दिल्लीमें अनेक प्रसिद्ध लाला हुए; परंतु जो लालाई लाला महेशदासको नसीब हुई, उसका शतांश भी और किसीके हिस्सेमें नहीं आया। दिल्लीके बच्चे-बच्चेकी जबानपर उनका नाम था और दिलपर उनकी छाप । वे प्रतिष्ठित घरानेके थे, धन-वैभवसे सुसम्पन्न थे; दूर दूरतक उनकी पहुँच थी- यह सब ठीक, परंतु उनकी ख्याति इनमेंसे एकपर भी आश्रित न थी। उसका रहस्यतो था उनकी परदुःख – कातरतामें, प्रत्येकके लिये सदैव सर्वत्र सहज सुलभ असीम आत्मीयतामें। जन-जन उनके घरको अपना घर और उनके तन-मन-धनको अपना तन-मन-धन समझता था; उनके साथ एकान्त आत्मीयताका अनुभव करता था ।
ठीक-ठीक कैसे थे लाला महेशदास ? इसका कुछ अनुमान निम्नलिखित उनकी एक जीवन-झाँकीसे हो सकेगाएक दिनकी बात है। सुबहके समय जब लाला महेशदासके वहाँकी मेहतरानी उनके यहाँ मैला कमाने आयी, तब वह एकदम उदास थी। उसका मुँह बिलकुल उतरा हुआ था। आँखें मुर्झायी-मुर्झायी, सूखी सूखी और वीरबहूटी-सी लाल थीं। ऐसा लगता था जैसे घंटों उसे लगातार रोते रहना पड़ा हो और अभी भी बादल छाये हुए हों। लाला महेशदासकी धर्मपत्नी लालाइनने उसे देखा तो तुरंत समझ गयीं कि कोई बात है। सहानुभूतिभरे स्वरमें पूछा- क्यों, क्या बात है ? ऐसी क्यों हो रही है ?’
घिरे बादल सहानुभूतिका स्पर्श पाते ही पुनः बरस पड़े, रोते-रोते मेहतरानी बोली
‘कुछ न पूछो बहूजी! हम तो मर लिये। जिसकी आबरू गयी, उसका रहा क्या!’
‘कुछ बता भी तो बात क्या है ?’ लालाइनके स्वरमें अपनायत और प्रखर हुई।
मेहतरानीने डूबते-उतराते ठंडी साँस भरते कहा
“क्या बताऊँ बहूजी भौत है मौत आज तुम्हारे मेहतरको जात बाहर कर देंगे। पंचायत है तीसरे पहर मैदानमें।’
“जात बाहर कर देंगे! आखिर उसका अपराध ?” “अपराध तो है ही बहूजी! बिना अपराध सजा थोड़े ही मिलती है— पंच परमेसरके दरबारसे!’
“फिर भी ऐसा किया क्या उसने !’
