प्रेतयोनिकी प्राप्तिके कारण
पूर्वकालमें विदूरथ नामसे प्रसिद्ध एक हैहयवंशी राजा हो गये हैं, जो बड़े-बड़े यज्ञ करनेवाले, दानपति तथा प्रत्येक कार्यमें दक्ष थे। एक समय राजा विदूरथ अपनी सेनाके साथ हिंसक पशुओंसे भरे हुए वनमें शिकार खेलनेके लिये गये। वहाँ उन्होंने सर्पोंके समान विषैले बाणोंसे कितने ही चीता, शम्बर, व्याघ्र और सिंह आदि पशुओंको मारा। उन वन-जन्तुओंमेंसे एक पशु उनके बाणसे घायल होकर भी धरतीपर नहीं गिरा और बाण लिये जोरसे भागा । राजाने भी कौतूहलवश उसके पीछे अपना घोड़ा दौड़ाया। इस प्रकार वे अपनी सेनाको छोड़कर दूसरे घोर वनमें जा पहुँचे, जो मनमें भय उत्पन्न करनेवाला था। उसमें प्रायः काँटेदार वृक्ष भरे हुए थे। वहाँकी सारी भूमि रूखी, पथरीली तथा जलसे हीन थी। उस वनमें जाकर राजा विदूरथ भूख और प्याससे व्याकुल हो गये और उस दुर्गम वनका अन्त ढूँढ़ते हुए अपने घोड़ेको कोड़ेसे पीट-पीटकर हाँकने लगे। घोड़ा हवासे बातें करने लगा और उसने राजाको सब जन्तुओंसे रहित दूरस्थ दुर्गम मार्गमें पहुँचा दिया। अन्तमें वह अश्व भी भूमिपर गिर पड़ा।
तदनन्तर भूख-प्याससे व्याकुल राजा उस वनके भीतर पैदल ही चलने लगे और एक जगह लड़खड़ाकर गिर पड़े। इतनेमें ही उन्होंने आकाशमें अत्यन्त भयंकर तीन प्रेत देखे। उन्हें देखकर वे भयसे थर्रा उठे और जीवनसे निराश होकर बड़े क्लेशसे बोले- ‘तुमलोग कौन हो? मैं भूख-प्याससे पीड़ित राजा विदूरथ हूँ। शिकारके पीछे जीव-जन्तुओंसे रहित इस वनमें आ पहुँचा हूँ।’
तब उन तीनों प्रेतोंमें जो सबसे ज्येष्ठ था, उसने विनयपूर्वक हाथ जोड़कर कहा-‘महाराज! हम तीनों प्रेत हैं और इसी वनमें रहते हैं। अपने कर्मजनित दोषसे हमलोग महान् दुःख उठा रहे हैं। मेरा नाम मांसाद है, यह दूसरा मेरा साथी विदैवत है और तीसरा कृतघ्न है, जो हम सबमें बढ़कर पापात्मा है। हमें जिस-जिस कर्मके द्वारा यहाँ एक ही साथ प्रेतयोनिकी प्राप्ति हुई है. वह सुनो। राजन् ! हम तीनों वैदेशपुरमें देवरात नामक महात्मा ब्राह्मणके घरमें उत्पन्न हुए थे। हमने नास्तिक होकर धर्म-मर्यादाका उल्लंघन किया और हमलोग सदा परायी स्त्रियोंके मोहमें फँसे रहे। मैंने जिह्वाकी लोलुपताके कारण सदा मांसका ही भोजन किया, अतः मुझे अपने कर्मके अनुसार ही ‘मांसाद’ नाम प्राप्त हुआ। महाराज ! यह दूसरा जो तुम्हारे सामने खड़ा है, इसने देवताओंका पूजन किये बिना ही सदा अन्न ग्रहण किया है, उसी कर्मके फलसे इसे प्रेत-योनिमें आना पड़ा है और देवताओंके विपरीत चलनेके कारण इसका नाम ‘विदैवत’ हुआ है। और जिस पापीने सदा दूसरोंके साथ कृतघ्नता विश्वासघात किया है, वही अपने कर्मके अनुसार ‘कृतघ्न’ नामवाला हुआ है।’
राजाने पूछा-‘ इस मनुष्यलोकमें सब प्राणी आहारसे ही जीवन धारण करते हैं। यहाँ तुमलोगोंको कौन-सा आहार प्राप्त होता है, सो मुझे बताओ ?’
