केहि कर हृदय क्रोध नहिं दाहा

statue zen buddha

‘केहि कर हृदय क्रोध नहिं दाहा’

व्याकरणशास्त्र के शिरोमणि आचार्य महर्षि पाणिनि देवी दाक्षीके पुत्र एवं आचार्य उपवर्षके शिष्य थे। विद्यार्थी जीवनमें प्रतिभाहीनताका दंश झेलनेवाले पाणिनिने गुरुपलीके सदय परामर्शसे प्रेरित हो भगवान् शिवकी उत्कट तपस्या की। प्रयागस्थ अक्षयवटके नीचे तपोनिरत महर्षि पाणिनिपर भगवान् शंकरने परम अनुग्रहकर चतुर्दशसूत्रात्मक शब्दविज्ञान प्रदान किया। पाणिनिने उसीका आधार लेकर व्याकरण सूत्रोंकी रचना की, जिसे ‘अष्टाध्यायी’ कहा जाता है। इसके अतिरिक्त उन्होंने धातुपाठ, गणपाठ, जाम्बवतीजय महाकाव्य आदि ग्रन्थोंका भी प्रणयन किया। इनमें अन्यतम अष्टाध्यायीकी समग्र विश्वके भाषाशास्त्रियोंने भूरि-भूरि प्रशंसा की आचार्य पाणिनिके इस प्रकारके वैदुष्यको देखकर उनके सहपाठी आचार्य कात्यायन अमर्षसे व्याकुल हो उठे और उन्होंने अष्टाध्यायीकी आलोचना करनेके उद्देश्यसे ‘वार्तिक’ नामक ग्रन्थका प्रणयन कर डाला। कात्यायनका यह कृत्य पाणिनि सहन न कर सके और उन्होंने मर्माहत होकर उन्हें शाप दे दिया—’कात्यायन ! तुम शीघ्र ही मृत्युको प्राप्त करोगे।’ पाणिनिके इस दारुण शापसे किंकर्तव्यविमूढ़ हुए कात्यायनने भी उनको शाप दे डाला-‘पाणिनि ! तुम्हें सूर्योदयसे पूर्व ही व्याघ्र मार डालेगा।’ इस प्रकार एक ही तिथि—त्रयोदशीको व्याकरणशास्त्रके दो महामनीषी क्रोध और असहिष्णुताके कारण विनाशको प्राप्त हो गये। इधर भगवान शंकरने देखा कि पाणिनिकी उत्कट तपस्या और | मेरे अनुग्रहसे आविर्भूत यह व्याकरणशास्त्र नष्ट हो जायगा, अतः उन्होंने इसकी रक्षाके लिये अपनी ही तामसी कलाको । धारण करनेवाले भगवान् शेषनागसे अनुरोध किया- ‘देव! |आप पाणिनीय व्याकरणकी रक्षाहेतु भूतलपर अवतीर्ण हों।’
इसी समय चिदम्बर क्षेत्रमें गोणिका नामकी एक परम साध्वी महिला अयोनिज पुत्रकी प्राप्तिके लिये तपस्या कर रही थी । एक दिन प्रातःकाल उसने सूर्यदेवको अर्घ्यरूप जलांजलि देना चाहा, उसी समय भगवान् शेष उसकी अंजलिमें सर्परूपमें अवतरित हुए और गोणिकाकी प्रार्थनापर शिशुरूपमें परिणत हो गये। अंजलिमें पतित होने अर्थात् गिरनेके कारण वे ‘पतंजलि’ कहलाये। महर्षि पतंजलिने