“उनका किया मेरे मुँहपर कैसे आये बहूजी! आप भी औरत हैं मर्द लाख बुरा हो, पर औरतके मुँहपर उसकी बुराई कैसे आये। फिर भी इतना मुझे भरोसा है कि यदि अबकी बार माफी मिल जाय तो वे आगे सदा नेक चलनसे चलेंगे और नहीं तो बहूजी हम दीनके रहेंगे, न दुनियाके बाल-बच्चे वीरान हो जायेंगे तुम्हारा ही भरोसा है। लालाजीसे कह देखो तनिक ।’
इतना कह मेहतरानी फूट-फूटकर रोने लगी। रह रहकर उसकी सुबकियोंका स्वर आता था और लालाइनका कलेजा चीरा जाता था। लालाइनने कुछ क्षण सोचा; फिर बोलीं
‘भरोसा तो रखना चाहिये भगवान्का । हमारी बिसात क्या? पर तू चिन्ता न कर भगवान् सब भली करेंगे।’मेहतरानीके कमा कर चले जानेके पश्चात् लालाइन लालाजीके पास आयीं और उन्हें उसकी सारी व्यथा कह सुनायीं। कुछ कुछ भनक तो बैठकमै बैट लालाजीके कानोंगे पहिले ही पड़ गयी थी: अब सारी बात खुलासा समझ धीरेसे दुःखभरे स्वरमें बोले ‘दिल तो मेरा भी बहुत भरा आ रहा है; पर मामला
बेढब है। पार पड़ती दिखायी नहीं देती।’ “यह सब मैं नहीं जानती। इसे तो किसी भी कीमतपर पार पड़ना ही होगा। मेरे हलकमें तो ग्राम तब ही चलेगा, जब यह मामला निबट जायगा। मरनेसे बदतर हो रही है बेचारी मेहतरानी। जबतक वह जी न जाय, मेरा जी भी आता-जाता ही रहेगा।’
लालाइनने रुआसी-सी आवाजमें, पर साथ ही अपने चिर परदुःख कातर पतिपर गर्व भी अनुभव करते हुए कहा।
लाला महेशदास सुनकर चुप हो रहे उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया। पर उनके माथेपर पड़े बलों और उनकी गम्भीर मुखाकृतिसे स्पष्ट झलक रहा था कि वे गहरे सोचमें पड़ गये हैं।
सोचते-सोचते जाने क्या सूझा कि लालाजी खिल पड़े। शायद वही चीज हाथ लग गयी जिसकी उन्हें तलाश थी सोचके चंगुल से छूट अब वे खिले खिले अपने नित्यप्रतिके कामोंमें लग गये, पर कभी कभी उनके चेहरेपर एक विवश व्यथा-सी झलक मार जाती थी।
तीसरे पहर बग्घी जुतवाकर लालाजी उसी मैदानमें पहुँचे, जहाँ पेड़तले मेहतरोंकी पंचायत हो रही थी। पैरोंमें सलेमशाही जोड़ा, चूड़ीदार पाजामा, बारीक मलमलका कुरता, उसपर तंजेबका अँगरखा और सिरपर झकाझक सफेद पगड़ी पहने अपनी उत्तमोत्तम वेशभूषामें ये वे उस समय गाड़ीसे उतरकर ज्यों ही वे मेहतरोंकी पंचायत पहुँचे, उन्हें देखते ही पंचोंसहित सब मेहतर उठ खड़े हुए। ‘लाला महेशदास आये’ ‘लाला महेशदास आये’ का शोर मच गया, ‘लालाजी ! क्या हुक्म है ? लालाजी क्या आज्ञा है ?’ की आवाजें चारों ओरसे आने लगीं।
लालाजीने सबसे राम-राम किया और फिर सबसे बैठने की प्रार्थना कर आप भी अपने घरके मेहतरकीबगलमें जो बेचारा एक कोनेमें आँख झुकाये, सिर लटकाये बैठा था, जा बैठे। ‘हैं। हैं! लालाजी’ यह आप क्या करते हैं ?’ ‘हमें काँटोंमें क्यों घसीट रहे हैं’ आदि लोगों लाख कहनेपर भी लालाजीने किसोको एक नहीं मानी। यह कहते हुए कि ‘भाइयो! आज तो मेरी जगह यहीं इसके बराबर ही है’ अपने घरके मेहतरकी बगलमें ही बैठे रहे।
