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अपने को बिना शर्त भगवान् को अर्पण करे। लोग कहते हैं कि अर्पण तो होता नहीं है। इसका सीधा उत्तर है, भले ही कोई माने या न माने कि हम अर्पण करना चाहते ही नहीं हैं।
एक मदनमोहनजी शास्त्री थे। वे बड़े विद्वान् थे और विनोदी स्वभाव के थे। उन्होंने एक बड़ी दिल्लगी की बात कही। उन्होंने कहा-एक पण्डितजी थे। वे किसी गाँव में कथा कहने गये। वे बड़ी सुन्दर-सुन्दर बातें कहने लगे जिससे लोग बड़े प्रभावित हुए।
लोग आकर उन्हें पैसा देने लगे। उन्होंने कहा-नहीं, मैं पैसा नहीं लेता। तब पैसा देनेवालों ने सोचा कि ये लेते तो हैं नहीं तो इनको रुपया दे दो। लोग कहेंगे कि वह रुपया दे रहा था। उनको रुपया दिया तो नहीं लिये, दस-बीस रुपया दिया तो नहीं लिये। सौ-पचास रुपया दिया तो भी नहीं लिये।
गाँव में यह बात फैल गयी कि पण्डितजी महाराज बड़े निर्लोभी हैं। कोई कुछ दे तो लेते नहीं हैं। एक सेठजीने सोचा कि पण्डितजी लेते तो हैं नहीं तो अपने को बड़ा आदमी बनने में क्या हर्ज है। यह पुराने जमाने की बात है।
आज तो हजार रुपये कुछ नहीं है परन्तु उस समय बहुत बड़ी रकम थी। सेठजी एक हजार की थैली लेकर गये और बोले–महाराज ! इसको ले लीजिये। पंडितजीने कहा नहीं, मैं इसे नहीं लूँगा। सेठजी ने फिर आग्रह किया तो पण्डितजी ने रोषपूर्वक कहा- नहीं, मुझे रुपया दिखाते हो ? उसने कहा-महाराज ! लेना पड़ेगा। इन्होंने फिर मना कर दिया।
सेठजी ने फिर आग्रह किया कि इसे ले लीजिये तब उन्होंने अपने शिष्य को बुलाया और कहा-देखो, यह बड़ा आग्रह कर रहा है। चलो, आज व्रत भी टूटे तब भी इसे ले लो। अब तो सेठजीका मुँह सूख गया। वह एक पैसा नहीं देना चाहता था और बेचारा लुट गया।
उसी तरह हम लोग भी भगवान् से ले लो, ले लो कहते हैं परन्तु देना चाहते नहीं हैं। कहते हैं—महाराज ! ले लो, सब आपका हैं। यह आपका वह आपका हम आपके हैं। यदि भगवान् बोलें-जरा, मुझे दे दो तो। तब हम ऐसा नहीं करेंगे। हम विशुद्ध मन से नहीं कहते हैं।
“जय जय श्री राधे”