राज्यका मूल्य ?
चन्देलवंशके राजा शिवलिंगम् अत्यन्त ही न्यायपालक और उदारमना थे। वे अपनी प्रजाको अपनी सन्तानकी तरह प्यार करते थे। प्रजा भी अपने राजाका बहुत ही आदर और सम्मान करती थी। बहुत वर्षोंतक राज्य करते करते राजा शिवलिंगम् वृद्ध हो चले थे। वे चाहते थे कि अब राज्य युवराज गोविन्दम्को सौंप दें, लेकिन अबतक गोविन्दम् राजा बननेकी योग्यता प्राप्त नहीं कर सका था।
युवराज गोविन्दम् अत्यन्त ही क्रोधी,
विलासप्रिय, अत्याचारी और क्रूर स्वभावका था। राजा शिवलिंगम्के पास उसके विरुद्ध अनेक शिकायतें आती रहती थीं। युवराजको बुलाकर अनेक बार वे समझा भी चुके थे, लेकिन गोविन्दम् अपने स्वभावको बदल नहीं सका।
राजा शिवलिंगम्को सदा चिन्ता लगी रहती थी कि वृद्ध हैं और कभी भी उनकी मृत्यु हो सकती है। यदि वे वे अपने पीछे योग्य राजाको छोड़कर नहीं गये तो उनकी प्रजाका क्या होगा और प्रजा सुखी कैसे रह सकेगी ? चिन्ता करते-करते उन्हें विचार आया कि उनके कुलगुरु अम्बुकाचार्य बड़े ही ज्ञानी और पहुँचे हुए सन्त हैं। समय- समयपर उनके द्वारा मार्गदर्शन मिलता रहा है। जब-जब उनके सामने कोई समस्या आयी है, तब-तब गुरु अम्बुकाचार्यने ही उन्हें मार्ग सुझाया है। गुरु अम्बुकाचार्यका विचार आते ही राजा शिवलिंगम्की चिन्ता जैसे जाती रही। उन्होंने निर्णय लिया कि वे अपने पुत्र, भावी राजा गोविन्दम्को गुरु अम्बुकाचार्यके पास भेजेंगे। वे जानते थे कि गोविन्दम् उद्दण्ड होनेपर भी गुरु अम्बुकाचार्यका सम्मान करता है और उनकी बात कभी भी टाल नहीं सकता।
अगले ही दिन राजा शिवलिंगम्ने एक पत्र गुरुजीको लिखा। इसमें उन्होंने स्पष्ट किया कि वे युवराज गोविन्दम्को उनके पास भेज रहे हैं, जिससे वे उसे राजाके गुणोंसे परिचित करा सकें। गोविन्दम् अभीतक योग्य और समझदार नहीं हो सका है, लेकिन शीघ्र ही उसे राजाका कर्तव्य निर्वाह करना पड़ेगा। इसलिये उसे उचित शिक्षा देकर राजा होनेयोग्य बनाइये
राजाका पत्र लेकर गोविन्दम् गुरु आश्रमकी ओर चल दिया। वह रास्तेमें शिकार खेलता और जंगलके निवासियोंपर अत्याचार करता हुआ आश्रमकी और बढ़ने लगा। जंगलके आदिवासी लोगोंने जब प्रार्थना की कि उनके ऊपर दया की जाय, तो गोविन्दमने अपनी क्रूरताका परिचय देते हुए उनसे कहा- ‘मैं यहाँका होनेवाला राजा हूँ, मुझे पूरा अधिकार है कि मैं जो चाहूँ, सो करूँ। राजा सदा ही प्रजासे बड़ा होता है।’