आखिर समस्त पंचायतके भावोंको मूर्तरूप देता हुआ सरपंच लालाजीसे बोला
‘कहिये लालाजी! कैसे दया की! क्या हुक्म है ?’ लालाजीने यह सुनकर उत्तरमें अपनी पगड़ी सिरसे उतारकर पंचोंके पैरोंमें रख दी और भरे गलेसे गिड़गिड़ाते हुए कहा
‘भाइयो! आपका अपराधी (घरके मेहतरकी ओर संकेत करते हुए) यह नहीं में है। अब यह पगड़ी आपके चरणोंमें है। चाहे मारिये, चाहे जिलाइये। बखशिये, चाहे सजा दीजिये। बेउज़र हूँ। आपके ताबे हूँ।’
लालाजीकी बातसे पंचायतमें सन्नाटा छा गया। पंच भी बड़े चक्कर में पड़े। लालाजीके मेहतरको जात बाहर करनेका लालाजीके आनेसे पहिले ही लगभग अन्तिम निश्चय हो चुका था। पर अब बात आ पड़ी श्री बीचमें कुछ और, लालाजीकी पगड़ी मौन पड़ी हुई भी एक-एक दिलमें हलचल मचा रही थी। कुछ क्षणोंके लिये पंचोंने परस्पर विचार-विनिमय किया और फिर सरपंच गम्भीर आवाजमें बोला
‘कसूर तो इसका (लालाजीके मेहतरका) ऐसा था कि किसी मदपर भी माफ नहीं किया जा सकता था। पर यह पगड़ी आड़े आयेगी, इसका हमें सपने में भी गुमान नहीं था। लाला महेशदासका हुकुम सिरमाथेपर। किरपा करके अपनी पगड़ी अपने सिरपर रखें, उसे यूँ पड़ी देख हम लरज रहे हैं, लखासे कट रहे हैं. उनके मेहतरको माफ किया जाता है।’
सरपंचके फैसला सुनाते ही लालाजीने पंचोंको धन्यवाद देते हुए अपनी पगड़ी उठाकर पहिन ली।लालाजीके घरके मेहतरकी खुशीका तो कोई ठिकाना ही न था। लालाजीके इस मान-मर्यादा त्यागके बलपर अनायास छुटकारा पा वह कृतज्ञतासे गद्गद होकर लालाजीके चरणोंमें लोट गया। लालाजी सात्त्विक संकोचमें पड़कर बोले “मेरे पैरों नहीं भाई पंचोंके पैरों पड़, जिन्होंने
मुझे माफ किया। मेरी माने तो अब सदा आदमी बने रहियो और पंचोंको कभी कोई शिकायतका अवसर
न दीजियो।’
अपने गुणगानकी बौछारमें अच्छा भाइयो! अब आज्ञा ! राम-राम !’ कह काम बनानेके लिये प्रभुको लाख-लाख धन्यवाद देते हुए, बग्घीमें बैठ, लालाजी घर लौटे। घरपर लालाइन लालाजीकी मेहकी-सी बाट जोह रही थीं। देखते ही बोलीं
‘कहिये, क्या रहा?”
‘सब ठीक हो गया। उसे माफ कर दिया गया। अब जाकर प्रसाद पाओ रानी! तुम्हारी प्रेरणा व्यर्थ थोड़े ही जाती!’
‘पर किस कीमत पर ?’ लालाइन फिर बोलीं।
‘इस कीमतपर।’
सिरसे पगड़ी उतार खूँटीपर टाँगते हुए पगड़ीकी ओर संकेत करते हुए लाला महेशदास बोले। ऐसा करते एक रेखा क्षीण-सी उनके मुखपर आयी और क्षणार्धमें ही विलुप्त हो गयी। ‘ओह मेरे देवता, धन्य हो तुम!””
चीखती हुई-सी लालाइन पागल बनी लालाजीके चरणोंमें लिपट गयी। आन्तरिक उल्लाससे ओत-प्रोत | होकर लालाइनको लालाजीने बलपूर्वक उठाया और गम्भीर स्नेह – स्निग्ध एवं कृतज्ञतामिश्रित स्वरमें धीरे धीरे बोले
‘धन्य मैं नहीं, तुम हो, देवि जिसकी सत्-प्रेरणासे
मैं….. एक तुच्छ बनिया मान मर्यादाका मोह त्याग
कर्तव्य पालन कर सका।” तो ऐसे थे लाला महेशदास !
