प्रबल वैरीपर विश्वास करनेका दुष्परिणाम
कुसुमपुर (पटना) में नन्द नामका राजा था। उसके मन्त्रीका नाम शकटार था। किसी कारणवश मन्त्री और राजामें विरोध हो गया। फलस्वरूप राजाने मन्त्री शकटारकी सभी सम्पत्तियोंको जब्त करके समस्त परिवारजनोंके साथ उसे कारागारमें बन्द करवा दिया। राजाकी ओरसे शकटारसहित समस्त परिवारको आहारके रूपमें आधा पाव सत्तू मिलता था, जो कि एक व्यक्तिकी क्षुधाको शान्त करनेयोग्य भी नहीं था। परिवारके सभी सदस्योंने विचार किया कि राजासे बदला लेनेके लिये शकटारकी प्राणरक्षा आवश्यक है, अतः इस आहार (सत्तू) को लेकर शकटार जीवित रहें एवं राजा नन्दका प्रतिकार करें। कालान्तरमें शकटारके परिवारके सभी सदस्य अन्न-जलके अभावमें काल-कवलित हो गये, किंतु शकटार बदला लेने की प्रतीक्षामें जीवित बना रहा। मन्त्री तो वह राजाका था ही। अतः कभी-कभी राजाकी अनेक समस्याओंको वह अपने बुद्धिचातुर्यसे परोक्षरूपमें सुलझा दिया करता था। राजाको जब यह ज्ञात हुआ कि शकटार अभी जीवित है एवं उसने ही इन समस्याओंका समाधान किया है तो प्रसन्न होकर राजा नन्दने शकटारको बन्धनमुक्त करके अपने प्रधान अमात्य राक्षसके सहायकके रूपमें नियुक्त कर दिया।
शकटार दुर्लभ पद पाकर प्रसन्न हुआ, साथ ही राजाकी दुर्नीतिपर इस प्रकार विचार भी करने लगा
उत्कटं वैरमुत्पाद्य पुनः सौहृदमिच्छति ।
पन्थानमवेक्षते ॥ यमपत्तनयात्रायाः स
(पु0 प0 19 । 22)
अर्थात् पहले प्रबल वैर बाँधकर फिर उससे जो मित्रताकी इच्छा करता है, वह मानो यमपुरीके मार्गकी ओर देखता है।
शकटारने निश्चय किया कि यह दुष्टात्मा राजा विश्वासके योग्य नहीं है; क्योंकि
दृष्टा वैरक्रिया यस्य परापर्यन्तपातिनी ।
तस्मिन् विश्वासमायान्तं मृत्युर्जिघ्रति मस्तके ॥
(पु0 प0 19।3)
जिसका पहले शत्रुतापूर्ण व्यवहार देखा गया हो, उसपर विश्वास करना मानी मृत्युका मस्तक सूचना है।
पूर्वकी शत्रुता एवं वर्तमानकी प्रसन्नतासे शकटार संदेहमें पड़ गया। उसने सोचा- मेरे परिवार के सभी सदस्योंने राजा नन्दसे बदला लेनेके निमित्त अपना अपना आहार त्यागकर मेरे प्राण बचाये। अब यही उचित अवसर है, क्यों न उस वैरका बदला ले लूँ। अवसर पाकर बदला नहीं लेनेसे समाजमें अपयश तो होगा ही साथ ही मैं कायर भी कहलाऊँगा। कहा भी गया है
पापात् त्रस्यति यः स एव पुरुषः स्यादुत्तमो भूतले
पापात्मा च विभेति योऽपयशसः स ज्ञायते मध्यमः ।
त्रासो यस्य न पातकादपि न वा लज्जापवादादपि
प्रज्ञावद्भिरुदाहृतोऽयमधमः सर्वत्र निन्दास्पदम् ॥
