मैं भगवान् नहीं भगवान् का भक्त बनना चाहता हूँ , क्योंकि भगवान् स्वयं से भी उतना प्रेम नहीं करते जितने वे अपनों भक्तों से करते हैं ,
भक्त के लिए ही भगवान् ने पानी पे पत्थर तैरा दिए , भक्त के लिए ही साडी का ढेर लगा दिया,
भक्त के लिए ही खम्बा फाड़ कर विकराल रूप दिखाया , भक्त के लिए ही पर्वत को अपनी तर्जनी पे धारण किया, भक्त के लिए ही जूठे बेर खाए,
भक्त के लिए ही केले के छिलके खाए,
भक्त के लिए ही सारथि का नीचा काम भी कर लिया, भक्त के लिए ही गर्भ में शंख , चक्र ले कर प्रकट हो गए , और पता नहीं क्या क्या …..
क्या कुछ नहीं करते मेरे गोविन्द अपने भक्तों के लिए ,
ऐसे भक्त वत्सल भगवान् “श्री हरि” को छोड़कर मैं और कहीं नहीं जाना चाहता …
I want to be a devotee of God and not God, because God does not love himself as much as he loves his devotees.
God made stones float on the water for the sake of the devotee, heaped saris for the sake of the devotee. For the sake of the devotee, he showed a formidable form by tearing the pillar, for the sake of the devotee he held the mountain on his forefinger, for the sake of the devotee only he ate false berries, Eat banana peels only for the sake of the devotee. For the sake of the devotee only did the lowly work of the charioteer, for the sake of the devotee appeared with conch, chakra in the womb, and don’t know what else…..
Doesn’t my Govind do anything for his devotees,
I don’t want to go anywhere other than such devotee Vatsal Bhagwan “Shri Hari”…