दिल्लीमें अनेक प्रसिद्ध लाला हुए; परंतु जो लालाई लाला महेशदासको नसीब हुई, उसका शतांश भी और किसीके हिस्सेमें नहीं आया। दिल्लीके बच्चे-बच्चेकी जबानपर उनका नाम था और दिलपर उनकी छाप । वे प्रतिष्ठित घरानेके थे, धन-वैभवसे सुसम्पन्न थे; दूर दूरतक उनकी पहुँच थी- यह सब ठीक, परंतु उनकी ख्याति इनमेंसे एकपर भी आश्रित न थी। उसका रहस्यतो था उनकी परदुःख – कातरतामें, प्रत्येकके लिये सदैव सर्वत्र सहज सुलभ असीम आत्मीयतामें। जन-जन उनके घरको अपना घर और उनके तन-मन-धनको अपना तन-मन-धन समझता था; उनके साथ एकान्त आत्मीयताका अनुभव करता था ।
ठीक-ठीक कैसे थे लाला महेशदास ? इसका कुछ अनुमान निम्नलिखित उनकी एक जीवन-झाँकीसे हो सकेगाएक दिनकी बात है। सुबहके समय जब लाला महेशदासके वहाँकी मेहतरानी उनके यहाँ मैला कमाने आयी, तब वह एकदम उदास थी। उसका मुँह बिलकुल उतरा हुआ था। आँखें मुर्झायी-मुर्झायी, सूखी सूखी और वीरबहूटी-सी लाल थीं। ऐसा लगता था जैसे घंटों उसे लगातार रोते रहना पड़ा हो और अभी भी बादल छाये हुए हों। लाला महेशदासकी धर्मपत्नी लालाइनने उसे देखा तो तुरंत समझ गयीं कि कोई बात है। सहानुभूतिभरे स्वरमें पूछा- क्यों, क्या बात है ? ऐसी क्यों हो रही है ?’
घिरे बादल सहानुभूतिका स्पर्श पाते ही पुनः बरस पड़े, रोते-रोते मेहतरानी बोली
‘कुछ न पूछो बहूजी! हम तो मर लिये। जिसकी आबरू गयी, उसका रहा क्या!’
‘कुछ बता भी तो बात क्या है ?’ लालाइनके स्वरमें अपनायत और प्रखर हुई।
मेहतरानीने डूबते-उतराते ठंडी साँस भरते कहा
“क्या बताऊँ बहूजी भौत है मौत आज तुम्हारे मेहतरको जात बाहर कर देंगे। पंचायत है तीसरे पहर मैदानमें।’
“जात बाहर कर देंगे! आखिर उसका अपराध ?” “अपराध तो है ही बहूजी! बिना अपराध सजा थोड़े ही मिलती है— पंच परमेसरके दरबारसे!’
“फिर भी ऐसा किया क्या उसने !’