मांसाद बोला—‘जिस घरमें भोजनके समय स्त्रियोंमें युद्ध होता है, वहाँ प्रेत भोजन करते हैं। राजन्! जहाँ बलिवैश्वदेव किये बिना और भोजनमेंसे पहले अग्राशन गोग्रास आदि दिये बिना भोजन किया जाता है, उस घरमें भी प्रेत भोजन करते हैं। जिस घरमें कभी झाड़ नहीं लगती, जो कभी गोबर आदिसे लीपा नहीं जाता है तथा जहाँ मांगलिक कार्य और अतिथि आदिका सत्कार नहीं होता, उसमें भी प्रेत भोजन करते हैं। जिस घरमें फूटे बर्तनका त्याग नहीं किया जाता तथा वेदमन्त्रोंकी ध्वनि नहीं होती, वहाँ प्रेत आहार करते हैं। जो श्राद्ध दक्षिणासे रहित और शास्त्रोक्त विधिसे हीन होता है तथा जिसपर रजस्वला स्त्रीकी दृष्टि पड़ जाती है, वह श्राद्ध एवं भोजन हमारे अधिकारमें आ जाता है। जो अन्न केश, मूत्र, हड्डी और कफ आदिसे संयुक्त हो गया है और जिसे हीनजातिके मनुष्योंने छू दिया है, उसपर भी हमारा अधिकार हो जाता है। जो मनुष्य असहिष्णु, चुगली खानेवाला, दूसरोंका कष्ट देखकर प्रसन्न होनेवाला, कृतघ्न तथा गुरुकी शय्यापर सोनेवाला है और जो वेदों एवं ब्राह्मणोंकी निन्दा करता है, ब्राह्मणकुलमें पैदा होकर मांस खाता है और सदा प्राणियोंकी हिंसा करता है, वह प्रेत होता है। जो परायी स्त्रीमें आसक्त, दूसरेका धन हड़प लेनेवाला तथा परायी निन्दासे सन्तुष्ट होनेवाला है और जो धनकी इच्छासे नीच एवं वृद्ध पुरुषके साथ अपनी कन्याका व्याह कर देता है, वह प्रेत होता है। जो मनुष्य उत्तम कुलमें उत्पन्न, विनयशील और दोषरहित धर्मपत्नीका त्याग करता है, जो देवता, स्त्री और गुरुका धन लेकर उसे लौटा नहीं देता है तथा जो ब्राह्मणोंके लिये धनका दान होता देख उसमें विघ्न डालता है, वह प्रेत होता है। [ स्कन्दपुराण ]
प्रेतयोनिकी प्राप्तिके कारण
पूर्वकालमें विदूरथ नामसे प्रसिद्ध एक हैहयवंशी राजा हो गये हैं, जो बड़े-बड़े यज्ञ करनेवाले, दानपति तथा प्रत्येक कार्यमें दक्ष थे। एक समय राजा विदूरथ अपनी सेनाके साथ हिंसक पशुओंसे भरे हुए वनमें शिकार खेलनेके लिये गये। वहाँ उन्होंने सर्पोंके समान विषैले बाणोंसे कितने ही चीता, शम्बर, व्याघ्र और सिंह आदि पशुओंको मारा। उन वन-जन्तुओंमेंसे एक पशु उनके बाणसे घायल होकर भी धरतीपर नहीं गिरा और बाण लिये जोरसे भागा । राजाने भी कौतूहलवश उसके पीछे अपना घोड़ा दौड़ाया। इस प्रकार वे अपनी सेनाको छोड़कर दूसरे घोर वनमें जा पहुँचे, जो मनमें भय उत्पन्न करनेवाला था। उसमें प्रायः काँटेदार वृक्ष भरे हुए थे। वहाँकी सारी भूमि रूखी, पथरीली तथा जलसे हीन थी। उस वनमें जाकर राजा विदूरथ भूख और प्याससे व्याकुल हो गये और उस दुर्गम वनका अन्त ढूँढ़ते हुए अपने घोड़ेको कोड़ेसे पीट-पीटकर हाँकने लगे। घोड़ा हवासे बातें करने लगा और उसने राजाको सब जन्तुओंसे रहित दूरस्थ दुर्गम मार्गमें पहुँचा दिया। अन्तमें वह अश्व भी भूमिपर गिर पड़ा।
तदनन्तर भूख-प्याससे व्याकुल राजा उस वनके भीतर पैदल ही चलने लगे और एक जगह लड़खड़ाकर गिर पड़े। इतनेमें ही उन्होंने आकाशमें अत्यन्त भयंकर तीन प्रेत देखे। उन्हें देखकर वे भयसे थर्रा उठे और जीवनसे निराश होकर बड़े क्लेशसे बोले- ‘तुमलोग कौन हो? मैं भूख-प्याससे पीड़ित राजा विदूरथ हूँ। शिकारके पीछे जीव-जन्तुओंसे रहित इस वनमें आ पहुँचा हूँ।’
