महाराज जीमूतकेतुके ऐश्वर्यका पार नहीं था। उन्होंने देवराज इन्द्रकी उपासना करके कल्पवृक्ष प्राप्त किया था। उनका राजभवन इतना भव्य था कि देवता भी उसे देखकर मुग्ध हो उठते थे। एक धार्मिक नरेश सांसारिक वैभवमें ही आसक्त रहे और मनुष्य जीवन व्यर्थ व्यतीत कर दे, यह योग्य कार्य नहीं है। धर्मका सच्चा फल तो भोगोंसे विरक्ति तथा मोक्षकी प्राप्ति ही है भगवान् दत्तात्रेयको दया आ गयी राजा जीमूतकेतुपर वे मलिन वस्त्र पहिने, केश बिखराये भूलिधूसर अवधूत वेशमें आये और राजभवनमें राजाके पलंगपर ही जा विराजे।
राजसेवक डरे; किंतु आगत आगन्तुक जो किएक पागल जान पड़ता था, उसके मुखका तेज कुछ ऐसा था कि कोई सेवक उसे रोकने या हटानेका साहस नहीं कर सका। अपनी शय्यापर एक उन्मत्त भिखारीको बैठे देखकर राजा जीमूतकेतु क्रोधसे लाल हो उठे। वे उसके पास आकर बोले – ‘तू कौन है ? यहाँ राजभवनमें क्यों घुस आया ? निकल यहाँसे ।’
अवधूत दत्तात्रेय बड़ी निश्चिन्ततासे बोले – ‘ भाई ! अप्रसन्न क्यों होते हो? यह तो धर्मशाला है। तुम भी इसमें ठहरो, मैं भी ठहरता हूँ।’
‘यह मेरा राजभवन है, धर्मशाला नहीं। समझे ! चलो, बाहर जाओ!’ राजाने डाँटा । अवधूत – ‘ तो इसमें सदासे – हजार, दो हजारवर्षसे तुम्हीं हो ?’
राजा – ‘कैसा पागल है, मुझे तो जन्म लिये अभी पचास वर्ष हुए।’ अवधूत – ‘उससे पहले इसमें कौन था ?’
राजा- ‘मेरे पूज्य पिता।’ अवधूत – ‘वे कहाँ गये ? कब लौटेंगे ?’ राजा – ‘उनका शरीरान्त हो गया। वे अब कभीनहीं लौटेंगे।’
अवधूतने इसी प्रकार कई बार पूछा और राजाने बताया कि पितासे पूर्व पितामह, उनसे पूर्व प्रपितामह उस भवनमें रहते थे। अवधूत हँसे और बोले—’भले आदमी! जहाँ मनुष्य आकर कुछ काल ठहरकर चला जाय, फिर न लौटे वह धर्मशाला नहीं तो है क्या ?’
Maharaj Jimutketu’s opulence was beyond measure. He had obtained Kalpavriksha by worshiping Devraj Indra. His palace was so grand that even the gods used to get mesmerized by seeing it. A religious king should be engrossed in worldly glory and a human being should spend his life in vain, it is not a worthy act. The true fruit of religion is detachment from pleasures and attainment of salvation. Lord Dattatreya felt pity on King Jimut Ketu, dressed in dirty clothes, disheveled hair, came in the guise of a dark gray Avdhoot and went to sit on the king’s bed in the Raj Bhavan.
The royal servants were afraid; But the incoming visitor who seemed to be mad, his face was such that no servant could dare to stop or remove him. Seeing a mad beggar sitting on his bed, King Jimutketu turned red with anger. They came to him and said – ‘Who are you? Why did you enter the Raj Bhavan here? Get out .’
Avdhoot Dattatreya said with great carelessness – ‘Brother! Why are you unhappy? This is Dharamshala. You also stay in it, I also stay.’
‘This is my Raj Bhavan, not a Dharamshala. Got it! Come on, go out!’ The king scolded. Avdhoot – ‘So you have always been in this – for thousand, two thousand years?’
Raja – ‘How crazy, it’s been fifty years since I was born.’ Avdhoot – ‘Who was in it before that?’
Raja – ‘My respected father.’ Avdhoot – ‘Where have they gone? When will you return? Raja – ‘His body has passed away. They will never return now.’
Avadhoot asked many times in the same way and the king told that before the father, the great grandfather used to live in that building. Avdhoot laughed and said – ‘Good man! Where a man comes and stays for some time and leaves, then does not return, is it not a dharamshala, then is it?