“उनका किया मेरे मुँहपर कैसे आये बहूजी! आप भी औरत हैं मर्द लाख बुरा हो, पर औरतके मुँहपर उसकी बुराई कैसे आये। फिर भी इतना मुझे भरोसा है कि यदि अबकी बार माफी मिल जाय तो वे आगे सदा नेक चलनसे चलेंगे और नहीं तो बहूजी हम दीनके रहेंगे, न दुनियाके बाल-बच्चे वीरान हो जायेंगे तुम्हारा ही भरोसा है। लालाजीसे कह देखो तनिक ।’
इतना कह मेहतरानी फूट-फूटकर रोने लगी। रह रहकर उसकी सुबकियोंका स्वर आता था और लालाइनका कलेजा चीरा जाता था। लालाइनने कुछ क्षण सोचा; फिर बोलीं
‘भरोसा तो रखना चाहिये भगवान्का । हमारी बिसात क्या? पर तू चिन्ता न कर भगवान् सब भली करेंगे।’मेहतरानीके कमा कर चले जानेके पश्चात् लालाइन लालाजीके पास आयीं और उन्हें उसकी सारी व्यथा कह सुनायीं। कुछ कुछ भनक तो बैठकमै बैट लालाजीके कानोंगे पहिले ही पड़ गयी थी: अब सारी बात खुलासा समझ धीरेसे दुःखभरे स्वरमें बोले ‘दिल तो मेरा भी बहुत भरा आ रहा है; पर मामला
बेढब है। पार पड़ती दिखायी नहीं देती।’ “यह सब मैं नहीं जानती। इसे तो किसी भी कीमतपर पार पड़ना ही होगा। मेरे हलकमें तो ग्राम तब ही चलेगा, जब यह मामला निबट जायगा। मरनेसे बदतर हो रही है बेचारी मेहतरानी। जबतक वह जी न जाय, मेरा जी भी आता-जाता ही रहेगा।’
लालाइनने रुआसी-सी आवाजमें, पर साथ ही अपने चिर परदुःख कातर पतिपर गर्व भी अनुभव करते हुए कहा।
लाला महेशदास सुनकर चुप हो रहे उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया। पर उनके माथेपर पड़े बलों और उनकी गम्भीर मुखाकृतिसे स्पष्ट झलक रहा था कि वे गहरे सोचमें पड़ गये हैं।
सोचते-सोचते जाने क्या सूझा कि लालाजी खिल पड़े। शायद वही चीज हाथ लग गयी जिसकी उन्हें तलाश थी सोचके चंगुल से छूट अब वे खिले खिले अपने नित्यप्रतिके कामोंमें लग गये, पर कभी कभी उनके चेहरेपर एक विवश व्यथा-सी झलक मार जाती थी।
तीसरे पहर बग्घी जुतवाकर लालाजी उसी मैदानमें पहुँचे, जहाँ पेड़तले मेहतरोंकी पंचायत हो रही थी। पैरोंमें सलेमशाही जोड़ा, चूड़ीदार पाजामा, बारीक मलमलका कुरता, उसपर तंजेबका अँगरखा और सिरपर झकाझक सफेद पगड़ी पहने अपनी उत्तमोत्तम वेशभूषामें ये वे उस समय गाड़ीसे उतरकर ज्यों ही वे मेहतरोंकी पंचायत पहुँचे, उन्हें देखते ही पंचोंसहित सब मेहतर उठ खड़े हुए। ‘लाला महेशदास आये’ ‘लाला महेशदास आये’ का शोर मच गया, ‘लालाजी ! क्या हुक्म है ? लालाजी क्या आज्ञा है ?’ की आवाजें चारों ओरसे आने लगीं।
लालाजीने सबसे राम-राम किया और फिर सबसे बैठने की प्रार्थना कर आप भी अपने घरके मेहतरकीबगलमें जो बेचारा एक कोनेमें आँख झुकाये, सिर लटकाये बैठा था, जा बैठे। ‘हैं। हैं! लालाजी’ यह आप क्या करते हैं ?’ ‘हमें काँटोंमें क्यों घसीट रहे हैं’ आदि लोगों लाख कहनेपर भी लालाजीने किसोको एक नहीं मानी। यह कहते हुए कि ‘भाइयो! आज तो मेरी जगह यहीं इसके बराबर ही है’ अपने घरके मेहतरकी बगलमें ही बैठे रहे।