गोविन्दम् जगह-जगह पड़ाव डालता और मौज मजा करता हुआ आश्रमकी और बढ़ रहा था। गुरु अम्बुकाचार्यतक उसके अत्याचारोंकी सूचना, उसके पहुँचनेसे पहले ही पहुँच गयी थी। निर्धन और भोले भाले जंगलवासियोंने गुरु अम्बुकाचार्यको उसकी दुष्टताके बारेमें पहले ही बता दिया था। आश्रम पहुँचनेसे पहले गोविन्दम्ने अपने सेवकों और सैनिकोंको आज्ञा दी कि आश्रममें किसी प्रकारकी उद्दण्डता नहीं होनी चाहिये और गुरुजीको शिकायतका तनिक भी अवसर नहीं दिया जाना चाहिये। आश्रम पहुँचने पर सभी सेवक और सैनिक विनम्र और सज्जन बन गये। गोविन्दम् भी अत्यन्त श्रद्धा और विनयके साथ गुरुजीके सामने आया और उसने चरण छूकर उन्हें प्रणाम किया। तत्पश्चात् पिता राजा शिवलिंगमद्वारा भेजा पत्र उनको दिया। गुरुजीने पत्र पढ़ा और सारी स्थिति समझ गये। उन्होंने गोविन्दम् और सेवकोंको विश्राम एवं भोजन करनेका आदेश दिया।
भोजन और विश्राम करनेके पश्चात् गुरु अम्बुकाचार्यने गोविन्दम्को अपने पास बुलाया और उसके साथ चौपड़ खेलनेकी इच्छा प्रकट की। दोनों चौपड़ खेलने लगे। बातोंका सिलसिला आरम्भ किया और पूछा ‘अच्छा गोविन्दम्! अगर तुम जंगलमें शिकार खेलने जाओ और रास्ता भूलकर इधर-उधर भटकने लगो और तुम्हें रास्ता न मिले, तुम थक जाओ, संध्या हो जाय, भूख-प्यासके मारे तुम्हारी बुरी दशा हो जाय तो बताओ तुम क्या करोगे ?”
गोविन्दम्को इस विचित्र प्रश्नका एकाएक ही कोई उत्तर नहीं सूझा। वह कुछ सोचने लगा।
गुरुजीने फिर कहा-‘मारे भूखके तुम्हारे प्राण बाहर निकलने लगें और ऐसेमें तुम्हारे सामने एक आदमी भोजनका थाल लेकर आ जाय और कहे कि तुम उसे आधा राज्य दोगे तो वह तुम्हें भोजन दे देगा, तो तुम क्या करोगे ?
गोविन्दम्ने इस बार बिना सोचे-समझे ही उत्तर दिया- ‘गुरुजी ! जब मेरे प्राणोंपर बन आयी हो तो ऐसेमें राज्यका मैं क्या करूँगा, मैं तुरंत आधा राज्य देकर भोजन प्राप्त कर लूँगा।’
गुरुजीने कहा- ‘ऐसा ही करना चाहिये। कोई भी बुद्धिमान् व्यक्ति ऐसा ही करेगा। अब यह बताओ कि भोजन करनेके बाद, प्यासके मारे तुम्हारे प्राण निकलने लगें और ऐसेमें कोई दूसरा व्यक्ति पानी लेकर तुम्हारे सामने आये और कहे कि बचा हुआ आधा राज्य देनेपर वह पानी देकर तुम्हारी प्यास बुझायेगा, तो तुम क्या करोगे ?’
गोविन्दम्ने तुरंत कहा-‘प्राणके बिना संसार कैसागुरुजी ! प्राण बचानेके लिये मैं वह आधा राज्य भी दे दूँगा।’
गुरु अम्बुकाचार्य मुसकराये और बोले—’तो तुम्हारे राज्यका मूल्य केवल एक समयका भोजन और पानी है, अर्थात् राज्यके मूल्यसे प्राणका मूल्य अधिक है, अतः तुम भी जब राजा बनो तो यह मत भूलना कि प्रजाके प्राणोंका मूल्य राज्यसे अधिक है।’
गोविन्दम् गुरु अम्बुकाचार्यका अभिप्राय समझ गया था, उसका राज्य-सम्बन्धी अहंकार अब समाप्त हो गया था। उसने उनके चरणोंमें प्रणाम किया और अपने राजभवनको लौट आया। गुरुकी सीखको उसने आजीवन याद रखा और एक श्रेष्ठ राजा बना।
राज्यका मूल्य ?