अर्थात् इस पृथ्वीपर जो हमेशा पापसे डरता रहता है। (फलस्वरूप उत्तम कार्योंको करता है), वह उत्तम कोटिका पुरुष है। जो मात्र अपयशके डरसे पाप नहीं करता, वह पापात्मा मध्यम कोटिका पुरुष है। इसके विपरीत जो न तो पापसे डरता है, न लज्जासे डरता है और न लोकापवादसे डरता है, उसे विद्वानोंने अधम कोटिका पुरुष कहा है, वह सर्वत्र निन्दाका पात्र बनता है।
इस प्रकार नीतिपर विचार करता हुआ शकटार नगरके बाहर भ्रमण करने चला गया। उसने भ्रमण करते हुए देखा कि एक ब्राह्मण युवक कुशाको उखाड़कर उसकी जड़में तक्र डाल रहा है। यह देखकर मन्त्री शकटारने पूछा- ब्राह्मण। तुम कौन हो एवं यहाँ क्या कर रहे हो? उसने उत्तर दिया- मैं चाणक्यशर्मा नामका ब्राह्मण हूँ। अंगों सहित वेदोंका अध्ययनकर विवाहार्थ इधरसे जाते हुए मेरे पाँवमें यह कुशांकुर चुभ गया। इस घावके फलस्वरूप मेरा विवाह बाधित हुआ। मैंने क्रोधित होकर प्रतिज्ञा की है कि इस स्थलसे कुशको ही निर्मूल कर दूंगा। मैंने आयुर्वेदशास्त्रमें ऐसा पढ़ा है कि कुशकी जड़में तक्र डालनेसे वह विनष्ट हो जाता है, इसपर शकटारने पूछा—’यदि तुम वृक्षायुर्वेद नहीं जानते तो इसके विनाशका क्या उपाय करते ?’
चाणक्यने उत्तर दिया कि अभिचार-कर्मके द्वारा कुशके विनाशकी कामनासे हवन करता।
शकटार उस ब्राह्मण युवकके प्रतिशोधकी भावना एवं उपायोंको जानकर चकित हो गया। वह सोचने लगा कि यदि यह ब्राह्मण किसी उपायसे मेरे शत्रु अर्थात् राजा नन्दका भी शत्रु हो जाय तो मुझे अपने वैरका बदला लेनेमें कोई कठिनाई नहीं होगी। यह विचारकर शकटार उस ब्राह्मणके अनुकूल बातें करता हुआ उसे अपने घर ले आया और राजपुरोहितसे मिलकर बड़ी ही युक्तिसे उसने राजा नन्दके पिताके क्षयाह श्राद्धमें ब्राह्मण भोजनके लिये चाणक्यको निमन्त्रित करवाया। शकटारने सोचा कि अविवाहित, कपिशवर्ण, काले-काले नख तथा दाँतवाले एवं मेरेद्वारा निमन्त्रित इस ब्राह्मणको
देखकर मेरा विरोधी मन्त्री राक्षस इसको श्राद्ध भोजनके अयोग्य समझकर अपमानित करेगा और हुआ भी वही। राजा नन्द श्राद्धके आसनपर पहुंचा, तो वहाँ आसनपर वैसे ब्राह्मणको देखकर मन्त्री राक्षस बोला- यह ब्राह्मण श्राद्ध कर्मके योग्य नहीं है, तदनन्तर राक्षसकी मन्त्रणा राजाने चाणक्यको अपमानितकर बाहर निकाल दिया। अपमानित ब्राह्मण चाणक्यने क्रुद्ध होकर प्रतिज्ञा की कि जबतक राजा नन्दका वध (नाश) नहीं करवा लूंग तबतक अपनी इस मुक्त शिखाको नहीं बाँधूंगा (पु0प0 2013) ।
चाणक्यकी इस प्रतिज्ञाको सुनकर मन्त्री शकटार कृतकृत्य हो गया और कालान्तरमें राजा नन्दसे अपने परिवारके विनाशका बदला लेनेमें सफल हुआ।
[महाकवि विद्यापत्तिविरचित ‘पुरुष-परीक्षा’ ]