आखिर समस्त पंचायतके भावोंको मूर्तरूप देता हुआ सरपंच लालाजीसे बोला
‘कहिये लालाजी! कैसे दया की! क्या हुक्म है ?’ लालाजीने यह सुनकर उत्तरमें अपनी पगड़ी सिरसे उतारकर पंचोंके पैरोंमें रख दी और भरे गलेसे गिड़गिड़ाते हुए कहा
‘भाइयो! आपका अपराधी (घरके मेहतरकी ओर संकेत करते हुए) यह नहीं में है। अब यह पगड़ी आपके चरणोंमें है। चाहे मारिये, चाहे जिलाइये। बखशिये, चाहे सजा दीजिये। बेउज़र हूँ। आपके ताबे हूँ।’
लालाजीकी बातसे पंचायतमें सन्नाटा छा गया। पंच भी बड़े चक्कर में पड़े। लालाजीके मेहतरको जात बाहर करनेका लालाजीके आनेसे पहिले ही लगभग अन्तिम निश्चय हो चुका था। पर अब बात आ पड़ी श्री बीचमें कुछ और, लालाजीकी पगड़ी मौन पड़ी हुई भी एक-एक दिलमें हलचल मचा रही थी। कुछ क्षणोंके लिये पंचोंने परस्पर विचार-विनिमय किया और फिर सरपंच गम्भीर आवाजमें बोला
‘कसूर तो इसका (लालाजीके मेहतरका) ऐसा था कि किसी मदपर भी माफ नहीं किया जा सकता था। पर यह पगड़ी आड़े आयेगी, इसका हमें सपने में भी गुमान नहीं था। लाला महेशदासका हुकुम सिरमाथेपर। किरपा करके अपनी पगड़ी अपने सिरपर रखें, उसे यूँ पड़ी देख हम लरज रहे हैं, लखासे कट रहे हैं. उनके मेहतरको माफ किया जाता है।’
सरपंचके फैसला सुनाते ही लालाजीने पंचोंको धन्यवाद देते हुए अपनी पगड़ी उठाकर पहिन ली।लालाजीके घरके मेहतरकी खुशीका तो कोई ठिकाना ही न था। लालाजीके इस मान-मर्यादा त्यागके बलपर अनायास छुटकारा पा वह कृतज्ञतासे गद्गद होकर लालाजीके चरणोंमें लोट गया। लालाजी सात्त्विक संकोचमें पड़कर बोले “मेरे पैरों नहीं भाई पंचोंके पैरों पड़, जिन्होंने
मुझे माफ किया। मेरी माने तो अब सदा आदमी बने रहियो और पंचोंको कभी कोई शिकायतका अवसर
न दीजियो।’
अपने गुणगानकी बौछारमें अच्छा भाइयो! अब आज्ञा ! राम-राम !’ कह काम बनानेके लिये प्रभुको लाख-लाख धन्यवाद देते हुए, बग्घीमें बैठ, लालाजी घर लौटे। घरपर लालाइन लालाजीकी मेहकी-सी बाट जोह रही थीं। देखते ही बोलीं
‘कहिये, क्या रहा?”
‘सब ठीक हो गया। उसे माफ कर दिया गया। अब जाकर प्रसाद पाओ रानी! तुम्हारी प्रेरणा व्यर्थ थोड़े ही जाती!’
‘पर किस कीमत पर ?’ लालाइन फिर बोलीं।
‘इस कीमतपर।’
सिरसे पगड़ी उतार खूँटीपर टाँगते हुए पगड़ीकी ओर संकेत करते हुए लाला महेशदास बोले। ऐसा करते एक रेखा क्षीण-सी उनके मुखपर आयी और क्षणार्धमें ही विलुप्त हो गयी। ‘ओह मेरे देवता, धन्य हो तुम!””
चीखती हुई-सी लालाइन पागल बनी लालाजीके चरणोंमें लिपट गयी। आन्तरिक उल्लाससे ओत-प्रोत | होकर लालाइनको लालाजीने बलपूर्वक उठाया और गम्भीर स्नेह – स्निग्ध एवं कृतज्ञतामिश्रित स्वरमें धीरे धीरे बोले
‘धन्य मैं नहीं, तुम हो, देवि जिसकी सत्-प्रेरणासे
मैं….. एक तुच्छ बनिया मान मर्यादाका मोह त्याग
कर्तव्य पालन कर सका।” तो ऐसे थे लाला महेशदास !