व्याकरण, आयुर्वेद एवं योगदर्शनपर क्रमशः महाभाष्य, चरकसंहिता एवं योगसूत्रका प्रणयन किया। इन्होंने अनेक ऐतिहासिक युगान्तरकारी कृत्योंके सम्पादनके साथ ‘नन्दवध’ नामक महाकाव्यका प्रणयन भी किया था। महर्षि पतंजलिने भगवान् शिवके निर्देशानुसार पाणिनीय सूत्रों तथा कात्यायनीय वार्तिकोंका समन्वय करते हुए उनका नितान्त गम्भीर व्याख्यान किया, जिसे महाभाष्य कहा जाता है। महाभाष्यका प्रणयन करनेके उपरान्त पतंजलिने पाणिनीय व्याकरणके अध्ययन अध्यापनकी परम्पराको पुनः प्रारम्भ किया। वे अध्यापनके अवसरपर यवनिका (परदा)-के पीछे स्थित हो जाते और शेषनागस्वरूपसे अपने हजार मुखोंके द्वारा विशाल शिष्य मण्डलीके समक्ष व्याकरणका प्रवचन करते तथा उनके नानाविध प्रश्नोंका समाधान करते। इस प्रकार अद्भुतरीतिसे जब व्याकरणशास्त्रका अध्ययन-अध्यापन हो रहा था, तो एक दिन किसी उद्धत छात्रने कौतूहलवश परदा उठानेकी ‘भूल कर दी, जिसका परिणाम यह हुआ कि महर्षि पतंजलिकी कोपाग्नि प्रज्वलित हो उठी और उस क्रोधज्वालामें वे हजारों शिष्य एक ही साथ भस्म हो गये। इस घटनासे निर्विण्ण महर्षि पतंजलिने भी अपना स्वरूप तिरोहित कर लिया। कहते हैं कि यह दारुण घटना भी त्रयोदशी तिथिमें ही घटी थी, अतः व्याकरणके परम्परागत आचार्य त्रयोदशीको आज भी व्याकरणका अध्ययन-अध्यापन नहीं करते। महर्षि पतंजलिके तिरोधानके पर्याप्त समयके बीत जानेके बाद येन-केन प्रकारेण पुनः पाणिनीय व्याकरणकी प्रतिष्ठा हुई।
यह परम्परागत अनुश्रुति इस तथ्यको स्पष्टतः संकेतित करती है कि क्रोध- अमर्ष आदि मनोविकार किस प्रकार व्यष्टि और समष्टिके हितोंको विनष्ट कर देते हैं, अतः मनुष्यको पुनः-पुनः अपने स्वभावका निरीक्षण करते रहना चाहिये कि कहीं वह इन विकारोंका शिकार तो नहीं बनता जा रहा है। इन मानस विकारोंके उपशमनका सर्वाधिक सफल उपाय इनपर सतर्क दृष्टि बनाये रखना है – प्रत्यहं प्रत्यवेक्षेत । ऐसा होनेपर निश्चय ही विश्वबन्धुताका व्यापक प्रसार तथा आत्माभ्युदय सम्पन्न हो सकेगा।