तब उन तीनों प्रेतोंमें जो सबसे ज्येष्ठ था, उसने विनयपूर्वक हाथ जोड़कर कहा-‘महाराज! हम तीनों प्रेत हैं और इसी वनमें रहते हैं। अपने कर्मजनित दोषसे हमलोग महान् दुःख उठा रहे हैं। मेरा नाम मांसाद है, यह दूसरा मेरा साथी विदैवत है और तीसरा कृतघ्न है, जो हम सबमें बढ़कर पापात्मा है। हमें जिस-जिस कर्मके द्वारा यहाँ एक ही साथ प्रेतयोनिकी प्राप्ति हुई है. वह सुनो। राजन् ! हम तीनों वैदेशपुरमें देवरात नामक महात्मा ब्राह्मणके घरमें उत्पन्न हुए थे। हमने नास्तिक होकर धर्म-मर्यादाका उल्लंघन किया और हमलोग सदा परायी स्त्रियोंके मोहमें फँसे रहे। मैंने जिह्वाकी लोलुपताके कारण सदा मांसका ही भोजन किया, अतः मुझे अपने कर्मके अनुसार ही ‘मांसाद’ नाम प्राप्त हुआ। महाराज ! यह दूसरा जो तुम्हारे सामने खड़ा है, इसने देवताओंका पूजन किये बिना ही सदा अन्न ग्रहण किया है, उसी कर्मके फलसे इसे प्रेत-योनिमें आना पड़ा है और देवताओंके विपरीत चलनेके कारण इसका नाम ‘विदैवत’ हुआ है। और जिस पापीने सदा दूसरोंके साथ कृतघ्नता विश्वासघात किया है, वही अपने कर्मके अनुसार ‘कृतघ्न’ नामवाला हुआ है।’
राजाने पूछा-‘ इस मनुष्यलोकमें सब प्राणी आहारसे ही जीवन धारण करते हैं। यहाँ तुमलोगोंको कौन-सा आहार प्राप्त होता है, सो मुझे बताओ ?’
मांसाद बोला—‘जिस घरमें भोजनके समय स्त्रियोंमें युद्ध होता है, वहाँ प्रेत भोजन करते हैं। राजन्! जहाँ बलिवैश्वदेव किये बिना और भोजनमेंसे पहले अग्राशन गोग्रास आदि दिये बिना भोजन किया जाता है, उस घरमें भी प्रेत भोजन करते हैं। जिस घरमें कभी झाड़ नहीं लगती, जो कभी गोबर आदिसे लीपा नहीं जाता है तथा जहाँ मांगलिक कार्य और अतिथि आदिका सत्कार नहीं होता, उसमें भी प्रेत भोजन करते हैं। जिस घरमें फूटे बर्तनका त्याग नहीं किया जाता तथा वेदमन्त्रोंकी ध्वनि नहीं होती, वहाँ प्रेत आहार करते हैं। जो श्राद्ध दक्षिणासे रहित और शास्त्रोक्त विधिसे हीन होता है तथा जिसपर रजस्वला स्त्रीकी दृष्टि पड़ जाती है, वह श्राद्ध एवं भोजन हमारे अधिकारमें आ जाता है। जो अन्न केश, मूत्र, हड्डी और कफ आदिसे संयुक्त हो गया है और जिसे हीनजातिके मनुष्योंने छू दिया है, उसपर भी हमारा अधिकार हो जाता है। जो मनुष्य असहिष्णु, चुगली खानेवाला, दूसरोंका कष्ट देखकर प्रसन्न होनेवाला, कृतघ्न तथा गुरुकी शय्यापर सोनेवाला है और जो वेदों एवं ब्राह्मणोंकी निन्दा करता है, ब्राह्मणकुलमें पैदा होकर मांस खाता है और सदा प्राणियोंकी हिंसा करता है, वह प्रेत होता है। जो परायी स्त्रीमें आसक्त, दूसरेका धन हड़प लेनेवाला तथा परायी निन्दासे सन्तुष्ट होनेवाला है और जो धनकी इच्छासे नीच एवं वृद्ध पुरुषके साथ अपनी कन्याका व्याह कर देता है, वह प्रेत होता है। जो मनुष्य उत्तम कुलमें उत्पन्न, विनयशील और दोषरहित धर्मपत्नीका त्याग करता है, जो देवता, स्त्री और गुरुका धन लेकर उसे लौटा नहीं देता है तथा जो ब्राह्मणोंके लिये धनका दान होता देख उसमें विघ्न डालता है, वह प्रेत होता है। [ स्कन्दपुराण ]