चन्देलवंशके राजा शिवलिंगम् अत्यन्त ही न्यायपालक और उदारमना थे। वे अपनी प्रजाको अपनी सन्तानकी तरह प्यार करते थे। प्रजा भी अपने राजाका बहुत ही आदर और सम्मान करती थी। बहुत वर्षोंतक राज्य करते करते राजा शिवलिंगम् वृद्ध हो चले थे। वे चाहते थे कि अब राज्य युवराज गोविन्दम्को सौंप दें, लेकिन अबतक गोविन्दम् राजा बननेकी योग्यता प्राप्त नहीं कर सका था।
युवराज गोविन्दम् अत्यन्त ही क्रोधी,
विलासप्रिय, अत्याचारी और क्रूर स्वभावका था। राजा शिवलिंगम्के पास उसके विरुद्ध अनेक शिकायतें आती रहती थीं। युवराजको बुलाकर अनेक बार वे समझा भी चुके थे, लेकिन गोविन्दम् अपने स्वभावको बदल नहीं सका।
राजा शिवलिंगम्को सदा चिन्ता लगी रहती थी कि वृद्ध हैं और कभी भी उनकी मृत्यु हो सकती है। यदि वे वे अपने पीछे योग्य राजाको छोड़कर नहीं गये तो उनकी प्रजाका क्या होगा और प्रजा सुखी कैसे रह सकेगी ? चिन्ता करते-करते उन्हें विचार आया कि उनके कुलगुरु अम्बुकाचार्य बड़े ही ज्ञानी और पहुँचे हुए सन्त हैं। समय- समयपर उनके द्वारा मार्गदर्शन मिलता रहा है। जब-जब उनके सामने कोई समस्या आयी है, तब-तब गुरु अम्बुकाचार्यने ही उन्हें मार्ग सुझाया है। गुरु अम्बुकाचार्यका विचार आते ही राजा शिवलिंगम्की चिन्ता जैसे जाती रही। उन्होंने निर्णय लिया कि वे अपने पुत्र, भावी राजा गोविन्दम्को गुरु अम्बुकाचार्यके पास भेजेंगे। वे जानते थे कि गोविन्दम् उद्दण्ड होनेपर भी गुरु अम्बुकाचार्यका सम्मान करता है और उनकी बात कभी भी टाल नहीं सकता।
अगले ही दिन राजा शिवलिंगम्ने एक पत्र गुरुजीको लिखा। इसमें उन्होंने स्पष्ट किया कि वे युवराज गोविन्दम्को उनके पास भेज रहे हैं, जिससे वे उसे राजाके गुणोंसे परिचित करा सकें। गोविन्दम् अभीतक योग्य और समझदार नहीं हो सका है, लेकिन शीघ्र ही उसे राजाका कर्तव्य निर्वाह करना पड़ेगा। इसलिये उसे उचित शिक्षा देकर राजा होनेयोग्य बनाइये
राजाका पत्र लेकर गोविन्दम् गुरु आश्रमकी ओर चल दिया। वह रास्तेमें शिकार खेलता और जंगलके निवासियोंपर अत्याचार करता हुआ आश्रमकी और बढ़ने लगा। जंगलके आदिवासी लोगोंने जब प्रार्थना की कि उनके ऊपर दया की जाय, तो गोविन्दमने अपनी क्रूरताका परिचय देते हुए उनसे कहा- ‘मैं यहाँका होनेवाला राजा हूँ, मुझे पूरा अधिकार है कि मैं जो चाहूँ, सो करूँ। राजा सदा ही प्रजासे बड़ा होता है।’
