एक राजा थे वो हर समय राज्य की चिन्ताओ से घिरे रहते थे चिन्ताए कुछ ऐसी बढ़ गयी की घबडाहट से उन्होंने अपना सारा राज-पाट छोडकर कहीं वन में जाने का निश्चय कर लिया।
उन्ही दिनों एक ब्रह्मज्ञानी महात्मा उनके दरबार में आ पहुंचे राजा जी ने उन महात्मा को अपनी सारी व्यथा गाथा कह सूनाई महात्मा जी ने राजा की समस्या को समझते हूए फिर उनसे कहा कि हे राजन यदि तुम राज्य की चिन्ताओ से मुक्त होना चाहते हो तो अपना सारा राज्य मुझे सौंप दो।
फिर क्या राजा तो पहले से ही राज-पाट छोडने को तैयार बैठे थे वो एकदम मान गये और अपना मुकुट उतारकर महात्मा के चरणों में रख दिये राज पाट स्वीकार करने के बाद महात्मा जी ने राजा से पुछा अब तुम राजा तो रहे नही अब आगे क्या इरादा है परिवार का पालन पोषण कैसे करोगे?
राजा ने उत्तर दिया ये जो आभूषण मेरे पास है इन्हें बेचकर कोई व्यापार कर लूंगा। महात्मा ने कहा लेकिन ये आभूषण भी अब राज्य का ही है इन्हें तुम कैसे ले जा सकते हो अब यहां का राजा मै हू इसलिए ये सब आभूषण भी मेरा ही है।
महात्मा जी की बात सुन राजा जी सोचने लगे और उन्होंने अपने आभूषण उतारकर महात्मा जी को देते हूए कहा तो कही नौकरी कर लूंगा नौकरी करने से जो पगार मिलेगा उसी से परिवार का पालन पोषण हो जायेगा पैसे भले कम होंगे लेकिन हर समय की चिन्ता से तो छुटकारा मील जायेगा।
महात्मा जी मुस्कराकर बोले यदि नौकरी ही करनी है तो मै ही तुम्हें नौकरी दे देता हू राजा जी ने उत्साह से कहा बहुत बहुत कृपा महाराज बताइए मुझे क्या करना है मेरी ड्यूटी क्या होगी।
महात्मा जी ने राजा का हाथ पकडकर उन्हें राज सिंहासन पर बैठाते हूए कहा की आज से तुम इस राज्य का सारा राज-कार्य संभालोगे याद रहे तुम राज सिंहासन पर बैठोगे राजा की तरह सारे कार्य करोगे लेकिन राज्य मेरा ही होगा वास्तविक राजा मै ही रहूंगा तुम आज से मेरे सेवक के रूप में ही सारा राज-कार्य सम्भालोगे इसके बदले मै तुम्हें जीवन यापन के लिए पगार दूंगा तुम्हारा अधिकार केवल तुम्हारे पगार पर है शेष सारी राज्य संपदा मेरी है यह मत भूलना और महात्मा जी ऐसा कहकर कहीं और चल दिये।
राजा जी ने ऐसा ही किया कुछ दिनों के बाद वह महात्मा फिर उस राज्य में पहुंचे दरबार में उस राजा से मुलाकात हूई राजा जी ने उनका अपने मालिक की तरह स्वागत किया महात्मा जी के पूछने पर राजा ने बताया राज्य की चिन्ता तो राजा को होती है और राजा मै नही राजा आप है मै तो मात्र राजा का दास सेवक हू जो जो ड्यूटीया मुझे दी गई है मै उन्हें फल की चिन्ता से रहित हो निभाता हू अब मुझे कैसी चिन्ता हो।
अनासक्त भाव से कर्म करने में ही आनन्द छीपा है लेकिन ‘मै’ और ‘मेरा’ का भाव रहते अनासक्ति सम्भव नहीं यदि हम ‘मै’ और ‘मेरा’ की भावना से उपर उठकर अर्पण भाव से कर्म कर पाए यदि आसक्ति का भाव न रहे तो चिन्ताए स्वयं समाप्त हो जाती है
🙏हो स्वामी तन मन धन सब कुछ तेरा क्या लागे मेरा🐚🙏
जय श्री कृष्ण