रहा। अत्यन्त तेजःपुञ्ज शरीरसे मधुर मधुर दिव्य सुगन्ध निकलकर मनको मुग्ध कररही थी। अति सुन्दर श्यामसुन्दर शरीर था। प्रभुके एक हाथमें बाण और दूसरेमें धनुष था। मस्तक पर अति प्रखर सुवर्ण मुकुटसे बिखरे हुए बाल बाहर निकलकर कंधोंतक फैले हुए थे। सुन्दर पीताम्बर फहरा रहा था।
बस, अम्बादास स्मित-मुग्ध होकर देखता ही रह गया। उसके नेत्रोंसे प्रेमानन्दके आँसू बहने लगे। तदनन्तर बाह्य चेतना आनेपर वह प्रभुके चरणोंपर गिर गया। उसका जीवन कृतार्थ हो गया। एकमात्र दिव्य सुखानुभूतिके अतिरिक्त कोई भी संवेदना उसके मन उस समय नहीं रह गयी। हाथमें और सिरमें समीप सटे हुए भगवान्के कोमल चरण कमल और सिरफर प्रभुका वरद हस्त। इसके अतिरिक्त सारा जगत् उसके लिये विस्मृत अथवा विलुप्त हो गया। वह अनन्त सुखसागरमें निमग्र हो गया।
ऊपर वृक्षके नीचे बैठे हुए शिष्योंने देखा कि बहुत देर हो गयी है और स्वामीजी उसी पूर्वप्रसङ्गको शान्तिपूर्वक चला रहे हैं। तब अधीर होकर एक शिष्यने हाथ जोड़कर विनती की ‘महाराज! जबतक हम अम्बादासको नहीं निकाल लेते, तबतक हमें अन्य किसी भी बातका ज्ञान नहीं हो रहा हैं। कृपा करके आज्ञा दें हमें, उसे देखें।’ मुसकराते हुए श्रीरामदासजीने वहीं बैठे-बैठे पुकारा-‘क्यों अम्बादास! कैसे क्या हो रहा है ?”
अब अम्बादास बहिर्जगत् में आया। तत्क्षण उसने ऊपरकी ओर देखा। इसी बीच प्रभु अन्तर्धान हो गये। अम्बादासने वहींसे गद्रद वाणीसे उत्तर दिया ‘आपकी कृपासे परम कल्याण है, महाराज! सब आनन्दमय है।’
फिर प्रयत्न करके कुएँसे बाहर निकलकर अम्बादासने समर्थ श्रीरामदासजीके चरण पकड़ लिये। आनन्द तथा प्रेमके आँसुओंसे उनके चरणोंको धोता शरीर और गद्रद वाणीसे वह बोला-‘भगवन्! आपने हुआ रोमाञ्चित | मेरा कल्याण कर दिया… यों कहते-कहते उसकी वाणी रुक गयी। दूसरे शिष्योंको उसकी आनन्दानुभूतिका पता उस कैसे लगता।
तभीसे अम्बादासका नाम ‘कल्याण’ हुआ। श्रीसंत रामदासजीके शिष्योंमें ये अग्रगण्य माने जाते हैं।