दान, दया और दमन

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दान, दया और दमन

एक समय देवता, मनुष्य और असुर पितामह प्रजापति ब्रह्माजीके पास शिष्यभावसे विद्या सीखने गये एवं नियमपूर्वक ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए उनकी सेवा करने लगे। इस प्रकार कुछ काल बीत जानेपर उन्होंने उपदेश ग्रहण करना चाहा। सबसे पहले देवताओंने जाकर प्रजापतिसे प्रार्थना की- भगवन्! हमें उपदेश कीजिये।’ प्रजापतिने उत्तरमें एक ही अक्षर कह दिया ‘द’। स्वर्ग में भोगोंकी भरमार है, भोग ही देवलोकका सुख माना गया है, कभी वृद्ध न होकर देवगण सदा इन्द्रिय-भोगोंमें लगे 1 रहते हैं, अपनी इस अवस्थापर विचारकर देवताओंने ‘द’ का अर्थ ‘दमन’- ‘इन्द्रियसंयम’ समझा और अपनेको कृतकृत्य मानकर प्रजापतिको प्रणामकर वे वहाँसे चलने लगे। प्रजापतिने पूछा- ‘क्यों! मेरे उपदेश किये हुए अक्षरका अर्थ तो तुम समझ गये न ?’ देवताओंने कहा ‘जी! समझ गये, आपने हम विलासियोंको इन्द्रिय-दमन करनेकी आज्ञा की है।’ प्रजापतिने कहा-‘तुमने ठीक समझा, मेरे ‘द’ कहनेका यही अर्थ था। जाओ, परंतु मेरे उपदेशके अनुसार चलना, तभी तुम्हारा कल्याण होगा।’
तदनन्तर मनुष्योंने प्रजापतिके पास जाकर कहा ‘भगवन्! हमें उपदेश कीजिये।’ प्रजापतिन उनको भी वही ‘द’ अक्षर सुना दिया। मनुष्याने विचार किया, हम कर्मयोनि होनेके कारण सदा लोभवश कर्म करने और अर्थ-संग्रह करनेमें ही लगे रहते हैं। इसलिये प्रजापतिने हम लोभियोंको ‘दान’ करनेका उपदेश किया है। यह निश्चयकर वे अपनेको सफल मनोरथ मानकर चलने लगे, तब प्रजापतिने उनसे पूछा, ‘तुमलोग मेरे कथनका अर्थ समझकर जा रहे। हो न ?’ संग्रहप्रिय मनुष्योंने कहा- ‘जी हाँ, समझ गये, आपने हमें दान करनेकी आज्ञा दी है।’ यह सुनकर प्रजापति प्रसन्न होकर बोले, ‘हाँ, मेरे कहनेका यही अर्थ था, तुमने ठीक समझा है। अब इसके अनुसार चलना, तभी तुम्हारा कल्याण होगा।’
इसके पश्चात् असुरोंने प्रजापति के पास जाकर प्रार्थना की- ‘भगवन्! हमें उपदेश कीजिये।’ इनको भी प्रजापतिने ‘द’ अक्षरका ही उपदेश किया। असुरोने समझा, ‘हमलोग स्वभावसे ही हिंसावृत्तिवाले हैं, क्रोध और हिंसा हमारा नित्यका व्यापार है, अतएव प्रजापतिने हमें इस दुष्कर्मसे छुड़ानेके लिये कृपा करके जीवमात्रपर दया करनेका ही उपदेश दिया है।’ यह विचारकर वे जब चलनेको तैयार हुए, तब प्रजापतिने यह सोचकर कि ये लोग मेरे उपदेशका अर्थ समझे या नहीं, उनसे पूछा- ‘तुम जा रहे हो, परंतु बताओ, मैंने तुम्हें क्या करने को कहा है?’ तब हिंसाप्रिय असुरोने कहा-‘देव! आपने हम हिंसकोंको ‘द’ कहकर प्राणिमात्रपर दया करनेकी आज्ञा की है।’ यह सुनकर प्रजापतिने कहा- ‘वत्स। तुमने ठीक समझा, मेरे कहनेका यहाँ तात्पर्य था। अब तुम द्वेष छोड़कर प्राणिमात्रपर दया करना, इससे तुम्हारा कल्याण होगा।’
देव दनुज मानव सभी लहैं परम कल्यान ।
पालै जो ‘द’ अर्थको दमन दया अरु दान ॥