प्रबल वैरीपर विश्वास करनेका दुष्परिणाम
कुसुमपुर (पटना) में नन्द नामका राजा था। उसके मन्त्रीका नाम शकटार था। किसी कारणवश मन्त्री और राजामें विरोध हो गया। फलस्वरूप राजाने मन्त्री शकटारकी सभी सम्पत्तियोंको जब्त करके समस्त परिवारजनोंके साथ उसे कारागारमें बन्द करवा दिया। राजाकी ओरसे शकटारसहित समस्त परिवारको आहारके रूपमें आधा पाव सत्तू मिलता था, जो कि एक व्यक्तिकी क्षुधाको शान्त करनेयोग्य भी नहीं था। परिवारके सभी सदस्योंने विचार किया कि राजासे बदला लेनेके लिये शकटारकी प्राणरक्षा आवश्यक है, अतः इस आहार (सत्तू) को लेकर शकटार जीवित रहें एवं राजा नन्दका प्रतिकार करें। कालान्तरमें शकटारके परिवारके सभी सदस्य अन्न-जलके अभावमें काल-कवलित हो गये, किंतु शकटार बदला लेने की प्रतीक्षामें जीवित बना रहा। मन्त्री तो वह राजाका था ही। अतः कभी-कभी राजाकी अनेक समस्याओंको वह अपने बुद्धिचातुर्यसे परोक्षरूपमें सुलझा दिया करता था। राजाको जब यह ज्ञात हुआ कि शकटार अभी जीवित है एवं उसने ही इन समस्याओंका समाधान किया है तो प्रसन्न होकर राजा नन्दने शकटारको बन्धनमुक्त करके अपने प्रधान अमात्य राक्षसके सहायकके रूपमें नियुक्त कर दिया।
शकटार दुर्लभ पद पाकर प्रसन्न हुआ, साथ ही राजाकी दुर्नीतिपर इस प्रकार विचार भी करने लगा
उत्कटं वैरमुत्पाद्य पुनः सौहृदमिच्छति ।
पन्थानमवेक्षते ॥ यमपत्तनयात्रायाः स
(पु0 प0 19 । 22)
अर्थात् पहले प्रबल वैर बाँधकर फिर उससे जो मित्रताकी इच्छा करता है, वह मानो यमपुरीके मार्गकी ओर देखता है।
शकटारने निश्चय किया कि यह दुष्टात्मा राजा विश्वासके योग्य नहीं है; क्योंकि
दृष्टा वैरक्रिया यस्य परापर्यन्तपातिनी ।
तस्मिन् विश्वासमायान्तं मृत्युर्जिघ्रति मस्तके ॥
(पु0 प0 19।3)
जिसका पहले शत्रुतापूर्ण व्यवहार देखा गया हो, उसपर विश्वास करना मानी मृत्युका मस्तक सूचना है।
पूर्वकी शत्रुता एवं वर्तमानकी प्रसन्नतासे शकटार संदेहमें पड़ गया। उसने सोचा- मेरे परिवार के सभी सदस्योंने राजा नन्दसे बदला लेनेके निमित्त अपना अपना आहार त्यागकर मेरे प्राण बचाये। अब यही उचित अवसर है, क्यों न उस वैरका बदला ले लूँ। अवसर पाकर बदला नहीं लेनेसे समाजमें अपयश तो होगा ही साथ ही मैं कायर भी कहलाऊँगा। कहा भी गया है
पापात् त्रस्यति यः स एव पुरुषः स्यादुत्तमो भूतले
पापात्मा च विभेति योऽपयशसः स ज्ञायते मध्यमः ।
त्रासो यस्य न पातकादपि न वा लज्जापवादादपि
प्रज्ञावद्भिरुदाहृतोऽयमधमः सर्वत्र निन्दास्पदम् ॥
