पुराण और इतिहास (महाकाव्य इतिहास) पुराण शब्दावली में दंडधारा
वैदिक पथिक-✍
(शैववाद (शैव दर्शन)
शैव धर्म शब्दावली में दंडधारा
स्रोत :- शोधगंगा: शिव के प्रतीकात्मक प्रतिनिधित्व
दंडधर (दण्डधर) या दंडरागम, प्रोद्गीतागम के एक उपागम (अनुपूरक शास्त्र) को संदर्भित करता है,जो अट्ठाईस सिद्धांतागम में से एक है। शैवागम के शैव विभाग का वर्गीकरण । शिवागम उस ज्ञान का प्रतिनिधित्व करते हैं जो भगवान शिव से आया है, पार्वती द्वारा प्राप्त किया गया और विष्णु द्वारा स्वीकार किया गया।
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दंडधारा (दंडधर).—मगध का एक क्षत्रिय राजा। इस राजा के बारे में निम्नलिखित जानकारी महाभारत से प्राप्त होती है।
दंडधारा का जन्म क्रोधवर्धन नामक एक दानव के
पुन र्जन्म के रूप में हुआ था।
(महाभारत आदिपर्व,अध्याय 67,श्लोक 46)।
भीमसेन ने,देशों की अपनी विजय के दौरान,राजा दंडधर
और उनके भाई दंड पर विजय प्राप्त की।
(महाभारत सभा पर्व, अध्याय 30, छंद 17)।
पांडवों और कौरवों के बीच युद्ध में,दंडधर पांडवों के खिलाफ एक हाथी की पीठ से लड़े। जब दंडधर ने पांडवों की सेना का विनाश करना शुरू किया, तो श्री कृष्ण ने अर्जुन को दंडधर के खिलाफ लड़ने के लिए राजी किया, जो लड़ाई में मारा गया था।
(महाभारत कर्ण पर्व, अध्याय 8, श्लोक 1 से 13)।
दंडधर (दंडधर).—पंचाल देश में जन्मा और पाला हुआ एक योद्धा। उन्होंने कौरवों के खिलाफ भारत की लड़ाई में युधिष्ठिर की सेना के पीछे रखा। कर्ण के एक बाण से उनकी मृत्यु हो गई।
(महाभारत कर्ण पर्व, अध्याय 49, छंद 27)।
|| दण्डे स्थिताः प्रजा ||
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( दण्ड पर ही प्रजा टिकी है)
दण्डः शास्ति प्रजाः सर्वा दण्ड एवाभिरक्षति ।
दण्डः सुप्तेषु जागर्ति दण्डं धर्मं विदुर्बुधाः ॥
अर्जुन बोले- राजन् ! दण्ड समस्त प्रजाओंका शासन करता है,दण्ड ही उनकी सब ओर से रक्षा करता है, सबके सो जानेपर भी दण्ड जागता रहता है; इसलिये विद्वान् पुरुषोंने दण्ड को राजा का धर्म माना है ॥
दण्डः संरक्षते धर्मं तथैवार्थं जनाधिप ।
कामं संरक्षते दण्डस्त्रिवर्गो दण्ड उच्यते ॥
जनेश्वर ! दण्ड ही धर्म और अर्थकी रक्षा करता है, वही कामका भी रक्षक है,अतःदण्ड त्रिवर्गरूप कहा जाता है ॥
दण्डेन रक्ष्यते धान्यं धनं दण्डेन रक्ष्यते ।
एवं विद्वानुपाधत्स्व भावं पश्यस्व लौकिकम् ॥
दण्डसे धान्यकी रक्षा होती है, उसीसे धनकी भी रक्षा होती है, ऐसा जानकर आप भी दण्ड धारण कीजिये और जगत् के व्यवहारपर दृष्टि डालिये ॥
राजदण्डभयादेके पापाः पापं न कुर्वते ।
यमदण्डभयादेके परलोकभयादपि ॥
परस्परभयादेके पापाः पापं न कुर्वते ।
एवं सांसिद्धिके लोके सर्वं दण्डे प्रतिष्ठितम् ॥
कितने ही पापी राजदण्डके भयसे पाप नहीं करते। विक्रमादित्य काल में
2300 साल पहले जब सिक्के ढालकर बनाए जाने लगे तब उज्जैन के सिक्कों पर शिव के कई और प्रतीक रूप बनाए गए। इसमें दंडधारी शिव,उमामहेश,जटाशंकर, कमंडलधारी शिव,नंदी के साथ शिव, शिव का रौद्ररूप, गंगा अवतरण करते हुए शिव, त्रिमुख शिव, चर्तुमुख शिव तथा महाकाल रूप में शिव अंकन के सिक्के प्रमुख हैं।
भगवान भोलेनाथ के स्वरूप का अंकन प्राचीन काल में प्रचलित मुद्राओं में भी देखने को मिलता है। करीब 2100 वर्ष पूर्व महाराजा विक्रमादित्य के कार्यकाल में प्रचलित सिक्कों पर भगवान शिव का अंकन किया गया। पुरातत्वविद डाॅ. आरसी ठाकुर ने बताया कि कापर के सिक्के पर दंडधारी शिव बने है। समीप ही वैदिका वृक्ष भी है। वही पिछले भाग पर उज्जैनी का चिन्ह है। यह मुद्राएं अश्विनी शोध संस्था में संग्रहित है।
ढाई हजा साल पहले सिक्कों पर दिखती थी-
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शोध संस्थान के निदेशक मुद्रा शास्त्री डा.आरसी ठाकुर बताते हैं कि भगवान महाकाल का प्रताप इतना है कि उज्जैन पर आधिपत्य करने वाले विदेशी शासकों को भी अपने सिक्कों पर शिव की आकृतियों ओर शिव से संबंधित विशेष नामों का अंकन करना पड़ा।
अन्तिम में सेंगोल
शैव मत के पवित्र मठ थिरुवदुथुराई आदिनम ने स्वतंत्रता के समय सेंगोल के महत्व के बारे में बताया था।स्वतंत्रता के प्रतीक के रूप में तमिलनाडु के पवित्र शैव मठ द्वारा भारत के प्रथम प्रधानमंत्री को पवित्र सेंगोल दिया गया था।
|| दंड़धारी सेंगोल भगवान शंकर ||
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