गोविन्दम् जगह-जगह पड़ाव डालता और मौज मजा करता हुआ आश्रमकी और बढ़ रहा था। गुरु अम्बुकाचार्यतक उसके अत्याचारोंकी सूचना, उसके पहुँचनेसे पहले ही पहुँच गयी थी। निर्धन और भोले भाले जंगलवासियोंने गुरु अम्बुकाचार्यको उसकी दुष्टताके बारेमें पहले ही बता दिया था। आश्रम पहुँचनेसे पहले गोविन्दम्ने अपने सेवकों और सैनिकोंको आज्ञा दी कि आश्रममें किसी प्रकारकी उद्दण्डता नहीं होनी चाहिये और गुरुजीको शिकायतका तनिक भी अवसर नहीं दिया जाना चाहिये। आश्रम पहुँचने पर सभी सेवक और सैनिक विनम्र और सज्जन बन गये। गोविन्दम् भी अत्यन्त श्रद्धा और विनयके साथ गुरुजीके सामने आया और उसने चरण छूकर उन्हें प्रणाम किया। तत्पश्चात् पिता राजा शिवलिंगमद्वारा भेजा पत्र उनको दिया। गुरुजीने पत्र पढ़ा और सारी स्थिति समझ गये। उन्होंने गोविन्दम् और सेवकोंको विश्राम एवं भोजन करनेका आदेश दिया।
भोजन और विश्राम करनेके पश्चात् गुरु अम्बुकाचार्यने गोविन्दम्को अपने पास बुलाया और उसके साथ चौपड़ खेलनेकी इच्छा प्रकट की। दोनों चौपड़ खेलने लगे। बातोंका सिलसिला आरम्भ किया और पूछा ‘अच्छा गोविन्दम्! अगर तुम जंगलमें शिकार खेलने जाओ और रास्ता भूलकर इधर-उधर भटकने लगो और तुम्हें रास्ता न मिले, तुम थक जाओ, संध्या हो जाय, भूख-प्यासके मारे तुम्हारी बुरी दशा हो जाय तो बताओ तुम क्या करोगे ?”
गोविन्दम्को इस विचित्र प्रश्नका एकाएक ही कोई उत्तर नहीं सूझा। वह कुछ सोचने लगा।
गुरुजीने फिर कहा-‘मारे भूखके तुम्हारे प्राण बाहर निकलने लगें और ऐसेमें तुम्हारे सामने एक आदमी भोजनका थाल लेकर आ जाय और कहे कि तुम उसे आधा राज्य दोगे तो वह तुम्हें भोजन दे देगा, तो तुम क्या करोगे ?
गोविन्दम्ने इस बार बिना सोचे-समझे ही उत्तर दिया- ‘गुरुजी ! जब मेरे प्राणोंपर बन आयी हो तो ऐसेमें राज्यका मैं क्या करूँगा, मैं तुरंत आधा राज्य देकर भोजन प्राप्त कर लूँगा।’
गुरुजीने कहा- ‘ऐसा ही करना चाहिये। कोई भी बुद्धिमान् व्यक्ति ऐसा ही करेगा। अब यह बताओ कि भोजन करनेके बाद, प्यासके मारे तुम्हारे प्राण निकलने लगें और ऐसेमें कोई दूसरा व्यक्ति पानी लेकर तुम्हारे सामने आये और कहे कि बचा हुआ आधा राज्य देनेपर वह पानी देकर तुम्हारी प्यास बुझायेगा, तो तुम क्या करोगे ?’
गोविन्दम्ने तुरंत कहा-‘प्राणके बिना संसार कैसागुरुजी ! प्राण बचानेके लिये मैं वह आधा राज्य भी दे दूँगा।’
गुरु अम्बुकाचार्य मुसकराये और बोले—’तो तुम्हारे राज्यका मूल्य केवल एक समयका भोजन और पानी है, अर्थात् राज्यके मूल्यसे प्राणका मूल्य अधिक है, अतः तुम भी जब राजा बनो तो यह मत भूलना कि प्रजाके प्राणोंका मूल्य राज्यसे अधिक है।’
गोविन्दम् गुरु अम्बुकाचार्यका अभिप्राय समझ गया था, उसका राज्य-सम्बन्धी अहंकार अब समाप्त हो गया था। उसने उनके चरणोंमें प्रणाम किया और अपने राजभवनको लौट आया। गुरुकी सीखको उसने आजीवन याद रखा और एक श्रेष्ठ राजा बना।