अर्थात् इस पृथ्वीपर जो हमेशा पापसे डरता रहता है। (फलस्वरूप उत्तम कार्योंको करता है), वह उत्तम कोटिका पुरुष है। जो मात्र अपयशके डरसे पाप नहीं करता, वह पापात्मा मध्यम कोटिका पुरुष है। इसके विपरीत जो न तो पापसे डरता है, न लज्जासे डरता है और न लोकापवादसे डरता है, उसे विद्वानोंने अधम कोटिका पुरुष कहा है, वह सर्वत्र निन्दाका पात्र बनता है।
इस प्रकार नीतिपर विचार करता हुआ शकटार नगरके बाहर भ्रमण करने चला गया। उसने भ्रमण करते हुए देखा कि एक ब्राह्मण युवक कुशाको उखाड़कर उसकी जड़में तक्र डाल रहा है। यह देखकर मन्त्री शकटारने पूछा- ब्राह्मण। तुम कौन हो एवं यहाँ क्या कर रहे हो? उसने उत्तर दिया- मैं चाणक्यशर्मा नामका ब्राह्मण हूँ। अंगों सहित वेदोंका अध्ययनकर विवाहार्थ इधरसे जाते हुए मेरे पाँवमें यह कुशांकुर चुभ गया। इस घावके फलस्वरूप मेरा विवाह बाधित हुआ। मैंने क्रोधित होकर प्रतिज्ञा की है कि इस स्थलसे कुशको ही निर्मूल कर दूंगा। मैंने आयुर्वेदशास्त्रमें ऐसा पढ़ा है कि कुशकी जड़में तक्र डालनेसे वह विनष्ट हो जाता है, इसपर शकटारने पूछा—’यदि तुम वृक्षायुर्वेद नहीं जानते तो इसके विनाशका क्या उपाय करते ?’
चाणक्यने उत्तर दिया कि अभिचार-कर्मके द्वारा कुशके विनाशकी कामनासे हवन करता।
शकटार उस ब्राह्मण युवकके प्रतिशोधकी भावना एवं उपायोंको जानकर चकित हो गया। वह सोचने लगा कि यदि यह ब्राह्मण किसी उपायसे मेरे शत्रु अर्थात् राजा नन्दका भी शत्रु हो जाय तो मुझे अपने वैरका बदला लेनेमें कोई कठिनाई नहीं होगी। यह विचारकर शकटार उस ब्राह्मणके अनुकूल बातें करता हुआ उसे अपने घर ले आया और राजपुरोहितसे मिलकर बड़ी ही युक्तिसे उसने राजा नन्दके पिताके क्षयाह श्राद्धमें ब्राह्मण भोजनके लिये चाणक्यको निमन्त्रित करवाया। शकटारने सोचा कि अविवाहित, कपिशवर्ण, काले-काले नख तथा दाँतवाले एवं मेरेद्वारा निमन्त्रित इस ब्राह्मणको
देखकर मेरा विरोधी मन्त्री राक्षस इसको श्राद्ध भोजनके अयोग्य समझकर अपमानित करेगा और हुआ भी वही। राजा नन्द श्राद्धके आसनपर पहुंचा, तो वहाँ आसनपर वैसे ब्राह्मणको देखकर मन्त्री राक्षस बोला- यह ब्राह्मण श्राद्ध कर्मके योग्य नहीं है, तदनन्तर राक्षसकी मन्त्रणा राजाने चाणक्यको अपमानितकर बाहर निकाल दिया। अपमानित ब्राह्मण चाणक्यने क्रुद्ध होकर प्रतिज्ञा की कि जबतक राजा नन्दका वध (नाश) नहीं करवा लूंग तबतक अपनी इस मुक्त शिखाको नहीं बाँधूंगा (पु0प0 2013) ।
चाणक्यकी इस प्रतिज्ञाको सुनकर मन्त्री शकटार कृतकृत्य हो गया और कालान्तरमें राजा नन्दसे अपने परिवारके विनाशका बदला लेनेमें सफल हुआ।
[महाकवि विद्यापत्तिविरचित ‘पुरुष-परीक्षा’ ]