दान, दया और दमन
एक समय देवता, मनुष्य और असुर पितामह प्रजापति ब्रह्माजीके पास शिष्यभावसे विद्या सीखने गये एवं नियमपूर्वक ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए उनकी सेवा करने लगे। इस प्रकार कुछ काल बीत जानेपर उन्होंने उपदेश ग्रहण करना चाहा। सबसे पहले देवताओंने जाकर प्रजापतिसे प्रार्थना की- भगवन्! हमें उपदेश कीजिये।’ प्रजापतिने उत्तरमें एक ही अक्षर कह दिया ‘द’। स्वर्ग में भोगोंकी भरमार है, भोग ही देवलोकका सुख माना गया है, कभी वृद्ध न होकर देवगण सदा इन्द्रिय-भोगोंमें लगे 1 रहते हैं, अपनी इस अवस्थापर विचारकर देवताओंने ‘द’ का अर्थ ‘दमन’- ‘इन्द्रियसंयम’ समझा और अपनेको कृतकृत्य मानकर प्रजापतिको प्रणामकर वे वहाँसे चलने लगे। प्रजापतिने पूछा- ‘क्यों! मेरे उपदेश किये हुए अक्षरका अर्थ तो तुम समझ गये न ?’ देवताओंने कहा ‘जी! समझ गये, आपने हम विलासियोंको इन्द्रिय-दमन करनेकी आज्ञा की है।’ प्रजापतिने कहा-‘तुमने ठीक समझा, मेरे ‘द’ कहनेका यही अर्थ था। जाओ, परंतु मेरे उपदेशके अनुसार चलना, तभी तुम्हारा कल्याण होगा।’
तदनन्तर मनुष्योंने प्रजापतिके पास जाकर कहा ‘भगवन्! हमें उपदेश कीजिये।’ प्रजापतिन उनको भी वही ‘द’ अक्षर सुना दिया। मनुष्याने विचार किया, हम कर्मयोनि होनेके कारण सदा लोभवश कर्म करने और अर्थ-संग्रह करनेमें ही लगे रहते हैं। इसलिये प्रजापतिने हम लोभियोंको ‘दान’ करनेका उपदेश किया है। यह निश्चयकर वे अपनेको सफल मनोरथ मानकर चलने लगे, तब प्रजापतिने उनसे पूछा, ‘तुमलोग मेरे कथनका अर्थ समझकर जा रहे। हो न ?’ संग्रहप्रिय मनुष्योंने कहा- ‘जी हाँ, समझ गये, आपने हमें दान करनेकी आज्ञा दी है।’ यह सुनकर प्रजापति प्रसन्न होकर बोले, ‘हाँ, मेरे कहनेका यही अर्थ था, तुमने ठीक समझा है। अब इसके अनुसार चलना, तभी तुम्हारा कल्याण होगा।’
इसके पश्चात् असुरोंने प्रजापति के पास जाकर प्रार्थना की- ‘भगवन्! हमें उपदेश कीजिये।’ इनको भी प्रजापतिने ‘द’ अक्षरका ही उपदेश किया। असुरोने समझा, ‘हमलोग स्वभावसे ही हिंसावृत्तिवाले हैं, क्रोध और हिंसा हमारा नित्यका व्यापार है, अतएव प्रजापतिने हमें इस दुष्कर्मसे छुड़ानेके लिये कृपा करके जीवमात्रपर दया करनेका ही उपदेश दिया है।’ यह विचारकर वे जब चलनेको तैयार हुए, तब प्रजापतिने यह सोचकर कि ये लोग मेरे उपदेशका अर्थ समझे या नहीं, उनसे पूछा- ‘तुम जा रहे हो, परंतु बताओ, मैंने तुम्हें क्या करने को कहा है?’ तब हिंसाप्रिय असुरोने कहा-‘देव! आपने हम हिंसकोंको ‘द’ कहकर प्राणिमात्रपर दया करनेकी आज्ञा की है।’ यह सुनकर प्रजापतिने कहा- ‘वत्स। तुमने ठीक समझा, मेरे कहनेका यहाँ तात्पर्य था। अब तुम द्वेष छोड़कर प्राणिमात्रपर दया करना, इससे तुम्हारा कल्याण होगा।’
देव दनुज मानव सभी लहैं परम कल्यान ।
पालै जो ‘द’ अर्थको दमन दया अरु दान ॥

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