‘केहि कर हृदय क्रोध नहिं दाहा’
व्याकरणशास्त्र के शिरोमणि आचार्य महर्षि पाणिनि देवी दाक्षीके पुत्र एवं आचार्य उपवर्षके शिष्य थे। विद्यार्थी जीवनमें प्रतिभाहीनताका दंश झेलनेवाले पाणिनिने गुरुपलीके सदय परामर्शसे प्रेरित हो भगवान् शिवकी उत्कट तपस्या की। प्रयागस्थ अक्षयवटके नीचे तपोनिरत महर्षि पाणिनिपर भगवान् शंकरने परम अनुग्रहकर चतुर्दशसूत्रात्मक शब्दविज्ञान प्रदान किया। पाणिनिने उसीका आधार लेकर व्याकरण सूत्रोंकी रचना की, जिसे ‘अष्टाध्यायी’ कहा जाता है। इसके अतिरिक्त उन्होंने धातुपाठ, गणपाठ, जाम्बवतीजय महाकाव्य आदि ग्रन्थोंका भी प्रणयन किया। इनमें अन्यतम अष्टाध्यायीकी समग्र विश्वके भाषाशास्त्रियोंने भूरि-भूरि प्रशंसा की आचार्य पाणिनिके इस प्रकारके वैदुष्यको देखकर उनके सहपाठी आचार्य कात्यायन अमर्षसे व्याकुल हो उठे और उन्होंने अष्टाध्यायीकी आलोचना करनेके उद्देश्यसे ‘वार्तिक’ नामक ग्रन्थका प्रणयन कर डाला। कात्यायनका यह कृत्य पाणिनि सहन न कर सके और उन्होंने मर्माहत होकर उन्हें शाप दे दिया—’कात्यायन ! तुम शीघ्र ही मृत्युको प्राप्त करोगे।’ पाणिनिके इस दारुण शापसे किंकर्तव्यविमूढ़ हुए कात्यायनने भी उनको शाप दे डाला-‘पाणिनि ! तुम्हें सूर्योदयसे पूर्व ही व्याघ्र मार डालेगा।’ इस प्रकार एक ही तिथि—त्रयोदशीको व्याकरणशास्त्रके दो महामनीषी क्रोध और असहिष्णुताके कारण विनाशको प्राप्त हो गये। इधर भगवान शंकरने देखा कि पाणिनिकी उत्कट तपस्या और | मेरे अनुग्रहसे आविर्भूत यह व्याकरणशास्त्र नष्ट हो जायगा, अतः उन्होंने इसकी रक्षाके लिये अपनी ही तामसी कलाको । धारण करनेवाले भगवान् शेषनागसे अनुरोध किया- ‘देव! |आप पाणिनीय व्याकरणकी रक्षाहेतु भूतलपर अवतीर्ण हों।’
इसी समय चिदम्बर क्षेत्रमें गोणिका नामकी एक परम साध्वी महिला अयोनिज पुत्रकी प्राप्तिके लिये तपस्या कर रही थी । एक दिन प्रातःकाल उसने सूर्यदेवको अर्घ्यरूप जलांजलि देना चाहा, उसी समय भगवान् शेष उसकी अंजलिमें सर्परूपमें अवतरित हुए और गोणिकाकी प्रार्थनापर शिशुरूपमें परिणत हो गये। अंजलिमें पतित होने अर्थात् गिरनेके कारण वे ‘पतंजलि’ कहलाये। महर्षि पतंजलिने
व्याकरण, आयुर्वेद एवं योगदर्शनपर क्रमशः महाभाष्य, चरकसंहिता एवं योगसूत्रका प्रणयन किया। इन्होंने अनेक ऐतिहासिक युगान्तरकारी कृत्योंके सम्पादनके साथ ‘नन्दवध’ नामक महाकाव्यका प्रणयन भी किया था। महर्षि पतंजलिने भगवान् शिवके निर्देशानुसार पाणिनीय सूत्रों तथा कात्यायनीय वार्तिकोंका समन्वय करते हुए उनका नितान्त गम्भीर व्याख्यान किया, जिसे महाभाष्य कहा जाता है। महाभाष्यका प्रणयन करनेके उपरान्त पतंजलिने पाणिनीय व्याकरणके अध्ययन अध्यापनकी परम्पराको पुनः प्रारम्भ किया। वे अध्यापनके अवसरपर यवनिका (परदा)-के पीछे स्थित हो जाते और शेषनागस्वरूपसे अपने हजार मुखोंके द्वारा विशाल शिष्य मण्डलीके समक्ष व्याकरणका प्रवचन करते तथा उनके नानाविध प्रश्नोंका समाधान करते। इस प्रकार अद्भुतरीतिसे जब व्याकरणशास्त्रका अध्ययन-अध्यापन हो रहा था, तो एक दिन किसी उद्धत छात्रने कौतूहलवश परदा उठानेकी ‘भूल कर दी, जिसका परिणाम यह हुआ कि महर्षि पतंजलिकी कोपाग्नि प्रज्वलित हो उठी और उस क्रोधज्वालामें वे हजारों शिष्य एक ही साथ भस्म हो गये। इस घटनासे निर्विण्ण महर्षि पतंजलिने भी अपना स्वरूप तिरोहित कर लिया। कहते हैं कि यह दारुण घटना भी त्रयोदशी तिथिमें ही घटी थी, अतः व्याकरणके परम्परागत आचार्य त्रयोदशीको आज भी व्याकरणका अध्ययन-अध्यापन नहीं करते। महर्षि पतंजलिके तिरोधानके पर्याप्त समयके बीत जानेके बाद येन-केन प्रकारेण पुनः पाणिनीय व्याकरणकी प्रतिष्ठा हुई।
यह परम्परागत अनुश्रुति इस तथ्यको स्पष्टतः संकेतित करती है कि क्रोध- अमर्ष आदि मनोविकार किस प्रकार व्यष्टि और समष्टिके हितोंको विनष्ट कर देते हैं, अतः मनुष्यको पुनः-पुनः अपने स्वभावका निरीक्षण करते रहना चाहिये कि कहीं वह इन विकारोंका शिकार तो नहीं बनता जा रहा है। इन मानस विकारोंके उपशमनका सर्वाधिक सफल उपाय इनपर सतर्क दृष्टि बनाये रखना है – प्रत्यहं प्रत्यवेक्षेत । ऐसा होनेपर निश्चय ही विश्वबन्धुताका व्यापक प्रसार तथा आत्माभ्युदय सम्पन्न हो सकेगा।

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